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स्वामी विवेकानंद का जन्मदिवस 12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस मौके पर प्रस्तुत है कुछ ऐसे युवाओं की कहानी जिन्होंने अनेक बाधाओं के बावजूद स्थापित किए मील के पत्थर
आज समूची दुनिया में भारत की पहचान युवा राष्ट्र के रूप में है। विशेषज्ञों की मानें तो वर्तमान में सुशिक्षित भारतीय युवाओं की मानसिकता खासी परिपक्व है। स्वामी विवेकानंद युवाओं का विशेष आह्वान करते हुए अनेक स्थानों पर उन्हें नए प्रतिमान गढ़ने को कहते हैं। आज के युवाओं में सबसे खास बात है त्वरित निर्णय लेने की क्षमता। किसी जमाने में हर निर्णायक व जिम्मेदारी वाले काम के लिए बड़े-बुजुर्गों की राय पर निर्भर रहने वाली देश की युवा शक्ति आज व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभा रही है। यह युवा चेतना का ही चमत्कार है। एक समय उच्च पद के लिए निर्धारित उम्र भी योग्यता की एक कसौटी मानी जाती थी, पर अब उम्र की यह बंदिश अर्थहीन हो चुकी है। जोश से लबरेज ये युवा शिक्षा, साहित्य, कला, मनोरंजन (थियेटर, फिल्म व खेल) के अलावा उद्यम-कारोबार, उत्पादन, आयात-निर्यात, सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया, विनिर्माण, चिकित्सा, कानून और नीति, सामाजिक उद्यमिता, स्वरोजगार, समाजसेवा आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सोपान हासिल रहे हैं। कुछ समय पूर्व तक जो व्यवसाय प्रौढ़ एवं बुजुर्गों के लिए नियत माने जाते थे, उन क्षेत्रों में भी हमारे युवा न केवल प्रवेश ले रहे हैं, वरन् अपने नेतृत्व का भरपूर लोहा भी दिखा रहे हैं। विश्वविख्यात फोर्ब्स पत्रिका की सफल व्यक्तियों की वार्षिक सूची में बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं के नामों का शामिल होना हमारी युवा शक्ति की विश्वव्यापी लोकप्रियता को दर्शाता है। राष्ट्रीय युवा दिवस के मौके पर कुछ ऐसे ही युवाओं का परिचय, जो विभिन्न क्षेत्रों में कुछ नया कर रहे हैं।
प्रस्तुति : पूनम नेगी
प्रतिभा हुई उजागर
विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’ एक युवा निर्देशक की परिवर्तनकारी सोच को प्रदर्शित करती है। बस्तर व हैदराबाद में नक्सल आंदोलन पर केद्रित यह फिल्म पूंजीवाद और साम्यवाद के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों की कलई खोलने की कोशिश है। इसमें विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विचारधाराओं की बेजा सौदेबाजी करने वालों का असल चेहरा दिखाया गया है।
इसी तरह 2016 में आॅस्कर अवॉर्ड के लिए मराठी फिल्म ‘कोर्ट’ के नामांकन से फिल्म के युवा निर्देशक और लेखक चैतन्य तम्हाणे चर्चा में रहे। यह फिल्म 88वें अकादमी अवॉडर््स में ‘बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज कैटेगरी’ में आॅस्कर के लिए भी नामित हुई। गत साल फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म के नेशनल अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है। इसके अलावा वेनिस फिल्म फेस्टिवल में भी इसे ‘लॉयन आॅफ द फ्यूचर’ सम्मान सहित कई इंटरनेशनल पुरस्कार मिल चुके हैं।
वनवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष
हौसलों से भरी ऐसी ही तीन युवतियां हैं ईशा खंडेलवाल , गुनीत कौर और पारिजात भारद्वाज, जो छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाके में वनवासी समाज के अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही हैं। पेशे से वकील ईशा ने अपनी इन दो साथियों के साथ जगदलपुर में एक ‘लीगल एड ग्रुप’ बनाया है। यह संगठन बस्तर, दंतेवाड़ा, कांकेर, सुकमा, बीजापुर जैसे अति पिछड़े इलाकों में अन्याय का शिकार होकर उम्मीदें खो चुके वनवासियों के लिए संघर्षरत है और अदालतों में उन्हें मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध करा रहा है। साथ ही ये लोग यातना झेल रहे वनवासी समाज के लिए काम करते हैं। मध्य प्रदेश के नीमच क्षेत्र की मूल निवासी ईशा का कहना है कि उनके जीवन का मूल उद्देश्य इन अशिक्षित व पिछडेÞ लोगों के जीवन से अन्याय का अंधेरा मिटाना है।
युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं स्वामी विवेकानंद
‘उठो! जागो! और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न कर लो!’ स्वामी विवेकानंद का कहा गया यह सूत्र वाक्य आज भी युवा मन को सर्वाधिक उद्वेलित करता है। जितनी बार भी पढ़ें, यह छोटा-सा प्रेरक वाक्य हर बार हमारे मन में नया जोश और ऊर्जा भर देता है। स्वामी विवेकानंद भारत की संत परंपरा के उन चुनिंदा महापुरुषों में से एक हैं, जो समाज के लिए श्रद्धा के पात्र होने के साथ-साथ युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं। धर्म और परंपरा के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि रखने वाले स्वामी जी जिस तरह अपने समय, परिवेश और पृष्ठभूमि से बहुत दूर, बहुत आगे जाकर युवाओं को एक नवीन जीवन दृष्टि देते हैं, वह कौतूहल का विषय तो है ही; यह उनकी तीक्ष्ण मेधा और दूरदृष्टि को भी जाहिर करता है। स्वामी विवेकानंद ऐसे आध्यात्मिक महापुरुष हैं जो यह मानने पर मजबूर करते हैं कि परंपरा और आधुनिकता के बीच तालमेल संभव है। किसी भी अन्य आध्यात्मिक धर्मगुरु के व्यक्तित्व में सनातन जीवनमू्ल्यों और आधुनिकता का ऐसा समन्वयकारी दृष्टिकोण कम ही दिखता है। यह इस युवा संन्यासी के कालजयी विचारों का सामर्थ्य ही है कि देशवासी उनकी जयंती को ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाते हैं।
इस युवा की सोच, उनका दर्शन और धार्मिक व्याख्याएं चौंकाने की हद तक आधुनिक और स्पष्ट हैं। यही वजह है कि 21वीं सदी के इस अति भौतिकतावादी, अर्थ-प्रधान तथा पेशेवर माहौल में भी उनको पढ़ना जरा भी असहज नहीं लगता। अपने व्याख्यानों, धार्मिक चर्चाओं और लेखों के माध्यम से वे जिस तरह राष्ट्र की युवा शक्ति को नेतृत्व क्षमता, नवाचार (इनोवेशन), प्रबंधन, सफलता और वैज्ञानिक सोच का पाठ पढ़ाते हैं, वह अपने आप में अद्भुत है।
अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने कहा था कि तुम हमें हमारे भौतिक विकास के लिए उद्योग धंधे दो, बदले में हम तुम्हें धर्म देंगे। धर्म व अध्यात्म के संबंध में मशहूर दार्शनिक जेएस मिल की पुस्तक ‘दि एसेज आॅफ रिलीजन’ का विवेकानन्द पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस पुस्तक ने उनकी आध्यात्मिक सोच को झकझोर कर रख दिया। स्वामी जी अमेरिका की कार्यसंस्कृति, प्रबंधन और संगठन क्षमता से बहुत प्रभावित थे। उनका कहना था कि भारत में पांच लोग भी एक साथ मिलकर काम नहीं कर पाते क्योंकि उनकी निजी महत्वाकांक्षाएं व अहंकार टकराने लगते हैं जबकि अमेरिका इसका अपवाद है। हमें इस दिशा में इसका अनुकरण कर एक बेहतर समाज व राष्ट्र के निर्माण के लिए अहंकार और निजी महत्वाकांक्षाओं का परित्याग कर परस्पर मिलकर कार्य करना होगा। क्योंकि संगठन, एकता व प्रबंधन ही सफलता की कुंजी है।
प्राय: युवाओं की नकारात्मक बातों की चर्चा की जाती है। कहा जाता है कि कितने युवक नशे से पीड़ित हैं, कितने बेरोजगारी के कारण अवसाद से ग्रस्त हैं तो कितने ही और व्यसनों में फंसे पड़े हैं। ये बातें चिंतनीय जरूर हैं, पर इस सच का दूसरा पहलू यह भी है कि इसी देश के युवाओं ने अलग-अलग क्षेत्रों में मील के पत्थर स्थापित किए हैं। उनमें अपने जीवन को सार्थक बनाने के साथ अपनी धरती, अपनी संस्कृति और पुरखों की विरासत को पहचानने व अपनाने की ललक बढ़ी है। 21वीं सदी के इस अत्याधुनिक समय का यह परिवर्तन एक सुखद संकेत है।
कमजोरी को दी मात
जन्म से ही दृष्टिहीन श्रीकांत बोला आज 50 करोड़ से भी ज्यादा ‘टर्नओवर’ वाली कन्ज्यूमर फूड पैकेजिंग कम्पनी बोलैंट इंडस्ट्रीज के सीईओ हैं। उनके पास कंपनी की चार उत्पादन इकाइयां हैं। एक हुबली, दूसरी निजामाबाद, तीसरी तेलंगाना और चौथी कंपनी, जो सौ प्रतिशत सौर उर्जा द्वारा संचालित होती है, आंध्र प्रदेश की श्री सिटी में है। गौरतलब है कि यह एक ऐसी कंपनी है जिसका मुख्य उद्देश्य अशिक्षित और दिव्यांग लोगों को रोजगार देकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है।
हुनर ने दिखाया रास्ता
ब्रिटल बोन रोग की वजह से 12 साल की उम्र में साधना की सुनने की शक्ति चली गई और उनका कद 3.3 फीट रह गया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। पेटिंग के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली साधना अपने घर पर पेंटिग की कक्षा लगाकर बच्चों को यह हुनर सिखाती हैं।
राह बनाई सुगम
विख्यात चिकित्सक डॉ. सतेन्द्र सिंह को मात्र नौ माह की उम्र में पोलियो हो गया था। आज वे एक प्रख्यात समाजसेवी हैं और सार्वजनिक स्थानों को दिव्यांगों के लिए सुगम बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। उनके प्रयासों के चलते ही पोस्ट आॅफिस, मेडिकल संस्थान, पोलिंग बूथ आदि को दिव्यांगों के लिए अनुकूल बनाने के तमाम प्रयास किए गए हैं। दिव्यांगता के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए दिल्ली सरकार ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग दिवस, 2016 में राजकीय पुरस्कार से सम्मानित किया।
हौसलों से भरती उड़ान
प्रीति तमिलनाडु की अंडर-19 क्रिकेट टीम की कप्तान थीं, लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसे ने उनकी जिंदगी बदल दी। रीढ़ की हड्डी क्षतिग्रस्त होने से उनकी गर्दन के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। पर उन्होंने हार नहीं मानी। आज वे एक सफल ‘मोटिवेशनल’ वक्ता के रूप में विख्यात हैं और कई स्वयंसेवी संगठनों से जुड़कर दूसरों को जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। वे उन महिलाओं के लिए भी काम करती हैं जो गंभीर रूप से दिव्यांग हैं। वे उन्हें सिखाती हैं कि कैसे बाधाओं को दूर कर खुश रहा जा सकता है।
बनाया अनूठा स्कूल बैग
स्कूल बैग ‘डिजाइनर’ आलोक कुमार, उत्तरी बिहार के ग्रामीण इलाके सीतामढ़ी में पले-बढ़े हैं। इस दौरान उन्हें अपने क्षेत्र का पिछड़ापन बहुत तकलीफ देता था। खासतौर पर जब वे स्कूली बच्चों को किताबें ले जाने के लिए संघर्ष करते देखते थे। बारिश आदि के दौरान या नदी पार करते समय बच्चों के कपड़े व टाट के झोलों में रखी किताबें भीग भी जाती थीं, तो दुख होता था। आलोक कहते है,‘‘मैं उनकी इस समस्या का हल निकालना चाहता था। पुणे के सिम्बायोसिस इंस्टीट्यूट से डिजाइनिंग टेक्नोलॉजी में स्नातक के दौरान इस बाबत एक विचार मन में आया और मैने एक खास तरह का स्कूल बैग ‘डिजाइन’ किया।’’ पॉली प्रोपाइलीन प्लास्टिक से बने इस बैग का वजन मात्र 250 ग्राम है, जो अपने वजन से 30 गुना भार उठा सकता है। साथ ही इस बैग की एक अन्य खासियत यह है कि इसमें सौर ऊर्जा से संचालित एक एलईडी लैंप भी लगा है। साथ ही एक विशेष तरीके से इसे 30-35 डिग्री मोड़ने पर यह एक ‘स्ट्डी टेबिल’ में भी बदल जाता है। आलोक ने अपने बैग की ब्रांडिग ‘यलो’ नाम से की है। वे बताते हैं कि उन्होंने सितंबर, 2014 में इन स्कूली बैग का निर्माण शुरू किया था। बीते वर्ष उन्होंने महाराष्ट्र में कुछ गैर मुनाफा संगठनों के माध्यम से करीब 800 स्कूल बैग बांटे थे और अभी 1,200 तैयार बैग बांटने की योजना है। आलोक अपने इस विशिष्ट स्कूल बैग के राष्ट्रव्यापी विस्तार के लिए काम कर रहे हैं।
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