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डॉ. राममनोहर लोहिया एक तेजस्वी सांसद के नाते सरकार की नीतियों की स्वस्थ आलोचना करते रहते थे। उन्होंने तत्कालीन सरकार की उद्योग नीति और अर्थनीति के संदर्भ में जो लिखा उसे पाञ्चजन्य के 5 नवंबर, 1993 के अंक में प्रकाशित किया गया था। आलेख में उन्होंने आर्थिक ढांचे की मजबूती और सैन्य ताकत, दोनों को आवश्यक बताया है।
डॉ. राममनोहर लोहिया, संसद सदस्य
आजकल यह प्राय: कहा जा रहा है कि पुरानी और छोटी-छोटी बातों पर बहस नहीं होनी चाहिए। मैं यह मान लेता हूं कि राष्टÑीय संकट के समय पुरानी और छोटी-छोटी बातों पर बहस न की जाए, लेकिन ताजा और मौजूदा बड़ी बातों पर तो बहस की ही जानी चाहिए। मैं यह भी मान लेता हूं कि सरकार की पुरानी और छोटी भूलों को माफ कर दिया जाए लेकिन उसकी मौजूदा और भयंकर भूलों को माफ करने या उनके प्रति उदासीनता दिखाने से आगे आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी।
बांह में ताकत चाहिए
चीन के हाल के हमलों में हमने जो भुगता उसे देश ने देखा। जनता जब सरकार के ऊपर इस भारी असफलता और निकम्मेपन का आरोप लगाती है तो सरकार की ओर से और सरकार के पक्षधरों की ओर से प्राय: यह तर्क दिया जाता है कि सरकार तो अपने देश की आर्थिक और औद्योगिक प्रगति के लिए काम करने में जुटी थी, सपनों का भारत बनाने के लिए सरकार योजनाएं बनाती और उन्हें कार्यान्वित करती रही। इसीलिए पल्टनी ताकत में कुछ कमजोर रह गए। हमें यह बात बहुत साफ तौर पर समझ लेनी है कि आर्थिक या औद्योगिक ताकत और पल्टनी ताकत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, सरकार का यह तर्क मिथ्या और बिल्कुल बेबुनियाद है। आर्थिक ढांचे को सुधारना, खेती-बाड़ी की तरक्की करना और कल-कारखाने खोलना, पल्टनी ताकत को कमजोर नहीं करता, उल्टे मजबूत बनाता है। खेती-बाड़ी और कल-कारखाने अगर मजबूत होंगे तो पल्टनी ताकत कमजोर नहीं होगी।
मनोबल और इच्छाशक्ति चाहिए
साम्यवाद मुझे पसंद नहीं और न मैं उसकी वकालत ही करता हूं। उसके आदर्श गलत हैं और यह भी सही है कि उसमें 98 प्रतिशत दोष हैं। लेकिन साम्यवादी हुकूमत की खूबी यह है कि वह जनता को गर्र्मी देती है, उसमें गति भर देती है। इस गर्मी और गति का मजदूरों पर या कल-कारखानों के उत्पादन पर उतना असर नहीं पड़ता क्योंकि मशीनों की ताकत तो फिर भी निश्चित है लेकिन इस गर्मी से किसान की पैदावार बढ़ जाती है। हमें दुश्मन की इस ताकत का एहसास होना चाहिए। इसमें राष्टÑ का मनोबल टूटने की बात नहीं, इससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। अपनी खामियां पूरी करने की जरूरत है।
यह तटस्थता कैसी
तटस्थ या निरपेक्ष नीति का बड़ा शोर मचाया जाता है। इस बिन लगाव वाली नीति को मानने वाले 55 देश हैं, जिसमें से 20 ने हिंदुस्तान की सरकार के साथ सहानुभूति व्यक्त की है। इन 20 में भी केवल दो ने अपनी इच्छा से किया है, बाकी और 18 देशों ने मांगने पर हमदर्दी दी है। मैं बिन लगाव वाली नीति का हामी हंू लेकिन यह बिन लगाव वास्तविक होना चाहिए।
हिन्दुस्तान में हुआ यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने कुछ मंत्रियों (मेनन-मालवीय आदि) को सोवियत रूस के प्रति भक्त होने के लिए कह दिया और पाटिल-देसाई वगैरह को दूसरे गुट को अटलांटिक वालों की तरफ झुकाया। फल यह हुआ है कि आज सारा देश तटस्थ होने के बजाय वामपंथ और दक्षिणपंथ में बंट गया है। अगर मैं मेनन-पाटिल का मालिक होता तो उन्हें कहता कि वे अपने दिमाग को मैदान-जंग बना लें। मेनन 70 प्रतिशत रूस के भक्त रहें पर 30 प्रतिशत अटलांटिक वालों की तरफ भी देखें। तब इन दोनों विश्व विचारधाराओं के समन्वय से नई चीज बनकर निकलती, नया रास्ता मिलता। ल्ल
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