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राष्टÑपति श्री रामनाथ कोविन्द जब भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष थे तब उन्होंने समाज में समन्वय और समरसता पर एक लेख लिखा था, जो पाञ्चजन्य के 26 मार्च, 2006 के अंक में प्रकाशित हुआ था। यह लेख आज भी सामयिक है।
आजादी के समय और आज की स्थिति में देश के अनुसूचित दलित वर्ग में व्यापक राजनीतिक जागरूकता आई है। वैसे यह जागरूकता ज्यादातर नकारात्मक रूपों में ही है। आर्थिक सम्पन्नता भी इस समाज में बढ़ी है। दूसरी ओर सवर्ण या कथित उच्च वर्णों की मानसिकता में भी आज गुणात्मक परिवर्तन आया है। विशेषकर शहरों में यह दिखाई भी देता है। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के व्यवहार से दिखता है कि कुछ अंशों में छुआछूत का भाव आज भी शहरों के कथित सभ्य लोगों में है। हां, जो हमारी युवा पीढ़ी है, उसका भविष्य मैं अच्छा देख रहा हूं। जो थोड़ी कमियां आज दिखती हैं, आने वाले कुछ दशकों में वे भी नहीं रहेंगी।
दलित वर्गों के लिए जहां तक आरक्षण का मुद्दा है तो संविधान ने इसे किसी समय सीमा में नहीं बांधा है। लोकसभा और विधानसभाओं में जो स्थान आरक्षित हैं, केवल उसके लिए समय सीमा बांधी गई थी। जहां तक आरक्षण से होने वाले लाभ का सवाल है, इस पर आज बहुत बहस होती है। मैंने एक बार संसद में कहा था कि देश के सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर बैठें और स्थिति स्पष्ट करें कि सरकारी नौकरियों में आज दलितों की वास्तविक भागीदारी क्या है। कितने प्रतिशत सीटें संविधान ने दलित वर्गों को दी हैं और आज उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? वास्तविकता यह है कि आज भी सरकारी नौकरियों में इतने आरक्षण के बावजूद 10 या 11 प्रतिशत स्थानों पर ही दलित हैं। प्रथम श्रेणी के पदों पर यह संख्या बहुत कम है। लेकिन मैं मानता हूं कि आरक्षण ही दलित वर्गों की समस्या का समाधान नहीं है। वास्तव में अच्छी गुणवत्तायुक्त शिक्षा उनके लिए आरक्षण से ज्यादा जरूरी है। हर जिले में न्यूनतम स्तर तक गुणवत्ता युक्त शिक्षा का प्रबन्ध यदि दलित वर्गों के लिए आजादी के तुरंत बाद प्रारंभ किया गया होता तो शायद आरक्षण के बगैर भी वे स्वावलम्बी हो गए होते। पर यह नहीं हुआ। बिना शिक्षा के आरक्षण का क्या मतलब है? मैं मानता हूं कि आरक्षण केवल दलित वर्गों को आर्थिक दृष्टि से राहत पहुंचा सकता है लेकिन सामाजिक दृष्टि से बिना सामाजिक समरसता आए उनका उत्थान नहीं हो सकता। सामाजिक समरसता का वातावरण बने, बिना सामाजिक समानता की बातें कोरी बातें ही रहेंगी।
मुझे सन्तोष है कि देश में इस दृष्टि से अनेक सामाजिक संगठन काम कर रहे हैं। आजादी के आन्दोलन में अछूतोद्घार को गांधी जी ने आन्दोलन का रूप दिया। आर्य समाज ने भी इस सन्दर्भ में काफी योगदान दिया। आज गायत्री परिवार, रा.स्व.संघ, विश्व हिन्दू परिषद् आदि अनेक संगठन इस कार्य बढ़ा कर रहे हैं। बहुत परिवर्तन आया भी है लेकिन अभी एक लम्बी यात्रा शेष है। सामाजिक परिवर्तन हेतु चल रहे कार्यों की गति धीमी है, इसे तेज करना होगा, और इसे एक आन्दोलन का रूप देना होगा। वस्तुत: देश में जातिभेद समाप्त हो, यह हिन्दू समाज के सुन्दर भविष्य के लिए बहुत जरूरी है। अनुसूचित जातियों को हेय समझना, घृणा की दृष्टि से देखा जाना निश्चित ही कम हुआ है पर इसका समूल विनाश जरूरी है। घृणा का ही परिणाम है कि हमारे लोग सामाजिक समानता के नाम पर मतान्तरण के कुचक्र का शिकार हुए हैं, परन्तु लोगों के अनुभव बताते हैं कि ईसाई या मुसलमान बनने के बाद भी दलितों की सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता और यह समस्या का समाधान भी नहीं है।
परिवर्तन की प्रक्रिया यदि तेज न होगी तो दलित भावनाओं को भड़काने का कार्य भी होता रहेगा। सामाजिक परिवर्तन के नाम पर आज अनेक दलित नेता घृणा-विद्वेष बढ़ाने में लगे हैं और इस आधार पर वे राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं। बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य कई दलित नेताओं का उत्थान इसी घृणा-विद्वेष की देन है। इन संगठनों और नेताओं में न कहीं दलित समाज के कल्याण की भावना है और न वे चाहते हैं कि सामाजिक समरसता आए। हां, अवसरवाद उनमें भरपूर है। कभी ऊंची जातियों को गाली देने लगते हैं तो कभी उन्हें गले लगाते हैं। इसे शुद्ध राजनीतिक अवसरवाद नहीं तो और क्या कहेंगे?
सामाजिक परिवर्तन का काम राजनीति या राजनेताओं से नहीं हो सकता। देश के विविध वर्गों, अगड़ी-पिछड़ी जातियों, अमीरों-गरीबों के बीच समरसता लाने का काम नि:स्वार्थ भाव से प्रेरित सामाजिक संगठन और गैर राजनीतिक लोग ही कर सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। भारत में पहले भी समाज परिवर्तन का काम समाज को बांटने वालों ने नहीं किया है, उन्होंने किया है जो संपूर्ण समाज को साथ लेकर आगे बढ़ने के लिए संकल्पित थे। हमारा संत समाज इस बात का प्रेरक उदाहरण है। संत रैदास, नारायण गुरु, महात्मा फुले को मानने वाले केवल दलित वर्गों के लोग नहीं हंै बल्कि ये संपूर्ण हिन्दू परम्परा के वाहक महापुरुष हैं और इन्हें सारा हिन्दू समाज स्वीकार भी करता है। डॉ. आंबेडकर ने भी अपने अभियान में सारे समाज को जोड़ने की कोशिश की। यदि यह कहा जाता है कि ऊंची जातियों ने दलित वर्गों को दबाया है तो यह भी सत्य है कि कठिनाई और संघर्ष के दिनों में कुछ ब्राह्मणों ने ही डॉ़ आंबेडकर को सहारा दिया।
मैं दलित नेताओं से एक बात और कहता हूं कि वे भारत की आत्मा को समझें, भारतीय समाज को परिचालित करने वाले मूल तत्व हिन्दुत्व को समझें। यह अद्भुत समन्वयकारी तत्व है। दुनिया के किसी धर्म व दर्शन में इतना सर्व समन्वयकारी और संपूर्ण विश्व को परिवार मानने का चिंतन दिखाई नहीं देता। यहां तक कि ईसा मसीह और मोहम्मद साहब ने भी सारी दुनिया को परिवार मानकर काम नहीं किया पर इस देश और हिन्दू धर्म से जुड़े अधिकांश महात्माओं-सन्तों ने हमेशा सारे संसार, सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की बात की। बहुत सारे कटु प्रसंग भी इस देश में हैं, पर इसके बावजूद मैं मानता हूं हिन्दू समाज ने अपने पिछड़े-दलित वर्गों को आजादी के समय संविधान के द्वारा जो अधिकार दिए, उसकी मिसाल विश्व इतिहास में नहीं है। इन्हीं अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संसार के अनेक देशों में दलित समाज को भारी रक्तपात का सामना करना पड़ा है। पर इस देश का अपना चित्त व चरित्र है। कुछ परिस्थितियां थीं जब इस देश में छूत-अछूत, जाति-भेद ने भयानक रूप लिया, अब नई परिस्थितियां हैं, हिन्दू समाज अब करवट बदल रहा है। समय आएगा जब देश से जाति भेद का नामोनिशां भी खत्म हो जाएगा।
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