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अंग्रेजों ने अपने सुदीर्घ शासनकाल में भारतीय समाज की स्वावलंबन की भावना जानबूझकर नष्ट की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी जी ने स्वावलंबन की भावना पुनर्जाग्रत करने का आग्रह किया। किंतु देश के राजनेताओं ने उनके आग्रह की अवमानना की। यह धारणा भी लोगों के मन में बैठ गई कि देश के विकास का दायित्व मात्र सरकार का है। देश के जनमानस में देश के विकास में सहभागी होने का विचार ही नहीं रहा। पंचवर्षीय योजनाएं बनाकर देश के विकास की जिम्मेदारी सरकार ने ले ली, फलस्वरूप समाज में बची-खुची स्वावलंबन की भावना भी समाप्त हो गई।
इस प्रकार जनता सरकार के भरोसे दिन काटने लगी। राष्टÑीय रोजगार गारंटी योजना जैसी गरीबी उन्मूलन की योजनाएं देशवासियों को स्वावलंबी बनाने की बजाए उन्हें सरकार पर अधिकाधिक निर्भर बना रही हैं। ऐसी योजनाएं वोट तो दिला सकती हैं, किंतु ये समाज में स्वावलंबन की भावना को समूल नष्ट कर देती हैं। वोट की राजनीति के कारण राजनीतिक पार्टियां विभिन्न वर्गों व जातियों को आपस में लड़ा रही हैं और नेतागण भी महत्व के पदों के लिए आपस में लड़ रहे हैं। देश के विकास, उसकी एकता एवं अखंडता की किसी को तनिक भी परवाह नहीं है। प्रारंभ से ही सभी सरकारें देश की गरीबी हटाने का वायदा करती रही हैं। दीनदयाल शोध संस्थान ने चित्रकूट के पास-पड़ोस के 500 गांवों में ग्राम विकास का काम शुरू किया। अल्पकाल में ही 500 गांवों का जीवन बदल रहा है। ये लोग स्वावलंबन एवं परस्पर पूरकता की भावना से काम कर रहे हैं।
(पाञ्चजन्य, अंक संदर्भ: 16 अगस्त, 2009 में प्रकाशित)
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