पाञ्चजन्य का महानाद

Published by
Archive Manager

दिंनाक: 23 Jan 2018 11:11:10


पाञ्चजन्य केवल शंख ही नहीं, वह संपूर्ण मानवी आर्य जनता के कल्याण करने के आयोजन की प्रबल घोषणा है। वेद में पाञ्चजन्य का वर्णन करने वाले आठ ही मंत्र हैं। इन आठ मंत्रों का दर्शन 110 ऋषियों ने किया था।

पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

पाञ्चजन्य साप्ताहिक के संपादकों ने अपने वृत्त-पत्र का नाम ‘पाञ्चजन्य’ क्यों रखा? इसका ज्ञान तो मुझे नहीं है, पर इस नाम में कुछ बातें विशेष महत्व की हैं, जिनकी ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित होना आवश्यक है। इसलिए मैंने लेख में उन तथ्यों को समाहित किया है।
कुरुक्षेत्र में ‘पाञ्चजन्य’
कौरव-पांडवों के युद्ध में कुरुक्षेत्र की भूमि पर भगवान् श्रीकृष्ण ने, ‘पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:…(1/15)’ अपने पाञ्चजन्य शंख का महानाद किया था। इसके बाद वहां युद्ध हुआ और धर्म की विजय और अधर्म की पराजय होकर, विश्वशांति का प्रारंभ हुआ। पाञ्चजन्य के महानाद का यह महान जागतिक ध्येय है। संभव है कि भगवान् श्रीकृष्ण का यह एक विशेष प्रकार का शंख ही होगा, जैसे-अर्जुन वीरों के अपने-अपने शंख थे। पुराणों और इतिहास ग्रंथों में हमें पाञ्चजन्य का वर्णन इससे अधिक नहीं मिलता, परंतु संहिताओं में इस पाञ्चजन्य का आशय कुछ और ही दिखता है तथा इसके साथ जो राजनीति के संकेत दिखते हैं, उसमेें इस नाम के प्रति सम्माननीय भावना जुड़ी हुई है। इसलिए वैदिक पाञ्चजन्य का विचार अब हम करते हैं।
वेद में पाञ्चजन्य
वेद में पाञ्चजन्य का वर्णन करने वाले कुल आठ ही मंत्र हैं। इन आठ मंत्रों का दर्शन 110 ऋषियों ने किया था। यानी इन मंत्रों के अंदर आए विचारों का संबंध ऋषियों के साथ है। इसमें 100 तो वैखानस ऋषि ही हैं। इनका एक ऋषि-मंडल ही था, जिसमें 100 ऋषि रहते थे और एक विचार से वे अपना कार्य करते थे। इनमें धर्म शास्त्रकार, स्मृति की रचना करने वाले वेद मंत्रों के द्रष्टा ऐसे बड़े-बड़े तत्व विचारक थे। मानव धर्म-निर्णय में इनका स्थान बड़ा ही ऊंचा है। मनुस्मृति में इनका उल्लेख आदर के साथ होता है। अन्य ऋषि-वशिष्ठ, विश्वामित्र, अम्बरीष और सहदेव आदि हैं। यानी इतने ऋषियों के अनुभूत विचार इन मंत्रों में हैं। अब हम एक-एक मंत्र लेकर संक्षेप में उसमें आए विचार पाठकों के सम्मुख रखते हैं। यह मंत्र विश्वामित्र जी का है-
ससर्परी: अभरत् तूयं एभ्य:, ड्धि श्रव: पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु।
सा पाक्ष्या, नव्यं आयु: दधाना, यां मे पलस्तिंत-जमदग्नयो दवु। -ऋग्वेद 3/53/76
(पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु) पञ्चजनों में जो कृषि करने वाली जनता है, उनमें जो (श्रव:) धन, यश आदि है, वह (एभ्य:) इनके लिए नि:संदेह (ससर्परी: अभरत) आक्रमक घोषणा से प्राप्त हुआ है। (सा पक्ष्या) वह एक पक्ष की घोषणा है और वह (नव्यं आयु: दधाना) नवीन जीवन देने वाली घोषणा है। यह मुझे पलास्ति, जमदग्नि आदि ऋषि जनों ने कहा था।’
इस मंत्र में राजकीय विचार प्रदर्शक निर्देश बड़े अच्छे हैं। ससर्परी पद वाग्वाचक है, क्योंकि इस मंत्र का देवता ही वाक् है। सृप-धातु का अर्थ हलचल करना, हिलना, आक्रामक घोषणा है। एक पक्ष विशिष्ट तवि प्रणाली का ग्रहण करता है, वैसी ही अपनी संघटना निर्माण करता है और अपनी घोषणा करता है। यह घोषणा ही उस पक्ष के अनुयायियों में नवजीवन उत्पन्न करती है। पलास्ति और जगदग्नि ऋषियों ने इस प्रकार की हलचल करने का अनुभव किया था। इस तरह जिस जनसंघ में नवीन जीवन उत्पन्न होता है, उसी में विशेष ऐश्वर्य सुस्थिर रह सकता है। इस मंत्र का यह राजकीय भाव आज भी माननीय है। यहां पाञ्चजन्य पदकृष्टि का विशेषण है। कृष्टि का अर्थ कृषि करने वाली प्रजा और पाञ्चजन्या का अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद रूप पांच विभागों में रहने वाली प्रजा। इसी का नाम ज्ञानी शूर, व्यापारी, कारीगर, वन्य रूपी प्रजा है। इनमें जो भी धन होगा, वह उनमें तब आएगा, जब वे अपनी संघटना करके अपना एक सुदृढ़ पक्ष बनाएंगे और अपनी घोषणा निश्चित करके उससे अपने में नया राष्टÑीय जीवन प्रज्ज्वलित करेंगे।
पाञ्जन्य का घोष
पञ्चजनों का एक मत से किया गया घोष विलक्षण शांति निर्माण करता है। इस विषय में कण्व गोत्री प्रगाथ ऋषि कहते हैं-
यत् पाञ्चजन्यया विशा इन्द्रे घोषा असृक्षत।
अस्तृणाद् बर्हणा वियोड्यो मानस्य सक्षय:।।
-ऋग्वेद 8/63/7
जब पांचों जनों की जनता ने अपनी घोषणाएं अपने नरेन्द्र तक पहुंचायीं, तब (बर्हणा विप: अस्तृणात) अपनी शक्ति से सब शत्रुओं का नाश जिसने किया वह (अर्य:) श्रेष्ठ बना और (स: मानस्य क्षय:) वही सम्मान का आश्रयस्थान बना।
पूर्व स्थान में राजा और वीर पांचों जनों का हित करते हैं, ऐसा कहा, अब सौ वैखानस ऋषि पञ्चजनों के हितकर्ता ऋषि का अग्नि के मिष से वर्णन करते हैं-
अग्नि: ऋषि: पाञ्चजन्य: पुराहित:। ते ईमहे महागयम्।।
-ऋग्वेद 9/16/20
जो अग्नि के समान तेजस्वी, ऋषि अग्रभाग में रह कर पांचों जनों का हित करता है, उस बड़े धन या बड़े घर वाले की हम प्रशंसा करते हैं। अर्थात जो तेजस्वी है, क्रांतिदर्शी ज्ञानी है, आगे बढ़कर सब जनता का हित करने का कार्य करता है और जिसके पास बहुत धन अथवा स्थान है, वही प्रशंसा के योग्य है। ऋषि के पास यज्ञ करने के लिए बड़े स्थान या यज्ञगृह होते हैं। यज्ञ के लिए धन भी पर्याप्त लगता है। ऐसे अत्रि नामक ऋषि का वर्णन दीर्घतमा के पुत्र कक्षीवान ऋषि के सूक्त में आया है। वह मंत्र अब देखें-
ऋषि नरौ अहंस: पाञ्चजन्यं, ऋबीसाद् अन्निं मुन्चय: गणेन।
मिनन्ता दस्यो: अशिवस्य माया:, अनुपूर्वं वृषणा चोदयन्ता।।
-ऋग्वेद 1/117/3  
हे बलवान नेताओं! आपने पञ्चजनों के हितकर्ता अत्रि नामक ऋषि को उनके अनुयायी गणों के साथ अति दु:खदायी कारागृह से मुक्त किया तथा अशुभ शत्रु के कुटिल षड्यंत्रों को तुमने तोड़ दिया और उक्त ऋषगणों को अनुकूल मार्ग से प्रेरित भी किया।इस तरह वेद मंत्रों में पाञ्चजन्य का प्रयोग है। यह पाञ्चजन्य नामक वृत्त-पत्र भी भारत के पांच जनों को उद्धृत करने वाला हो। यही इसका कर्त्तव्य अथवा उद्देश्य या ध्येय हो सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य यदि केवल शंख ही माना जाए तो नि:संदेह उससे श्रेष्ठ ध्येय की दृष्टि से वैदिक पाञ्चजन्य का महानाद श्रेष्ठ और यदि भगवान श्री कृष्ण ने अपनी बांसुरी की मधुर ध्वनि के गुंजार से पांचों जातियों को अपनी ओर आकृष्ट किया था और इस कारण भगवान श्री कृष्ण के पाञ्चजन्य की घोषणा थी, ऐसा माना जाए तो इस अर्थ में वैदिक पाञ्चजन्य की झलक इसमें दिखेगी। इस सबका तात्पर्य यह है कि पाञ्चजन्य केवल शंख ही नहीं, वह संपूर्ण मानवी आर्य जनता के कल्याण करने के आयोजन की प्रबल घोषणा है।
 जिस घोषणा के पीछे राष्टÑ के सभी जाति के लोग संगठित होकर रहते हैं, वह पाञ्चजन्य का महानाद इतना प्रबल होता है कि बड़े-बड़े सम्राटों को भी वह सुनना ही पड़ता है और उसके नीचे सबको झुकना ही पड़ता है। हमारा यह पाञ्चजन्य नामक वृत्त-पत्र पाञ्चजनों की आंतरिक भावनाओं को प्रकट करने वाला बने और उस कार्य में यशस्वी बने। पाञ्चजन्य का यश बढ़े
    (वर्ष-1 अंक 5, ज्येष्ठ शुक्ल 13, शनिवार, 2005)

Share
Leave a Comment
Published by
Archive Manager