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राष् ट्रप्ाति ट्रंप की पाकिस्तान को आर्थिक मदद रोकने की घोषणा के बाद पाकिस्तान की सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि कहीं वह उसके खिलाफ सैन्य कार्रवाई न शुरू कर दे। अमेरीकी राजनयिकों ने टंÑप के कदम का स्वागत किया है
अरविंद शरणआतंकवाद
को राजनीतिक हितपूर्ति का सरकारी साधन बनाने की नीतियों ने पलटकर पाकिस्तान की गर्दन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ सख्त नजरिया रखने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने नए साल के पहले ही दिन साफ कर दिया कि पाकिस्तान जिस तरह आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में सहयोग के नाम पर अमेरिका को बेवकूफ बनाकर अरबों डॉलर ऐंठता रहा, यह और नहीं चलने वाला। उनके इस बयान के बाद अमेरिका ने बेशक आनन-फानन में पाकिस्तान को दी जाने वाली 25.5 करोड़ डॉलर की मदद रोक दी, लेकिन मामला यहां महज आर्थिक मदद का नहीं है। ट्रंप का बयान तो केवल संकेतभर है कि आने वाले समय में पाकिस्तान के खिलाफ क्या-कुछ होने वाला है। लेकिन इतना तय है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को पुचकारने की नीति से तौबा कर ली है और चौसर की गोटियों की तरह आतंकियों को इस्तेमाल करने वाले इस मुल्क के गले में पट्टा डालने का मन बना लिया है। अगर भविष्य में पाकिस्तान के चुनिंदा आतंकी ठिकानों पर अमेरिका कोई कार्रवाई करे या आईएसआई या इसके कुछ अधिकारियों को प्रतिबंधित कर दे, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बेशक ट्रंप कई मुद्दों पर कभी नरम कभी गरम रहे हों, पर आतंकियों को पाकिस्तानी सरपरस्ती के बारे में उनके बयानों में मोटे तौर पर निरंतरता रही है। ट्रंप ने अपने ट्वीट में दो टूक कहा कि अमेरिका जिन आतंकियों की तलाश में अफगानिस्तान की खाक छान रहा है, उन्हें पाकिस्तान पनाह दे रहा है जबकि इसी काम के लिए उसने बीते 15 साल के दौरान 33 अरब डॉलर झटक लिए। जाहिर है, ट्रंप के इस बयान के बाद पाकिस्तान की नींद हराम हो गई और आनन-फानन में शीर्ष स्तर पर बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कैबिनेट की बैठक बुलाकर हालात पर चर्चा भी की।
सैन्य कार्रवाई करेगा अमेरिका?
यह संभावना बन रही है कि पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर अमेरिका ठोस कार्रवाई करे, क्योंकि पिछले दो राष्ट्रपतियों के कार्यकाल के दौरान अमेरिका ने धीरे-धीरे यह राज जान लिया कि पाकिस्तान एक हाथ से अमेरिकी पैसे लेता है और दूसरे हाथ से उसे आतंकियों की फौज खड़ी करने में लगाता है। रक्षा विशेषज्ञ आलोक बंसल कहते भी हैं, ‘‘ट्रंप जिस मिजाज के आदमी हैं, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि वे कब कौन-सा कदम उठा लें। लेकिन आतंकियों की सरपरस्ती की बात करें, तो वे लगातार पाकिस्तान पर सख्त बयान देते रहे हैं। इसीलिए उनका ताजा बयान गंभीर है। पाकिस्तान की सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि कहीं अमेरिका उसके खिलाफ सैनिक कार्रवाई न शुरू कर दे। मौजूदा हालात के मद्देनजर इसकी संभावना काफी अधिक है। इसी कारण पाकिस्तानी सुरक्षा तंत्र घबराया हुआ है। पहली बार पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष को सीनेट में जाकर इन-कैमरा ब्रीफिंग करनी पड़ी। आगे कुछ भी हो सकता है। हो सकता है कि पाकिस्तान के किसी क्षेत्र को अमेरिका नो फ्लाई जोन घोषित कर दे। अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान के लिए यह कहीं अधिक नुकसानदायक स्थिति होगी।’’
कुछ अधिकारियों पर पाबंदी संभव
अमेरिका ने जान-बूझकर पाकिस्तान की हरकतों को नजरअंदाज करने और कभी-कभार आंखें दिखाकर काम चलाने की नीति अपना रखी थी, क्योंकि अफगानिस्तान में उसे अपने बड़े लक्ष्य पूरे होते दिख रहे थे। बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान भी यही स्थिति रही, पर पाकिस्तान की कलई तब तक काफी हद तक खुल चुकी थी और दोनों मुल्कों के बीच तनातनी दिखने लगी थी जिसकी परिणति एबटाबाद में छिपाकर रखे गए ओसामा बिन लादेन के सफाए के रूप में हुई। अब ट्रंप ने पाकिस्तान के खिलाफ जो सख्त रुख अपना रखा है, उसके पीछे कोई नया खुलासा नहीं है।
पाकिस्तान के बारे में सारे तथ्य अमेरिका के पास पहले से ही थे। फर्क केवल उन तथ्यों पर प्रतिक्रिया के तरीके से है और जो हो रहा है, वह ट्रंप के व्यक्तित्व के अनुकूल है। अमेरिकी प्रशासन में पाकिस्तान की दोहरी नीति के कारण हताशा बढ़ रही है। प्रशासन के विभिन्न स्तरों से पाकिस्तान को समय-समय पर बताया जाता रहा कि उसे आतंकियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करनी होगी। पूर्व राजनियक योगेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘अमेरिकी प्रशासन की निराशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सीआईए प्रमुख को खुलेआम कहना पड़ा कि या तो पाकिस्तान आतंकियों से निपटे, नहीं तो अमेरिका को पाकिस्तान से निपटना पड़ेगा। इस तरह पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की पृष्ठभूमि तो बन ही रही थी। अब इसकी संभावना इसलिए बढ़ गई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति मोर्चे पर आ गए हैं। आने वाले समय में अगर अमेरिका आईएसआई प्रमुख या पाकिस्तान प्रशासन के कुछ अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दे या ईरानियन रिवॉल्यूशन गार्ड की तर्ज पर आईएसआई को आतंकी संगठन घोषित कर दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।’’
भयादोहन कब तक ?
अब तक अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान के आगे इसलिए झुक रहा था, क्योंकि अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई में उसे पाकिस्तान की मदद चाहिए थी ताकि रसद व गोला-बारूद भेजा जा सके। एक समय अफगानिस्तान की धरती पर अमेरिका समेत दूसरे देशों के डेढ़ लाख से अधिक सैनिक थे और उनकी कार्रवाई के लिए बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी मदद की दरकार थी, लेकिन अमेरिका का अनुभव अच्छा नहीं रहा। काफी पैसे लुटाने के बाद भी वह अफगानिस्तान में तैनात सैनिकों के लिए मनमुताबिक मदद नहीं ले सका। फिर भी पाकिस्तान का सहयोग उसके लिए जरूरी था। पहले भी अमेरिका से तनाव बढ़ने पर पाकिस्तान अफगानिस्तान में तैनात सैनिकों को मदद में सहयोग से हाथ पीछे खींच चुका है। इसलिए एक बार फिर वह इसी तरह की ब्लैकमेलिंग करने की कोशिश करेगा। साथ ही वह जो भी आधी-अधूरी खुफिया जानकारी अमेरिका से साझा करता था, उससे भी इनकार कर सकता है। लेकिन यह कोई अप्रत्याशित कदम नहीं होगा और ट्रंप प्रशासन ने इसकी पहले से तैयारी भी कर रखी होगी। वैसे, यह नहीं भूलना चाहिए कि अफगानिस्तान में तब और अब की जरूरतों में काफी अंतर आ चुका है और उसकी भूमिका के कारण अमेरिकी कार्रवाई में सहूलियत कम और मुश्किलें ज्यादा पेश आ रही हैं। इसी वजह से ट्रंप आर-पार के मूड में हैं। पाकिस्तान की आर्थिक मदद रोकने का अमेरिका का फैसला वस्तुत: आज के संदर्भों में इस्लामाबाद के लिए कोई संकट खड़ा करने वाला नहीं। इसके मुख्यत: दो कारण हैं। पहला, जैसे-जैसे पाकिस्तान और आतंकवाद के गठजोड़ पर अमेरिका आश्वस्त होता गया, पाकिस्तान को मिलने वाली मदद उसी अनुपात में घटती गई। अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद पाकिस्तान को अमेरिकी मदद अमूमन सालाना सवा दो अरब डॉलर की थी जो 2010 में 4.5 अरब डॉलर हो गई। लेकिन बाद में इसमें कमी आती गई और 2016 में यह राशि 79.4 करोड़ डॉलर रह गई। पाकिस्तान को घटती अमेरिकी मदद की आदत हो गई थी। उसे भी मालूम था कि भविष्य में यह कमी आएगी। दूसरा, उसका सदाबहार दोस्त चीन जो चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के लिए पाकिस्तान में मोटा निवेश कर रहा है।
कितना काम आएगा सऊदी अरब
अमेरिका से रिश्ते पटरी पर लाने के लिए पाकिस्तान काफी हद तक सऊदी अरब पर निर्भर है। योगेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘सऊदी अरब के अमेरिका से करीबी रिश्ते हैं और इसके जरिये पाकिस्तान कोशिश करेगा कि अमेरिकी आक्रामकता को कम किया जाए।’’
चीन तो साथ निभाएगा ही
ट्रंप के ट्वीट के अगले ही दिन हुई दो घटनाएं संकेत करती हैं कि आतंकवाद के मामले में घिरते पाकिस्तान के प्रति चीन का रुख क्या रहने वाला है। पहली घटना थी, चीन ने आधिकारिक तौर पर बयान जारी करके आतंकवाद से लड़ाई में पाकिस्तान की भूमिका की सराहना की। चीन ने कहा कि उसके दोस्त ने आतंकवाद से लड़ाई में काफी-कुछ खोया है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और दुनिया को इस पर गौर करना चाहिए। दूसरी घटना थी पाकिस्तान और चीन का द्विपक्षीय व्यापार में डॉलर की जगह चीनी मुद्रा युआन के इस्तेमाल का फैसला। इन दोनों घटनाओं से स्पष्ट है कि चीन हर हाल में पाकिस्तान के साथ खड़ा रहेगा। इसके दो कारण हैं। पहला, सीपीईसी चीन का ड्रीम प्रोजेक्ट है और वह इसपर मोटा पैसा खर्च कर चुका है। आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान यदि घिरता है और उस पर कोई कार्रवाई होती है तो इसका असर सीपीईसी पर भी पड़ेगा।
हाल में चीन ने इसी उद्देश्य से अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की कोशिश भी की थी। चीन यह भी चाहता है कि अफगानिस्तान सीपीईसी का हिस्सा बन जाए। यह बात और है कि उसके सफल होने की संभावना काफी क्षीण है। कारण, जैसे ही सुलह-सफाई की बात आएगी, अफगानिस्तान में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बात आ खड़ी होगी। दूसरे, पाकिस्तान की नीति खुद को ऐसी ताकत के रूप में स्थापित करने की रही है जिसके हाथ में अफगानिस्तान का भाग्य हो।
भारत के लिए चीनी चाल के मायने
अगर आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान घिरा तो इसका कूटनीतिक लाभ भारत को मिलेगा। भारत हमेशा से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का मामला उठाता रहा है। खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अच्छे आतंकी और बुरे आतंकी की अवधारणा को ध्वस्त करने में अहम भूमिका निभाई है। इसी वजह से अब अमेरिका अच्छे आतंकी का बात नहीं करता। योगेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘ट्रंप का ट्वीट अफगानिस्तान के संदर्भ में है और इसमें उन्होंने भारत का जिक्र नहीं किया, लेकिन अगर अमेरिका पाकिस्तान पर प्रभावी अंकुश लगाने में सफल रहता है तो इसका सकारात्मक असर भारत पर पड़ना लाजिमी है। वैसे भी, ट्रंप ने इससे पहले दक्षिण एशिया और अफगानिस्तान के बारे में अपने नीतिगत बयान में भारत का उल्लेख किया था। तब उन्होंने कहा था कि अमेरिका न केवल अफगानिस्तान, बल्कि भारत में हो रही आतंकवादी घटनाओं को लेकर भी चिंतित हैं।’’ पाकिस्तान ने आतंकवाद की कलम से जिस फिल्म की पटकथा लिखी, उसका दुखांत तो तय था। अब जबकि पटाक्षेप की भूमिका तैयार हो रही है तो तार्किक अंत के लिहाज से कड़ियां जुड़ने लगी हैं। फिर हाय-तौबा क्यों? यह तो होना ही था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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