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पाञ्चजन्य ने अपने एक अंक में पाठकों से प्रख्यात लेखक रामधारी सिंह दिनकर से राष्ट्र-समाज जैसे विषयों पर सवाल पूछने के लिए आमंत्रित किया था। उसी क्रम में किए गए सवाल-जवाब प्रस्तुत हैं-
ल्ल एक जीवित राष्ट्र की क्या पहचान है? उसके लिए क्या आवश्यक है?
जीवित राष्ट्र में एकता होनी चाहिए। आशा और उत्साह होना चाहिए। कोई दुश्मन चढ़ आए तो उसे मुंहतोड़ उत्तर देने की शक्ति होनी चाहिए। भारत में तो राष्ट्रीय एकता का मार्ग तभी प्रशस्त होगा, जब हमारे समाज से विषमता दूर हो।
क्या भारत की ‘युवा शक्ति’ देश में क्रांति लाने में समर्थ है?
भारत में क्रांति लाने की क्या जरूरत है? अब तो परिवर्तन और रूपांतरण लाना है, जो कि क्रांति के काम से कहीं कठिन है।
स्वतंत्र भारत के 25 वर्ष के पश्चात भी युवा पीढ़ी लक्ष्यहीन-दिशाहीन भटक रही है, ऐसा क्यों है?
मेरा ख्याल है वे लक्ष्यहीन नहीं हैं, सबके सब नौकरी खोज रहे हैं।
आज का युवक देश की सबसे अच्छी सेवा किस रूप में कर सकता है?
गांधी जी का अनुसरण करके। यानी, इस सिद्धान्त पर चलकर न कि हमारे अधिकार में जितनी भी कम चीजें हैं, हम उतने ही अधिक महान हैं।
पाश्चात्य भौतिकवाद और भारतीय अध्यात्मवाद के द्वन्द्व में किसकी विजय होगी? और कैसे होगी?
विजय किसी की नहीं होगी, बहुत आगे चलकर दोनों का समन्वय हो जाएगा।
अपनी लिखी रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ किसे मानते हैं और क्यों?
मैं अपनी सभी रचनाओं को श्रेष्ठ मानता हूं। सर्वश्रेष्ठ कौन है, आप निर्णय करें।
देश के छात्र युवा वर्ग को राजनीति से अलग रहने के लिए सब बड़े सरकारी नेता उपदेश देते हैं। लेकिन समयानुसार स्वार्थपूर्ण राजनीति में उनका अनुचित प्रयोग करने में कदापि नहीं हिचकिचाते। इन परिस्थितियों में छात्र युवा वर्ग को कौन सा पथ अपनाना चाहिए?
राजनीति सीखनी भी चाहिए और राजनीति से अलग भी रहना चाहिए।
मैं ईमानदारी एवं सच्चाई के साथ जीना चाहता हूं, पर दुनिया जीने नहीं देती। बताइए, क्या करूं?
आप ईमानदारी और सच्चाई पर डटे रहिए। यह सोचना भूल है कि मनुष्यता को प्रेरणा सफलता से मिलती है। मेरा ख्याल है कि दुनिया को रोशनी वे लोग देते हैं, जो ऊंचे आदर्शों के लिए संघर्ष करते-करते टूट जाते हैं। जो आदमी सफल हो गया, वह समाप्त हो गया। माखनलाल जी चतुर्वेदी की एक कविता याद आ गई-
सफलता पाई अथवा, नहीं,
उन्हें क्या ज्ञात? दे चुके प्राण;
विश्व को चाहिए उच्च विचार,
नहीं। केवल अपना बलिदान!
आप राम के बदले ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ क्यों कर रहे हैं?
चूंकि, परशुराम आ सकता है, राम नहीं आ सकते। परशुराम तभी तक अवतार रहे, जब तक उनकी राम से मुलाकात नहीं हुई। राम से मिलते ही परशुराम का तेज राम में समा गया। राम में ईश्वरत्व है, परशु में मनुष्यत्व का क्रोध प्रतिबिंबित था। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ कविता क्रोध की मुद्रा में लिखीा गई थी, इसलिए परशुराम चीनी आक्रमण के समय मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत हुए।
सभी लोग यहां तक कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री नुरुल हसन भी कहते हैं कि शिक्षा में परिवर्तन होना चाहिए। तो फिर शिक्षा में परिवर्तन होता क्यों नहीं?
क्योंकि जो लोग परिवर्तन की बात सोचते हैं, वे सबके सब उसी शिक्षा-पद्धति की संतान है।
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