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देश स्वतंत्र हुआ। हर ओर उत्साह था। मीडिया में भी। 1947 के बाद का वह दौर हिंदी पत्रकारिता का सुनहरा कालखंड कहा जा सकता है। धर्मयुग, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार लोकप्रियता के झंडे गाड़ने वाले साप्ताहिकों की हिंदी पट्टी में बहार थी। लंबे-चौड़े प्रसार तंत्र और विज्ञापन जुटाने के भारी-भरकम इंतजाम से लैस ये सभी साप्ताहिक दिल्ली से प्रकाशित होते थे और इनकी कमान साधन-संपन्न मीडिया घरानों के हाथों में थी।
किन्तु साप्ताहिकों की यात्रा का वह एक हिस्सा था, एक पन्ना। दूसरा पन्ना अभावों की स्याही से रंगा होने पर भी राष्टÑीय आग्रहों और वैचारिकता में डूबा था…देश स्वतंत्र हुआ, मगर विभाजित भी हुआ है। इस टीस को जीते हुए उत्साह की आंधियों में विचार की लौ जलाता एक नन्हा सा साप्ताहिक लखनऊ में 1948 की मकर संक्रांति को जन्मा- नाम रखा गया पाञ्चजन्य।
भाऊराव देवरस जी की प्रेरणा, दीनदयाल उपाध्याय जी की पहल और युवा संपादक अटल बिहारी वाजपेयी का पहले संपादक के तौर पर कमान संभालना, इतने नक्षत्रों का एक साथ जुड़ना पत्रकारिता में राष्टÑीयभाव के इस अनूठे अवतरण की मुनादी कर रहा था। पाञ्चजन्य के लिए मातृसंस्था बना लखनऊ का राष्टÑधर्म प्रकाशन। जन्म को एक माह भी नहीं हुआ था कि गांधी हत्या से प्रभावित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, 1948 में पाञ्चजन्य का गला दबाने की कोशिश की। सम्पादक, प्रकाशक और मुद्रक सभी को जेल भेज दिया गया। कार्यालय पर ताला ठोक दिया गया। साढ़े चार माह बाद न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही पाञ्चजन्य का फिर से प्रकाशन संभव हो सका। किन्तु छह महीने निकलने के बाद दिसम्बर, 1948 में पाञ्चजन्य की अभिव्यक्ति पर फिर हमला हुआ। इस बार सात माह के लिए कार्यालय बंद रहा। जुलाई, 1949 में यह ताला हटते ही पाञ्चजन्य का शंखनाद पहले ही की तरह गूंज उठा।
अभावों के बाद भी ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता की यह ऐसी गूंज थी जो एक गहन उसांस के साथ मद्धम स्वर में उठी किन्तु धीरे से पूरे राष्टÑीय वातावरण में छा गई। जन्म लखनऊ में हुआ था किन्तु पाञ्चजन्य जरा बढ़ा तो राष्ट्रीय मंच की ओर बढ़ चला। बीस बरस की उम्र थी इसकी जब राष्टÑीय फलक पर पहचान और जमाने के लिए 1968 में उसका प्रकाशन दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। यह भी संयोग ही है कि लखनऊ और दिल्ली के बीच जैसा घर सा संबध पाञ्चजन्य के प्रथम संपादक और पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी का रहा कुछ वैसी ही कहानी इस साप्ताहिक की भी रही। 1972 में राष्ट्रधर्म प्रकाशन ने इसका प्रकाशन एवं मुद्रण पुन: लखनऊ से करने का निश्चय किया। आपातकाल की गाज जिन समाचारपत्रों और प्रकाशनों पर टूटी, पाञ्चजन्य उनमें अग्रणी था। जून, 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा से लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश की और मार्च, 1977 में आपातकाल की समाप्ति पर ही पाञ्चजन्य फिर यात्रा शुरू कर सका। 1977 में इसका प्रकाशन फिर दिल्ली से शुरू करने के लिए राष्ट्रधर्म ने इसके प्रकाशन का पूरा दायित्व समविचारी प्रकाशन संस्था भारत प्रकाशन दिल्ली लिमिटेड को हस्तांतरित कर दिया।
कहते हैं परिवर्तन अपरिवर्तनीय नियम है। बदलाव के बावजूद अपने बीजभाव को बचाए रखना ही बड़ी बात है। पाञ्चजन्य की पत्रकारीय यात्रा में यह बड़ी बात बहुत अच्छे से रेखांकित दिखती है। पाञ्चजन्य ने आकार और साज-सज्जा में बदलाव को लेकर समय-समय पर तरह-तरह के प्रयोग किए। सम्पादकों की परंपरा में आगे भी कई यशस्वी नाम जुड़े (देखें, पृष्ठ 18-20) स्थान और स्वामित्व परिवर्तन जैसे बड़े बदलाव भी होते रहे, किन्तु राष्ट्रीय विचारों के प्रसार के लिए ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता की अपनी धुरी से यह जरा भी नहीं डिगा। संक्षेप में कहें तो-‘राष्टÑीय विचार को बनाए रखते हुए जनप्रियता,’ पाञ्चजन्य की कसौटी सदा यही रही।
पाञ्चजन्य का निर्भीक स्वर लोगों को आकर्षित करता रहा तो इससे सरकार की भवें भी तनती रहीं। 1959 में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा और दलाई लामा के निष्कासन के समय पाञ्चजन्य ने नेहरू की अदूरदर्शिता और चीन-नीति की तथ्यात्मक आलोचना की। 1962 में भारत पर चीन के हमले के लिए पाञ्चजन्य ने नेहरू की असफल विदेश एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिलमिलाकर नेहरू सरकार ने पाञ्चजन्य को धमकी भरा नोटिस भी दिया।
1972 में भारतीय सेनाओं की विजय को शिमला समझौते की मेज पर गंवा देने के विरुद्घ पाञ्चजन्य के आक्रोश से तिलमिलाई इंदिरा सरकार ने इसके सम्पादकों एवं प्रकाशकों को लम्बे समय कानूनी कार्यवाही में फंसाए रखा। पाञ्चजन्य ने जहां सामान्यतया सीमित कलेवर में स्तंभों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक दृष्टि से पाठकों को देश-विदेश के घटनाचक्रों से अवगत कराने की कोशिश की, वहीं विचार प्रधान लेखों के द्वारा बुनियादी राष्ट्रीय मुद्दों पर भी उन्हें सोचने की सामग्री प्रदान की। असम और पूर्वोत्तर भारत आज जिस संकट से गुजर रहा है, कश्मीर समस्या क्यों आज तक नहीं सुलझ सकी है, इसके बारे में पाञ्चजन्य सदा चेतावनी देता रहा है। पाञ्चजन्य के पुराने अंकों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होगा कि यदि समय रहते इन चेतावनियों को सुना गया होता तो अलगाववाद, सामाजिक विघटन एवं कई राजनैतिक संकट हमें न घेरते। स्वाधीन भारत की यात्रा के प्रत्येक महत्वपूर्ण मोड़ पर पाञ्चजन्य राष्ट्रीयता के प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। प्रतिवर्ष स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस, दीपावली एवं वर्ष प्रतिपदा पर पाञ्चजन्य विशेषांक प्रकाशित करता है। इसके अतिरक्त भी समय-समय पर विशेषांकों (देखें, पृष्ठ 92-109) का प्रकाशन होता रहा है। पाञ्चजन्य के विविध विशेषांक खासकर बाबासाहेब आंबेडकर की 125 वीं जयंती और राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ-स्थापना के 90 वर्ष पूर्ण होने पर प्रकाशित किए गए संग्रहणीय अंक तथ्यात्मक पत्रकारिता और प्रसार के क्षेत्र में मील के पत्थर साबित हुए हैं।
बहरहाल, इन सात दशकों में मीडिया ने कई बहारें देखीं और पतझड़ भी। नामी साप्ताहिकों ने बुलंदी छुई और एक-एक कर बंद भी होते गए, किन्तु पाञ्चजन्य चलता रहा..बढ़ता रहा और नए कीर्तिमान गढ़ता रहा। 30 मार्च, 2014 (वर्ष प्रतिपदा) से अब पाञ्चजन्य पत्रिका के रूप में प्रकाशित हो रहा है। पत्रिकाकार में पहले अंक का लोकार्पण प.पू. सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने किया। ताजा बात यह है कि लंबे अंतराल के बाद पाञ्चजन्य ने लखनऊ (और बेंगलुरू) में अपना ब्यूरो कार्यालय वर्ष 2017 से फिर से खोल दिया है। यानी पाञ्चजन्य नई गति से बढ़ रहा है।
चरैवेति-चरैवेति..काम में लगे रहना, सदा गतिमान रहना, वैचारिक खंगाल में डूबे रहना..यह बात तो वैसे भी पाञ्चजन्य का स्वभाव है! कैसे? क्योंकि समय बदलने पर भी गुणसूत्र नहीं बदला करते। पाञ्चजन्य ने यह गुण उन पं. दीनदयाल उपाध्याय से पाया जिन्होंने कभी संपादक, प्रबंधक, मुद्रक या प्रकाशक के तौर पर तो अपना नाम नहीं दिया परंतु पाञ्चजन्य के विभिन्न विभागों के कार्य संपादन में वे सहयोगी शक्ति और प्रेरणा बनकर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से साथ खड़े रहे। पाञ्चजन्य के आरंभकाल में सम्पादक से लेकर प्रूफ रीडर, कम्पोजिटर, मुद्रक और कभी-कभी बंडल बांधने, उन्हें ले जाने की जिम्मेदारी भी दीनदयाल जी ने उठाई। वे मौलिक चिन्तक और कलम के धनी थे पर इससे बढ़कर वे कुशल योजक और संगठक थे। 1968 तक उन्होंने पाञ्चजन्य में समसामयिक विषयों पर खूब लिखा, किन्तु वे स्वयं सम्पादक नहीं बने। कह सकते हैं कि राष्टÑीय चिंतन को एकात्म मानव दर्शन जैसा अधिष्ठान देने वाले दीनदयाल जी ने संपादक गढ़े।
रोज लिखना-मिटाना, राष्टÑीय विचारों को रचनात्मक रूप में सामने लाना, काम थकाने वाला है, कुछ को नाराज करने वाला भी है मगर पाञ्चजन्य पाञ्चजन्य है। इसके प्रथम संपादक के शब्दों में कहें तो-
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा।
काल के कपाल पर,
लिखता-मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं।।
सात दशक की यात्रा में साथ रहे सभी पाठकों, शोधकों, समीक्षकों, शुभचिंतकों, वितरकों एवं सहयोगियों को शुभकामनाएं, क्योंकि बधाई का यह बड़ा मौका साझा है।
हितेश शंकर
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