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श्री कुप्पहल्ली सीतारामैया सुदर्शन ने अभियांत्रिकी की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत सारा जीवन राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में राष्टÑार्पित किया था। श्री सुदर्शन से हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीति की संघर्ष यात्रा के संदर्भ में अनेक पहलुओं पर पाञ्चजन्य द्वारा उस वक्त की गई बातचीत के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं जब वे सहकार्यवाह थे। यह साक्षात्कार 25 जनवरी 1998 ‘हिन्दूनिष्ठा ही भारत में राजनीति का मूलाधार हो!!’अंक में प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीति की दिशा और ध्येय को स्पष्टत: समझाया है
हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीतिक दल किन्हें कह सकते हैं?
अभी तो हिन्दुत्व का विचार लेकर चलने वाले दो ही दल मुख्य हैं-एक भारतीय जनता पार्टी औद दूसरा शिवसेना। वैसे हिन्दू महासभा और बलराज मधोक की भारतीय जनसंघ भी हिन्दुत्व के विचार पर आधारित हैं। पर राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष प्रभाव रहा नहीं। इस कारण दो दल ही मुख्य कहे जा सकते हैं। उनमें भी शिवसेना का हिन्दुत्व भावनात्मक धरातल पर ही है, वैचारिक अधिष्ठान के क्षेत्र में उसने विशेष कुछ किया नहीं। हिन्दुत्व एक समग्र जीवन की विधारधारा है और उस विचारधारा के आधार पर हमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में पुनर्रचना करनी है, यह विचार शिवसेना ने नहीं किया है। हिन्दुओं का स्वाभिमान जगाने के लिए जो प्रयास इस देश में चले, उसके आधार पर उन्होंने हिन्दू भावनाओं को और पुष्ट किया। पर राजनीतिक क्षेत्र में काम करते हुए भी सामाजिक क्षेत्र के बारे में जो विचार करना होता है, उस ओर विशेष कार्य न करने के कारण कई बार उनकी ओर से विचित्र से वक्तव्य सुनने को मिलते हैं। जैसे, एक बार बालासाहब ठाकरे ने कहा-ये क्या स्वदेशी-स्वदेशी लगा रखा है। या अभी उन्होंने कह दिया, अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राष्टÑीय स्मारक बनना चाहिए। यह कहने के पीछे क्या तर्क है, यह समझ में नहीं आता।
क्या हम प्रारंभिक दिनों की भारतीय राष्टÑीय कांग्रेस को भी हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीति के क्षेत्र में सम्मिलित हुआ मान सकते हैं?
यद्यपि कांग्रेस हिन्दुओं पर आधारित पार्टी है, लेकिन स्वयं को हिन्दुत्व से बचाकर रखने की कोशिश करती रही है। सिवाय महात्मा गांधी के, जो स्पष्ट रूप से कहा करते थे कि मैं कट्टर सनातनी हिन्दू हूं और मैं मुसलमान और ईसाई के बारे में जो भी कह रहा हूं उसका कारण यही है कि हिन्दू सर्वधर्म समभाव में विश्वास करता है। बाकी के सारे कांग्रेसी नेता मुस्लिम तुष्टीकरण की मृगमरीचिका के पीछे ही दौड़ते रहे और अपने आपको हिन्दू कहने तक से कतराते रहे।
अंग्रेज अक्सर कहा करते थे कि हम तो हिन्दुस्थान पर सदा राज करने नहीं आए हैं। हमें तो एक दिन आपको ही राज सौंप कर जाना है। पर इसके पहले हम चाहते हैं कि हिंदू और मुसलमान एक हो जाएं। इसी से उत्साहित होकर गांधीजी जल्दी ही स्वतंत्रता के लिए सशक्त मोर्चा बनाना चाहते थे और खिलाफत आंदोलन का समर्थन भी उन्होंने इसी भावना से प्रेरित होकर किया था कि अब मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए हैं, अत: इस समय यदि हमने उनका साथ लिया तो अंग्रेजों के खिलाफ एक सशक्त मोर्चा बन सकेगा। उस समय अनेक लोगों ने गांधीजी द्वारा खिलाफत को समर्थन दिये जाने का विरोध किया। यहां तक कि मोहम्मद अली जिन्ना, जो उस समय कांग्रेस में ही थे, ने भी कहा कि इस कदम से हम कट्टरपंथी लोगों को ही और अधिक बल देंगे। पर गांधीजी नहीं माने। इसके बावजूद चार साल तक महात्मा गांधी के साथ चलने पर भी मौलाना मोहम्मद अली और मौलाना शौकत अली के अंत:करण में कोई परिवर्तन नहीं आया। उस समय महात्मा गांधी से कांग्रेसजनों ने यह भी कहा था कि चलिए ठीक है, आप यदि मुसलमानों का समर्थन कर रहे हैं तो इस मौके पर उनसे गोहत्या बंदी का आश्वासन भी ले लीजिए। परंतु महात्मा गांधी ने स्पष्ट रूप से इनकार करते हुए कहा कि मुसलमानों को समर्थन देना मैं किसी सौदेबाजी के अंतर्गत नहीं मान सकता। उन्हें मेरा एकतरफा समर्थन ही जारी रहेगा। यानी जिस प्रश्न को महात्मा गांधी स्वराज्य प्राप्ति से भी बड़ा मानते थे उस गोहत्या बंदी के प्रश्न को भी उन्होंने इस कारण पीछे रखा ताकि वे मुसलमानों का समर्थन ले सकें। ऐसे बिना शर्त समर्थन देने वाले महात्मा गांधी के प्रति मौलाना शौकत अली ने क्या भाव रखा? चार साल के बाद उन्होंने कहा कि मैं पापी से पापी मुसलमान को भी गांधीजी से बेहतर समझता हूं, क्योंकि वह अल्लाह, हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ में विश्वास करता है। लोगों को इस वक्तव्य पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए पत्रकारों ने अली बंधुओं से दुबारा पूछा कि आपका जो बयान अखबारों में छपा है क्या वह सच है? तो उन्होंने जवाब दिया कि वह सच है। हम आज भी उसी बात पर कायम हैं।
1920 में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन था। उसकी व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी डॉ. हेडगेवार और डॉ. हार्डीकर पर थी। सभी लोग उस अधिवेशन की तैयारी में जुटे थे। उस समय डॉ. हेडगेवार ने गांधीजी से पूछा कि आप केवल हिंदू-मुस्लिम एकता की बात क्यों करते हैं? हिन्दुस्थान में मुसलमानों के अलावा पारसी, यहूदी, ईसाई आदि भी रहते हैं। उन सबकी एकता की बात करिए। गांधीजी ने जवाब दिया कि मेरे इस प्रकार बात करते रहने से ही अंग्रेजों के विरुद्ध मुझे मुसलमानों का सहयोग प्राप्त हो रहा है। इस पर डॉ. हेडगेवार ने कहा कि मुझे डर है केवल हिन्दू मुसलमान एकता की बात बार-बार करने से आने वाले समय में दूरियां और ज्यादा बढ़ जाएंगी और कटुता का निर्माण होगा। पर गांधीजी ने कहा कि मुझे ऐसी कोई आशंका नहीं है।
अंतत: ऐसा ही हुआ। वही मौलाना मोहम्मद अली बाद में कांग्रेस छोड़कर मुस्लिम लीग में आ गए। मुसलमानों को मनाते-मानते अंतत: भारत के विभाजन और अलग पाकिस्तान की मांग को स्वीकार करने तक आना पड़ा। लेकिन पाकिस्तान बन जाने के पश्चात भी मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दुओं की उपेक्षा बंद नहीं हुई। नेतृत्व पं. नेहरू के हाथों में गया जो पहले ही मानकर चलते थे कि वे तो दुर्घटनावश हिंदू हैं। स्पष्ट रूप से कांग्रेस ने अपने को हिंदू और हिन्दुत्व से दूर ही नहीं रखा बल्कि उनके प्रति एक चिढ़ भी अभिव्यक्त करती रही। वह चिढ़ और दूरी आज भी बनी हुई है और इसलिए उसे किसी भी प्रकार से हिन्दुत्वनिष्ठ पार्टी नहीं कहा जा सकता।
50 के दशक में भारतीय जनसंघ तो अपने शैशव काल में था। दूसरी ओर हिंदू महासभा वीर सावरकर जैसे महानायकों के नेतृत्व में एक सुदृढ़, सरल और प्रभावी हिंदू राजनीतिक दल था। एक स्थिति यह भी आई थी कि हिंदू महासभा में भारतीय जनसंघ के विलय की संभावना बनने लगी थी। पर फिर भी वे मूल कारण क्या रहे कि एक कट्टर और प्रभावी हिंदू राजनीतिक दल के रूप में हिंदू महासभा का अवसान हो गया और भारतीय जनसंघ निरंतर आगे बढ़ता गया?
हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीतिक दल का विचार लेकर सबसे पहले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही आए थे। वे पहले हिंदू महासभा में ही थे। जब संविधान सभा बनी तो उसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, इस विचार से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में भी लिए गए। उस समय पूर्वी बंगाल से आने वाले हिंदू शरणार्थियों के पुनर्वास के प्रति केन्द्र सरकार की लापरवाही और उपेक्षा से दुखी होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया था। तब उनके मन में एक राजनीतिक दल के निर्माण का विचार आया और वे एक राजनीतिक दल की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें रा.स्व.संघ सहायता करे। तब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। उस समय तक हिंदू महासभा की कुछ शक्ति विद्यमान थी। फिर स्वातंत्र्य वीर सावरकर पर महात्मा गांधी की हत्या का आरोप लगा, यद्यपि वे निर्दोष छूट गए परंतु इस सारी प्रक्रिया में काफी क्षति हुई। उनका स्वास्थ्य भी पहले जैसा नहीं रह गया था। फलत: हिंदू महासभा को जिस प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता थी, वह उसे प्राप्त नहीं हो सका।
वीर सावरकर के लिए तो संभव ही नहीं रह गया था। उस समय यह विचार तेजी से उभरा कि हिन्दुत्व को आधार मानकर चलने वाले दो राजनीतिक दल क्यों सक्रिय हों? उन्हें एक हो जाना चाहिए। तब श्री विष्णु घनश्याम देशपांडे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे। उन्होंने परम पूज्य गुरुजी से संपर्क किया और कहा कि वे इस मामले में मध्यस्थता करें। तब गुरुजी ने यह सुझाव दिया कि हिंदू महासभा अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्वयं को राजनीतिक क्षेत्र से पृथक कर केवल सामाजिक क्षेत्र में ही सक्रिय रहे और हिन्दुओं के व्यापक हितों की दिशा में कार्य करे। श्री देशपांडे जी भी इस बात पर सहमत हो गए। लेकिन पता नहीं क्यों, सावरकर जी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। आज भी यह एक पहेली ही बनी हुई है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। इसलिए श्रीगुरुजी की मध्यस्थता का प्रश्न भी स्वयं समाप्त हो गया। आगे चलकर इसी कारण से विश्व हिन्दू परिषद का निर्माण हुआ कि हिंदू समाज के सामने जो अनेक प्रश्न सामने खड़े हैं उनके संबंध में वातावरण तैयार करने के लिए एक पृथक गैर राजनीतिक संगठन आवश्यक है। अगर श्रीगुरुजी की इच्छा के अनुसार उस समय हिंदू महासभा ने सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने का निर्णय ले लिया होता तो विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना की आवश्यकता ही न होती।
सावरकर के पश्चात तो हिंदू महासभा राजनीतिक क्षेत्र में भी कोई प्रभावी भूमिका निभाने में समर्थ नहीं रही थी। उधर जनसंघ हिन्दुत्वनिष्ठ पार्टी के रूप में सामने आ गया था। फिर दीनदयाल जी की संगठन कुशलता और श्यामा प्रसाद जी का अत्यंत प्रभावी नेतृत्व उसे मिल रहा था। हालांकि श्यामा प्रसाद जी जल्दी ही बिछुड़ गए, पर दीनदयाल जी, अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी जी आदि ने मिलकर जनसंघ को प्राणपण से आगे बढ़ाया। उसका संगठन पूरे देश में खड़ा किया। सबसे बड़ी बात यह हुई कि उस समय जिन-जिन प्रश्नों पर सारा देश उद्वेलित था, उस समय जनसंघ ने राष्टÑीय रुख अपनाया, चाहे वह कश्मीर का प्रश्न हो या कच्छ का या गोरक्षा का। इस प्रकार धीरे-धीरे जनसंघ निरंतर आगे बढ़ता चला गया।
1966 में जब पं. दीनदयाल जी ने एकात्म मानववाद का जीवन दर्शन प्रस्तुत किया और एक विचारधारा के रूप में उसे मान्यता मिली तो जनसंघ भावनात्मक धरातल से ऊपर उठकर वैचारिक अधिष्ठान पर आ खड़ा हुआ। दीनदयाल जी ने बताया कि हिंदुत्व के आधार पर हम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रचनाएं कर सकते हैं। उस वैचारिक अधिष्ठान के प्रति प्रतिबद्धता ने जनसंघ को वह शक्ति और ऊर्जा दी जिससे उसमें आत्मविश्वास आया और धीरे-धीरे वह आगे बढ़ता गया। बाद में उसने कई दलों से समझौता भी किया। चुनावी तालमेल हुआ। इधर चारों ओर अनेक अन्य हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों द्वारा भी इस विचारधारा का प्रचार-प्रसार अलग-अलग क्षेत्रों और शैलियों से किया जा रहा था। दूसरी ओर हिंदू महासभा वैचारिक दृष्टि से पूरे देश में विस्तार नहीं पा सकी। इसके एक-दो सांसद चुने गए। जैसे महंत अवैद्यनाथ और सेठ बिशनचंद्र आदि। बाद में तो यह स्थिति भी नहीं रही। जो संगठन विचार को लेकर आगे चला, वह बढ़ गया और जिस संगठन में विचार की कमी रही, वह बढ़ नहीं सका।
जनसंघ और हिंदू महासभा का विलय न होने का एक कारण क्या यह भी नहीं था कि हिंदू महासभा केवल हिंदुओं तक ही सीमित रहना चाहती थी, जबकि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कहना था कि भारत में काम करने वाला कोई राजनीतिक दल स्वयं को किसी एक वर्ग तक ही सीमित करके नहीं चल सकता और न ही यह उचित है?
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की उनसे क्या बातचीत हुई, इसकी मुझे जानकारी नहीं। पर इतना अवश्य है कि जब भारतीय जनसंघ का नाम रखा जाने लगा तो एक विचार यह भी सामने आया था कि इसका नाम हिंदू जनसंघ रखा जाए। उस समय परमपूज्य श्रीगुरुजी ने कहा था कि आपको एक राजनीतिक दल के रूप में काम करना है, अत: भारत में जितने भी नागरिक हैं, उन सबको साथ में लेकर चलना चाहिए। इसलिए भारतीय नाम से ही संगठन चलना चाहिए। इस संगठन द्वारा एक जन, एक राष्टÑ, एक संस्कृति में विश्वास व्यक्त किया गया है।
इसके अंतर्गत सब बातें आ ही जाती हैं। लेकिन इसके साथ ही श्रीगुरुजी ने यह भी स्पष्ट किया कि गैर हिंदू अपनी पार्टी में आने चाहिए, यह सोचकर ही नाम बदलना या तुष्टीकरण करना गलत होगा। हम सबको साथ लेकर चलने के पक्षधर हैं और जो भी हमारे सिद्धांत मानेगा, वह हमारे साथ आ सकता है। इतना ही मानकर काम करते रहना चाहिए।
इस संबंध में एक रोचक घटना है। उन्हीं दिनों श्यामा प्रसाद मुखर्जी का यह बयान छपा था कि भारतीय जनसंघ सेकुलर है, क्योंकि जनसंघ में मुसलमान भी आते हैं। और हिंदू महासभा सेकुलर नहीं है, क्योंकि उसमें केवल हिंदू हैं। इस पर परमपूज्य श्रीगुरुजी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बुलाकर कहा कि श्यामा बाबू, आपका इस प्रकार का विचार रहा तो आपकी हमारी कुट्टी हो जाएगी। तब श्यामा बाबू ने कहा कि गुरुजी मैं समझ गया। मुझे वैसा नहीं कहना चाहिए था। गुरुजी ने उनसे कहा कि भारत में कोई भी हिंदू संगठन सांप्रदायिक कैसे हो सकता है? तरुण विजय
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