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पाञ्चजन्य के 17 फरवरी, 2003 के अंक में तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया से विस्तृत वार्ता प्रकाशित की थी इसमें रज्जू भैया ने पूर्वाञ्चल सहित भारत के जनजातीय समाज को मुख्यधारा में समरस करने पर बल दिया। उन्होंने समाज में समरसता का भाव पुष्ट करने की आवश्यकता जताई थी जो आज के संदर्भों में भी अत्यंत करणीय है
जिस विचारधारा को लेकर हम चले हैं, उस आधार पर वनवासी विकास कैसे होना चाहिए?
देशभर में ऐसे कई शिक्षा संस्थान हैं, जहां पूर्वांचल से बच्चे आते हैं, लेकिन कहीं भी तकनीकी प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं है। केवल माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक एवं स्नातक विषयों में शिक्षा की व्यवस्था है। यह सही है कि उस शिक्षा को पाकर भी कोई ह्यइंजीनियरिंगह्ण या ह्यमेडीकलह्ण में जा सकता है। लेकिन जिन बच्चों की प्रौद्योगिकी में रुचि होती है वे मोटरसाइकिल, जीप आदि की मरम्मत करने या उनके कलपुर्जे आदि बनाने का काम करते हैं। इन कार्यों में उनकी बड़ी रुचि होती है। वनवासी बच्चों को तकनीकी प्रशिक्षण देने से उनका काफी विकास होगा और उनकी नैसर्गिक प्रतिभा निखरेगी।
आज सूचना प्रौद्योगिकी का युग है। इसलिए यह आवश्यक है कि बच्चों को कम्प्यूटर की जानकारी हो। इसमें इनकी रुचि भी है। इस प्रकार की शिक्षा से ये बच्चे सभी प्रकार की प्रतियोगिताओं के लिए सक्षम हो सकेंगे।
पूर्वाञ्चल में इतनी अधिक हिंसा और अराष्ट्रीय गतिविधियां चल रही हैं। इस दृष्टि से जब वहां के बच्चे ऐसे विद्यालयों में पढ़ते हैं तो उसका क्या लाभ होता है?
पूर्वाञ्चल के लगभग 400 बच्चे महाराष्ट्र में वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में शिक्षा ले रहे हैं, ऐसे ही लगभग 6-7 स्थान उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि प्रांतों में भी हैं। यहां पढ़ने से, यहां के वातावरण में रहने से वे सारे देश को अपना समझते हैं। पूरे देश की संस्कृति को अपना समझते हैं। इससे उनकी अलगाव की वृत्ति दूर हो जाती है। शिक्षा पूर्ण कर वे अपने क्षेत्र में लौटकर वहां भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों में भाग लेते हुए अपनी विशेषताओं से शेष लोगों को अनुप्राणित करते हैं।
निरंतर सम्पर्क नहीं है, हम बात नहीं करते इसलिए उनको लगता है कि वे बहुत अलग हैं। एक बार मैं नागालैंड गया था। वहां एक सभा थी, उसमें बहुत लोग आए हुए थे। उनमें कुछ अलगाववादी विचार वाले भी थे। वे कहने लगे कि हमें दिल्ली से कोई आपत्ति नहीं है। वे आते हैं, पैसा भेजते हैं, सामान भेजते हैं, यह तो ठीक है पर जो उनके आदमी यहां रहते हैं, वह हमारे काम में हस्तक्षेप है। मैंने कहा कि यह हस्तक्षेप नहीं है। आपको पता नहीं है कि पैसा कैसे लगाना है, कहां लगाना है, किस योजना में कितना निवेश करना है। यदि वे 5 करोड़ का अनुदान भेजते हैं तो उसके उचित उपयोग के लिए व्यक्ति भी भेजते हैं। उन्होंने फिर कहा कि हमारा दिल्ली के साथ कभी कोई सम्बंध नहीं रहा, हम हमेशा ही अलग रहे हैं। फिर आज सम्बंध जोड़ने की क्या आवश्यकता है? मैंने हंसते हुए पूछा कि आपने कभी महाभारत पढ़ी है क्या? वे बोले, हां पढ़ी है। मैंने पूछा, चित्रांगदा, उलुपी-ये जो नाम हैं, ये कहां के थे? उलूपी नागकन्या थी, चित्रांगदा मणिपुर की थी। अब बताइए, चित्रांगदा की शादी हुई अर्जुन से, तो क्या कोई सम्बंध नहीं था?
हिडिंबा से भीम का विवाह हुआ। कृष्ण भी अरुणाचल आए थे। अर्थात् उस काल में जितने साधन थे, उससे कहीं अधिक सम्पर्क था। आज भी आप पाएंगे कि शेष देश के लोगों में आपके लिए जितना प्रेम है और जितना वे आपके साथ सहयोग करने की दृष्टि रखते हैं, वह आपको भारत देश से बाहर कहीं नहीं मिलेगा।
पूर्वाञ्चल के लोग शेष भारत से समरस हों, इसके लिए क्या करना चाहिए?
सबसे पहले हमने सोचा कि वहां ऐसा कौन है जो बहुत आदर का पात्र है और जिसकी भारत देश के प्रति अच्छी दृष्टि है। तो हमें रानी मां गाइदिन्ल्यू मिलीं। हमने उन्हें कुंभ के अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद् के विशाल हिन्दू सम्मेलन में बुलाया। पहले तो उन्होंने कहा कि हम अपने को हिन्दू नहीं मानते हैं, हिन्दू का क्या अर्थ होता है? पर अंतत: वे वहां से प्रयाग आ गईं। वहां वे वीरेन्द्र भाई के घर रुकीं। उन्होंने पूछा कि हम हिन्दू कैसे हैं?
हम पेड़ की पूजा करते हैं, पक्षी की पूजा करते हैं, भूमि की, सूर्य-चन्द्र की पूजा करते हैं। हमने पूछा कि पहली बात यह है कि दुनिया में कौन ऐसा है जो इस पद्धति को स्वीकार करता है? केवल हिन्दू स्वीकार करता है। क्योंकि यहां भी पीपल की, तुलसी की, नीलकंठ की पूजा होती है। इसलिए हमें नहीं लगता कि आपकी कोई अलग पूजा-पद्धति है। और आप भी पाएंगी कि ईसाइयों की या इस्लाम की उपासना-पद्धति में किसी अन्य के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि आप हिन्दू हैं। केवल इतना ही है कि आप अपनी हिन्दू पहचान भूल गए हैं। लेकिन हमें कभी नहीं लगता कि आप हमसे अलग हैं। बाद में रानी मां गाइदिन्ल्यू के पूरे जीवनकाल में उनसे हमारी निकटता रही। जेलियांग रांग विद्यालय खोलने के समय वे हमारे साथ थीं। इस प्रकार यहां उनके लिए विद्यालय खोलने, उसमें वहां से छात्रों को लाकर पढ़ाने से घनिष्ठता बढ़ती है, गलतफहमी दूर होती है। मतान्तरण में लगे लोग उन्हें दिग्भ्रमित नहीं कर पाते।
इन सब कार्यों में संघ की विचारधारा की क्या भूमिका है? इस समय देश की स्थिति, उसमें जो उपेक्षित, वनवासी वर्ग हैं-उन क्षेत्रों के लिए संघ क्या विचार रखता है?
इन क्षेत्रों में काम की बहुत आवश्यकता है। इसलिए हम अपनी क्षमतानुसार काम करते भी हैं। साथ में विश्व हिन्दू परिषद् तथा ऐसी अन्यान्य संस्थाओं को भी इस क्षेत्र में रुचि लेकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह सत्य है कि आज समाज के जो ऐसे वर्ग हैं, उन्हें फुसलाने के, सुविधाएं देकर उन्हें हिन्दू समाज से अलग करने के बहुत प्रयत्न चल रहे हैं। ईसाई मिशनरियों के प्रयास चल ही रहे हैं, जिनकी श्रद्धा या दृष्टि यहां से मेल नहीं खाती। पाकिस्तान, बंगलादेश के लोग भी हैं, जो ऐसे प्रयत्नों में लगे हुए हैं। पर हम बिना घबराए, साहस के साथ इन क्षेत्रों में अपना काम बढ़ाते चलें, इसकी बहुत आवश्यकता है।
कुछ लोग स्वयं को दलित ही कहते हैं। हमने बहुत कहा कि नहीं भाई, तुम वंचित हो, दलित नहीं हो। कौन तुम्हें दबा रहा है? यह कह सकते हो कि हमारे पास साधन कम हैं, परन्तु दबाने की बात नहीं है। फिर भी यह विचार बना हुुआ है। ऐसे वर्ग के लिए हमें अधिक से अधिक समय देना चाहिए, उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहिए। देश में सब धाराओं के साथ मिलकर, एक समरस जीवन पैदा हो, यह हमारी आशा और अपेक्षा है।
पर क्या इसके लिए हिन्दू समाज भी दोषी नहीं है? हिन्दू समाज तो आज भी उन्हें अपनत्व का भावबोध नहीं कराता। उनके प्रति जो भेदभाव होता था, वह आज तक विद्यमान है। उसके कारण स्वाभाविक रूप में उनके अंदर एक क्षोभ तो पैदा होता ही है।
अब तक लोगों ने इस अलगाव की भावना को और बढ़ाने का ही काम किया। वैरियर एल्विन की पं. नेहरू से काफी निकटता थी। पता नहीं उन्होंने नेहरू जी को कैसे समझा दिया कि देश स्वतंत्र होने के बाद सारे देश से लोग पूर्वोत्तर के क्षेत्रों पर आक्रमण-सा करेंगे, इनका शोषण करेंगे। ये लोग सीधे हैं, वे लोग इनकी जमीन हड़प लेंगे। यहां के प्राकृतिक संसाधनों और सम्पत्तियों को खत्म कर देंगे। इसलिए इन क्षेत्रों को सुरक्षित कर देना चाहिए, बाकी लोगों को यहां आने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इसी कारण इनर लाइन परमिट आदि की व्यवस्था नेहरू जी अंग्रेजों के जाने के बाद भी चलाते रहे। इसके कारण वे शेष भारत से समरस नहीं हो पाए।
वह तो अभी भी है। लेकिन हिन्दू समाज में छुआछूत
है, भेदभाव है। अभी भी अंतरजातीय विवाह कम होते हैं।
अंतरजातीय विवाह इसलिए कम होते हैं, क्योंकि जातियों, जनजातियों में भी अपनी-अपनी संस्कृतियों का आग्रह आड़े आता है। दूसरी बात, छुआछूत का भाव वनवासियों के प्रति नहीं है, यह केवल शहरों, गांवों में रहने वाली अनुसूचित जाति के प्रति है। मृत पशुओं का काम करने वाले, मैला उठाने का काम करने वाले और कुछ इसी तरह का काम करने वाले लोगों से छुआछूत का बर्ताव किया जाता है। लेकिन अब काफी मात्रा में वह कम हुआ है।
छुआछूत, छोटे-बड़े की भावना पूरी तरह समाप्त होनी चाहिए। कई लोग यह प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक कारणों से देश के साथ जुड़ाव पैदा नहीं होता। क्या मिलेगा, क्या नहीं, इसी की चिन्ता अधिक होती है। इसलिए समाज को, सामाजिक संगठनों को इस ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।
आज हिन्दू समाज की जो स्थिति है, उसमें आत्मसुधार की बात कहीं होती नहीं दिखती। मंदिर गंदे रहते हैं, दहेज प्रथा है, रूढ़ियां हैं, कुरीतियां हैं, तीर्थस्थानों पर पंडे ठीक से व्यवहार नहीं करते। ऐसे में हिन्दू समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए हिन्दू संगठनों की क्या भूमिका होनी चाहिए?
इन संगठनों का तो काम यही है, वे कर भी रहे हैं। हां, यह बात सही है कि पूजा-पद्धति सम्पन्न कराने वाले पंडों के हृदयों में यह भाव उत्पन्न करना चाहिए कि यदि वे धार्मिक स्थलों पर व्यावहारिक गलतियां करते रहे तो हमारा अस्तित्व, हमारी विचारधारा, हमारी श्रेष्ठता सब खतरे में पड़ जाएगी।
जहां तक रूढ़ियों, कुरीतियों, छुआछूत की बात है तो लोग कहते हैं कि अभी इसके लिए समाज तैयार नहीं है। पर स्वयंसेवकों, विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्तार्ओं के द्वारा किए गए कुछ कार्य- जैसे डोमराजा के घर भोजन करना, अयोध्या में श्रीराम मंदिर के शिलान्यास का पहला पत्थर वंचित वर्ग के व्यक्ति द्वारा रखा जाना, नागपुर में शंकराचार्य जी द्वारा डॉ. आंबेडकर की मूर्ति पर माल्यार्पण, ये सब प्रतीकात्मक हैं।
इस प्रकार का विचार रात-दिन उनके बीच में हो, तब उनमें कोई परिवर्तन आएगा। जब उनमें परिवर्तन आएगा तभी तथाकथित दलित या वंचित वर्ग में परिवर्तन आएगा।
भारत के बारे में आपका स्वप्न क्या है? आप कैसा भारत देखना चाहते हैं?
हम यह बिल्कुल नहीं चाहते कि भारत आर्थिक दृष्टि से अमेरिका का अनुगामी या प्रतिद्वंद्वी हो, क्योंकि अमेरिका और पश्चिम की बाजारोन्मुखी दृष्टि से, जो प्रकृति का शोषण करती है, हम बिल्कुल सहमत नहीं हैं। चरित्रवान भारत, जिसके कुछ जीवन मूल्य हैं, जो विद्यावान है, जिसने कुछ कहा तो विश्व के लोग सुनने को तैयार हैं, ऐसे भारत की हमारी कल्पना है। ऐसा भारत तभी बन सकता है जब हर क्षेत्र में- शिक्षा, धर्म, समाज में चरित्रवान लोग हों। पर लगता है हम बौने हो गए हैं। स्वामी विवेकानन्द, रवींद्रनाथ, श्री अरविन्द इन सबको अलग रखकर देखिए कि बंगाल में लोगों के सामने क्या आदर्श हैं। ऐसे भारत की तो हमें बिल्कुल आवश्यकता नहीं लगती है जो अमेरिका, रूस के दिखाए मार्ग पर चलता हो। हमारा मार्ग, हमारा होगा। और वह मार्ग हमारे लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए होगा।
भारत ऐसा मार्गदर्शक बन सकता है। वह विश्व के सामने उदात्त विचार रख सकता है। श्रेष्ठ व्यक्तित्व के उदाहरण रख सकता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण जैसे व्यक्तित्व होते हैं तब देश की मान्यता बढ़ती है। हमारी कल्पना का भारत है सामर्थ्य और रक्षा में हर दृष्टि से सक्षम ऐसा भारत, जो न परमाणु बम से डरेगा और न किसी अन्य शस्त्रास्त्र से। हम एक ऐसे विश्व की कल्पना करते हैं जिसमें कोई देश किसी दूसरे देश को डराने का अधिकार न रखता हो।
तरुण विजय
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