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पहचान की परख

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Jan 15, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Jan 2018 11:11:10


असम में कांग्रेस सरकारों ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को न केवल बसाया, बल्कि उन्हें अपना वोट बैंक भी बनाया। अब जबकि उच्चतम न्यायालय की देखरेख में राष्ट्रीय नागरिक पंजी की पहली मसौदा सूची जारी हुई तो जहां कांग्रेस इसका श्रेय लेने की जुगत में है, वहीं ममता बनर्जी को यह  पूरी प्रक्रिया बंगलाभाषियों के विरुद्ध साजिश दिखती है

अरविंद शरण

असम तथ्यान्वेषण के दौर से गुजर रहा है। खोज इस तथ्य की हो रही है कि कौन भारतीय है और कौन विदेशी। दशकों से बांग्लादेशी घुसपैठियों के वहां आकर बसने और नतीजतन तेजी से बदलती जनसांख्यिकी प्रकृति के कारण सामाजिक दबाव एवं हिंसा का सामना कर चुके इस सीमावर्ती राज्य के लिए सच को जानना जरूरी है। वैसे तो यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, लेकिन हर बीतते दिन के साथ सामाजिक संकट को विकट बनाती यह घुसपैठ कुछ राजनीतिक दलों को रास आ रही थी। इस कारण मामला अटकता रहा। राहत की बात यह है कि पहचान-परख का यह काम सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में चल रहा है। उम्मीद है कि इससे वे छेद बंद हो सकेंगे जो संकीर्ण हितों को पैर फैलाने का रास्ता देते रहे।

सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानी एनआरसी को अद्यतन करने का काम शुरू हुआ है। 1951 के बाद पहली बार हो रही इस प्रक्रिया के अंतर्गत 31 दिसंबर की रात को असम में पहली सूची जारी हुई जिसमें 1.9 करोड़ लोगों के नाम हैं और बाकी की जांच हो रही है। पंजी में नाम शामिल करने के लिए 3.24 करोड़ लोगों ने आवेदन दिया था। दशकों की धूल झाड़ने का काम जिस तरह आनन-फानन में हुआ, उसमें कुछ कमियों का रह जाना स्वाभाविक था। कई ऐसे उदाहरण भी सामने आए जिसमें एक परिवार के ज्यादातर लोगों के नाम तो आ गए, पर एक-दो के छूट गए। इसमें सभी वर्गों और राजनीतिक दलों के लोग शामिल हैं। नलबाड़ी विधानसभा क्षेत्र से सत्ताधारी भाजपा के विधायक अशोक सरमा व उनके पुत्र हिमेन सरमा का नाम इसमें नहीं हैं, जबकि उनकी मां, पत्नी और बेटी के नाम हैं। बरखेत्री से भाजपा विधायक नारायण डेका व उनकी पत्नी का नाम भी सूची में नहीं है, जबकि उनकी मां का नाम है। इसी तरह, धुबरी से सांसद और एआईएडीएफ प्रमुख बदरुद्दीन अजमल व बरपेटा से उनके सांसद पुत्र सिराजुद्दीन अजमल, रुपहीहाट से कांग्रेसी विधायक नुरुल हुदा जैसे तमाम लोग हैं जिनका नाम मसौदा सूची में नहीं है।
भारतीय हैं तो चिंता क्यों?
इस मामले में रजिस्ट्रार जनरल आॅफ इंडिया से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री तक ने आश्वस्त किया है कि किसी भी भारतीय को आशंकित होने की जरूरत नहीं है, एक-एक व्यक्ति का नाम शामिल किया जाएगा। पर असम में भारतीयों की पहचान के मामले में सहूलियत के मुताबिक एक कदम आगे-दो कदम पीछे की रणनीति पर चलने वाली कांग्रेस श्रेय लेने की कतार में आगे खड़ी हो गई है। वहीं, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो एनआरसी को अद्यतन करने की पूरी प्रक्रिया को ही बंगलाभाषियों के प्रति साजिश बताती हैं। हालांकि असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत एनआरसी को राज्य की समस्या के स्थायी समाधान के कदम के तौर पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘‘एनआरसी को अद्यतन करने का पूरा काम सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में चल रहा है। यहां की समस्या को खत्म करने का यही एक रास्ता था। भारत के लोगों और 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि से पहले भारत आए बांग्लादेशियों को घबराने की जरूरत नहीं है। काम पारदर्शी ढंग से हो रहा है। अंतिम सूची आते-आते सभी भारतीय इसमें शामिल कर लिए जाएंगे।’’
भारतीय बनाम विदेशी
एनआरसी तैयार करने का मकसद भारतीयों की पहचान करना है और इस पूरी प्रक्रिया को स्थानीय लोगों के अलावा 24 मार्च, 1971 तक असम आ चुके लोग बड़ी राहत के तौर पर देखते हैं। हालांकि अंतिम सूची में शामिल होने के लिए जरूरी कागजात इकट्ठा करने की जद्दोजहद तो है, पर इस बात की राहत भी है कि कागजी खानापूर्ति के बाद कोई उनकी ओर संदेह की नजर से नहीं देखेगा। राजनीतिक विश्लेषक रविशंकर रवि कहते हैं, ‘‘निश्चित तौर पर ऐसे लोगों, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, में राहत का भाव तो है।’’ वहीं, आशंका जताई जा रही है कि कुछ तत्व एनआरसी तैयार करने की प्रक्रिया को हिंदू बनाम मुस्लिम रंग देकर तनाव पैदा करने की कोशिश कर सकते हैं, क्योंकि 2010 में बरपेटा में शुरू किए गए एनआरसी के पायलट प्रोजेक्ट के दौरान आॅल मुस्लिम स्टूडेंट्स यूनियन के विरोध के बाद कई भागों में हिंसा भड़क गई थी। इस पर प्रफुल्ल महंत कहते हैं, ‘‘चूंकि सब उच्चतम न्यायालय की निगरानी में हो रहा है। उम्मीद है कि एहतियात के सभी कदम उठाए जाएंगे।’’
जवाबदेही से नहीं बच सकती कांग्रेस
रविशंकर रवि  कहते हैं, ‘‘कौन भारतीय है? इस मामले में दशकों तक अस्पष्टता के कारण समाज के एक तबके में आशंका की स्थिति पैदा हुई और कुछ दल इसका लाभ उठाते रहे। एनआरसी पर ममता बनर्जी का बयान बंगलाभाषियों के बीच पकड़ मजबूत करने का ही एक प्रयास है। बेशक, कांग्रेस के समय 1985 का असम समझौता हुआ, पर राज्य की कांग्रेस सरकारों ने बांग्लादेश से आए लोगों का इस्तेमाल सत्ता पाने के औजार के तौर पर किया।’’
दरअसल, आजादी के बाद असम में जिस रफ्तार से बांग्लादेशी घुसपैठिए आकर बसने लगे, उसे देखते हुए तत्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने आने वाले नाजुक समय को भांप कर एनआरसी तैयार कराने की व्यवस्था की थी। इसी कारण 1951 में पहला एनआरसी आया, जिसे हर दस साल पर अद्यतन करने का प्रावधान था। पर कांग्रेस सरकारों ने जान-बूझकर इसे अद्यतन नहीं कराया व बांग्लादेशी घुसपैठियों को ‘वैध नागरिक’ बनाने का खेल चलता रहा। धीरे-धीरे असम के कई जिलों में मुसलमानों की संख्या इतनी हो गई कि वे सत्ता के समीकरण तय करने लगे। इस संदर्भ में आपातकाल के बाद हुए चुनाव को खास तौर पर देखा जा सकता है। इस चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई और उसके परंपरागत मतदाता मुसलमान व चाय बागान में काम करने वाले उससे छिटक गए। असम मामलों के जानकार अरविंद कुमार राय कहते हैं, ‘‘तब कांग्रेस ने उन क्षेत्रों में बांग्लादेशियों को बसाना व मतदाता बनाना शुरू किया जहां उनकी हार का अंतर अधिक नहीं था। अन्य स्थानीय संगठनों और बांग्लादेश में बैठे कट्टरपंथी दलों ने इस आग में घी डाला और असम के जनसांख्यिकी ढांचे को काफी हद तक बदल डाला। धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि लगभग 18 जिलों में जीत का समीकरण अवैध बांग्लादेशी तय करने लगे।’’ असम के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बाहरी लोगों के इसी वर्चस्व के खिलाफ असमिया अस्मिता का आंदोलन शुरू हुआ जिसकी परिणति 1985 के असम समझौते के रूप में हुई।  
सच को सामने लाने वाले योद्धा
एनआरसी को अद्यतन करने के मुद्दे को कागजों से निकाल कर व्यवहार में लाने का श्रेय 85 वर्षीय बुजुर्ग प्रदीप गोगोई और 43 वर्षीय अभिजीत सरना को जाता है। मतदाता सूची से करीब 41 लाख अवैध नामों को बाहर करने के लिए गोगोई ने सामाजिक कार्यकर्ता अभिजीत सरना से संपर्क किया। इस तरह 20 जुलाई, 2008 को सर्वोच्च न्यायालय में मामला दर्ज हुआ। इनके अनुरोध पर अदालत एनआरसी को अद्यतन करने की प्रक्रिया की देखरेख पर राजी हो गई। 2015 में इस पर काम शुरू हुआ और अदालत के निर्देशानुसार 31 दिसंबर, 2017 को इसका पहला मसौदा जारी किया गया। वैसे, 2012 को असम सम्मिलित महासंघ के अध्यक्ष मतिउर रहमान ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर कर ‘कट आॅफ’ साल 1950 करने का भी अनुरोध किया था।
  कुल मिलाकर एनआरसी को अद्यतन करने की प्रक्रिया वैध भारतीयों की पहचान का ऐसा चिर-प्रतीक्षित काम है जो असम में स्थायी शांति की पहली सीढ़ी है। बड़े बदलाव के दौर में झूठ और आधे सच की राजनीति करने वालों में छटपटाहट तो होगी, पर व्यापक सामाजिक-राजनीतिक सफाई के लिए यह जरूरी था।    

घुसपैठ रुकेगी समस्या हल होगी
ब्रिगेडियर (सेनि.) आर.पी. सिंह का कहना है, ‘‘किसी समस्या को हल करने की दिशा में पहला कदम यह होता है कि उसे और बढ़ने से रोका जाए। असम में समस्या की जड़ है बांग्लादेशियों का लगातार आना। भारतीयों की सूची तैयार करने का बड़ा फायदा यह होगा कि घुसपैठ रुक जाएगी और असम की समस्या के निवारण का पहला चरण पूरा हो जाएगा। यह बाद की बात है कि गैर-भारतीयों का क्या होगा। 1985 के असम समझौते में ऐसे लोगों को वापस भेजने की बात थी, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समझौता भारत में रह रहे विभिन्न हितधारकों के बीच था। जब तक समझौते की जद देश के भीतर है, कोई दिक्कत नहीं, पर जब कुछ लोगों को वापस भेजने की बात होगी, उसमें बांग्लादेश खुद ही एक पक्ष बन जाएगा। बांग्लादेश की मौजूदा सरकार से भारत के अच्छे रिश्ते हैं, जिन्हें खतरे में नहीं डाला जा सकता। इसलिए यह एक टेढ़ा मामला होगा।
दूसरी बात, असम की मूल समस्या भारतीय बनाम बांग्लादेशी है। आशंका है कि बांग्लादेश के कट्टरपंथी इसे हिंदू बनाम मुस्लिम का रंग देने की साजिश कर सकते हैं। इसके प्रति सरकार को सावधान रहना होगा। ध्यान रखना होगा कि धुबरी से सांसद और एआईएडीएफ प्रमुख बदरुद्दीन अजमल के जमात-ए-इस्लामी से नजदीकी संबंध जगजाहिर हैं।’’

समस्या की अनदेखी ज्यादा खतरनाक

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी कहते हैं, ‘‘जब घर के किसी कोने में आग लगी हो तो आप दरवाजे बंद करके निश्चिंत नहीं हो सकते। लपटें छोटे-छोटे झरोखों से फैलती रहेंगी और एक समय ऐसा आएगा जब आग पूरे घर को तबाह कर देगी। असम के मामले में ऐसा ही हुआ है। कुछ तो राजनीतिक हित व कुछ नौकरशाही की लापरवाही के कारण अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा सुलगता रहा। लेकिन इसकी ओर से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं। हां, पहले कदम उठा लेते तो मामला इतना नहीं बिगड़ता। आज कदम उठाने पर ज्यादा परेशानी तो होगी, पर इसे नजरअंदाज करना और खतरनाक होगा। वैसे तो आजादी के पहले से ही दूसरे इलाकों से असम में आकर बसने का सिलसिला चलता रहा। किंतु असम की जनसांख्यिकी में तेजी से बदलाव आजादी के बाद और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में आजादी का संघर्ष छिड़ने के बाद आया। पाकिस्तानी सेना के अमानवीय अत्याचारों के कारण लोग बड़ी संख्या में पलायन कर असम और पश्चिम बंगाल जैसे सीमावर्ती राज्यों में घुस आए। इससे वहां दिक्कतें तो होनी थीं। असम में मामला असमिया व बांग्ला भाषा-भाषी आबादी का है। जिस दौरान मैं चुनाव करा रहा था, मेरे पास भी बंगलाभाषियों का प्रतिनिधिमंडल आता था। वे कहते थे कि हम तो हिंदू हैं। हमारे साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। बांग्लादेश से आए लोग निहायत गरीब रहे हैं और यह उनकी कमजोरी भी है जो उनके गलत इस्तेमाल की आशंकाएं भी पैदा करती है। 1985 के असम समझौते के बाद दरिया में काफी पानी बह चुका है और हालात काफी बदल चुके हैं। केंद्र की मौजूदा सरकार में बड़े और कड़े फैसले लेने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखती है। ऐसे में बेहतर की उम्मीद की जानी चाहिए।’’

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