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अपनी बात-इस विषैली राजनीति से तौबा!

by
Jan 8, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2018 11:11:10

कोरेगांव भीमा का नाम दिल्ली के मीडिया ने समवेत रूप में पहले शायद कभी सुना भी नहीं होगा, किन्तु एकाएक यह नाम सुर्खियों में छा गया है। जातिगत विद्वेष और हिंसा पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए कथित ‘नेता’ किस हद तक नीचे गिरेंगे?
पुणे के कोरेगांव भीमा में ‘यलगार परिषद्’ का कार्यक्रम बताता है कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे..’ का नारा उछालने वाली जमात भारी कसमसाहट से गुजर रही है। अपने बुरी तरह छीजते समर्थन को बचाए रखने के लिए इस ब्रिगेड की लामबंदी देश के पुराने राजनीतिक दल के साथ पहले भी थी, किन्तु अस्तित्व की कड़ी लड़ाई ने अदृश्य रिश्तों को सतह पर उजागर कर दिया है।
जिग्नेश मेवाणी का राहुल गांधी से क्या रिश्ता है? यह टूटते किले को थामने के लिए एक-दूसरे को सहारा देने और टेक लगाने का धोखा भर है जिसके तहत पहले लोगों को और फिर खुद को धोखा दिया जाना है। जरा और समझते हैं। जिग्नेश का उभार या गुजरात में राहुल का जादू, दोनों बातें झूठी हैं। और इस झूठ का विस्तार ही जहरीली राजनीति को गुजरात के बाद महाराष्टÑ ले आया है।
जिस राज्य में दो दशक के राज के बावजूद भाजपा के प्रति लगाव पहले के मुकाबले (मत प्रतिशत की दृष्टि से) बढ़ा हो, वहां कांग्रेस या वामपंथी वास्तव में किस हाल में हैं! केरल-कर्नाटक में कट्टर इस्लामी संगठनों से सहयोग के आरोप झेल रही कांग्रेस ने गुजरात में ‘जनेऊ प्रेम’ चाहे जितना दिखाया, जमीन पर यह उसका ‘जेएनयू’ प्रेम ही था कि भारी मुस्लिम जनसंख्या वाली कांग्रेस की ऐसी सीट जेएनयू के पूर्व छात्र जिग्नेश के लिए छोड़ी गई जहां कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में करीब 23,000 वोटों से जीती थी। और राहुल जिग्नेश की इस जुगलबंदी का, ‘कथित’ जादू का हुआ क्या! वोट घटकर 19000 रह गए! कहां गई लहर और युवराज कहां बह गए! यानी वर्तमान चुनावी माहौल कांग्रेस और वाम सहित भाजपा विरोधी तमाम लामबंदियों के लिए साम-दाम-दंड-भेद.. सभी हथकंडे आजमाने का आखिरी मौका है। जिनके पांव तले जनाधार की जमीन खिसक चुकी है, वे जानते हैं कि मिलकर भी किसी तरह बचे रहे तो गनीमत होगी। यही कारण है कि कुनबे, क्रांति और कौम की बातें करने वाले लोग अब उस हिन्दू एकता पर हल्ला बोलने पर आमादा हैं। वह समाज जिसे मुगलों ने काटा, अंग्रेजों ने बांटा वह राजनीतिक रूप से एक हो गया तो क्या होगा? वही जो देश में हो रहा है—विकास। वही जो गुजरात में 22 बरस बाद भी बरकरार है—विकास पर भरोसा। यदि बहुसंख्य समाज का विकास हुआ तो कुनबे और ‘कोटरियों’ का विकास कैसे होगा?
यदि देश में विकास का पहिया ऐसे ही घूमा तो ठगुआ ‘क्रांति’ का पहिया तो थम ही जाएगा!
यदि ‘सबका विकास..’ हुआ तो सिर्फ ‘कौम’ की सोचने वालों की तो दुकान ही बंद हो जाएगी!
इन आशंकाओं से डरे हुए लोगों की सामूहिक और ज्यादा हिंसक होती राजनीति का प्रतीक है कोरेगांव भीमा की घटना। 200 साल पुरानी आग को अब हवा देने का क्या मतलब है?
ये राजनीति में असर-अस्तित्व खो रहे ऐसे लोग हैं, जिन्हें सिर्फ हिन्दू समाज से इतनी छिटकन भर चाहिए जिसमें मुस्लिम राजनीति का पैबन्द लगाकर सामाजिक एकता को कफन ओढ़ाया जा सके।  
बहरहाल, जिस समय नेता बहकावों की बर्छियां पैना रहे हों, उनकी नीयत को परखना और जनता को बताना मीडिया का काम है। यह नहीं हो सकता कि राजनीति समाज में जहर बोए और मीडिया आंखें मूंदे केवल टीआरपी के लिए सुर्खियों की झांझर बजाता रहेगा?
मीडिया का दायित्व सिर्फ कोरेगांव भीमा की रिपोर्टिंग करना नहीं है, विद्वेषी-विषैली राजनीति को यह भी बताना होगा कि सामाजिक एकता का कफन लोकतंत्र में राजनीति का साफा नहीं बन सकता।

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