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केंद्र सरकार ने 1400 साल से चली आ रही कुप्रथा (तीन तलाक) को खत्म के लिए कानून के जरिए उस पर कड़ा प्रहार किया है। पढ़ें, तीन तलाक के विरुद्ध याचिका दायर करने वालीं महिलाओं के साथ कुछ अन्य मुस्लिमों की राय
अरुण कुमार सिंह
आजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने तीन तलाक पर विधेयक लाकर जता दिया है कि वह मुस्लिम महिलाओं को उनके मानवीय अधिकार देने के लिए कृतसंकल्प है। (इस रपट को लिखने तक यह विधेयक राज्यसभा से पारित नहीं हो पाया था)। सरकार के इस कदम से तीन तलाक से पीड़ित महिलाएं बहुत खुश हैं। गाजियाबाद में रहने वाली तलाकशुदा महिला जाहिरा खातून कहती हैं, ‘‘अब उन महिलाओं के अच्छे दिन आने वाले हैं, जिन्हें प्रथा के नाम पर एक बुराई का सामना सालों से करना पड़ रहा है।’’ कुछ ऐसी ही राय आगरा की रेशमा की भी है। वे कहती हैं, ‘‘अब शायद यह सुनने या पढ़ने को नहीं मिलेगा कि देर से जगने, मायके से जल्दी नहीं लौटने या मनपसंद खाना नहीं बनाने पर किसी मुस्लिम महिला को उसके शौहर ने तलाक दे दिया हो। अब कोई मुसलमान अपनी पत्नी को तलाक देने से पहले उसके अंजाम पर जरूर विचार करेगा।’’ ऐसे विचार रखने वाली मुस्लिम महिलाओं की संख्या करोड़ों में है। वे सभी लोकसभा से मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक-2017 के पारित होने से बहुत खुश हैं। वे महिलाएं आजाद महसूस कर रही हैं। तीन तलाक के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करने वाली जयपुर की आफरीन कहती हैं, ‘‘एक कुप्रथा की वजह से नारकीय जीवन जीने वालीं महिलाओं में मैं भी शामिल हूं। निकाह के सिर्फ डेढ़ साल बाद से ही मैं तलाक की तकलीफ झेल रही हूं। तलाक देने वालों को सजा मिलनी ही चाहिए और इसी दिशा में सरकार ने काम किया है।’’ वे बताती हैं, ‘‘मैं अपनी मां से मिलने के लिए जयपुर आई थी। यहीं मेरे साथ एक दुर्घटना हुई। इस कारण कुछ दिनों तक इंदौर, जहां मेरी ससुराल है, नहीं जा पाई। दुर्घटना के बारे में शौहर को बताया तो वे हालचाल लेने आए। 10 दिन बाद जयपुर से वे इंदौर चले गए और अपना मोबाइल बंद कर लिया। मैंने उनसे संपर्क करने की बहुत कोशिश की, लेकिन नाकामयाब रही। 27 जनवरी, 2016 को उन्होंने स्पीड पोस्ट के जरिए मुझे तलाक दे दिया। इंसाफ पाने के लिए मैंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। न्यायालय ने 22 अगस्त, 2017 को तीन तलाक को अवैध बताया। अब भारत सरकार ने एक कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को इंसानी खाल में घूम रहे भेड़ियों से बचाने का काम किया है।’’
हावड़ा की इशरत जहां भी उन पांच महिलाओं में शामिल हैं, जिन्होंने तीन तलाक के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी। वे कहती हैं, ‘‘अब मुस्लिम महिलाएं भी खुलकर अपनी जिंदगी जी सकती हैं। केंद्र सरकार ने वह काम कर दिया है, जिसके लिए महिलाएं सालों से कोशिश कर रही थीं। तीन तलाक देकर किसी महिला और उसके बच्चों को ठोकरें खाने के लिए मजबूर करने वाले अब नहीं बचेंगे।’’ इशरत के चार बच्चे हैं। इनमें तीन लड़की और एक लड़का है। तीनों लड़कियां अब्बा के पास रहती हैं और आठ साल का लड़का इशरत के साथ है। 2001 में इशरत का निकाह हुआ था। दुबई में रहने वाले उनके शौहर ने 2015 में फोन से तीन बार ‘तलाक’ बोलकर उनके जीवन में एक भूचाल ला दिया था। तभी से वे अपने हक के लिए लड़ रही हैं। हाल ही में उन्होंने भाजपा की सदस्यता भी ली है। आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कानून का जमकर विरोध कर रहा है। बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना खलीलुर्रहमान नोमानी कहते हैं, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को नहीं माना है। यानी जब तीन तलाक होगा ही नहीं, तो सजा का प्रावधान क्यों? यह कानून मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, शरीयत और संविधान के खिलाफ है। तीन तलाक की आड़ में अन्य विधि से तलाक देने का अधिकार पुरुषों से छीनने की कोशिश हो रही है।’’ नोमानी की इस बात से आॅल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड सहमत नहीं है। बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘‘1972 में आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन पति-पत्नी के मामलों को सुलझाने के लिए ही हुआ था, लेकिन बोर्ड ने कुछ नहीं किया। इस वजह से इसमें अदालत और सरकार को दखल देनी पड़ी। अब बोर्ड अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिए सरकार के इस नेक काम का विरोध कर रहा है।’’ शाइस्ता कहती हैं, ‘‘तीन तलाक के मामलों में काजी बीवी की बात तो सुनता ही नहीं है। वह शौहर की दलीलें सुनकर फरमान जारी कर देता है। इस वजह से तलाकशुदा महिलाएं और उनके बच्चे बर्बाद होते रहे हैं। अब वह बर्बादी रुकेगी। सरकार ने सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता के लिए बड़ा काम किया है। बुराई पर मजहब का मुलम्मा चढ़ाने वाले इस कदम से इसलिए डर रहे हैं, क्योंकि उनकी दुकानें बंद हो जाएंगी।’’ लेकिन इस्लामिक विद्वान मौलाना अहमद शाह मसूदी की राय बिल्कुल उलट है। वे कहते हैं, ‘‘तीन तलाक या तलाके बाइन देने के बाद पति-पत्नी का रिश्ता खत्म हो जाता है। इद्दत (विशेष समयावधि) तक तो महिला का खर्च पुरुष के जिम्मे है, उसके बाद पुरुष की तरह महिला भी आजाद है। लेकिन नया कानून कहता है कि रिश्ता बाकी है और इसका अर्थ यह भी निकलता है कि पूर्व के संबंध फिर स्थापित किए जा सकते हैं, यह सब इस्लामिक शिक्षा एवं निर्देशों के विरुद्ध है।’’
तलाक के मामले में ही 1986 में राजीव गांधी सरकार से इस्तीफा देने वाले आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘‘आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के रहनुमाओं को न तो कानून पता है और न ही संविधान। पहले इन्हीं लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में लिखित रूप से कहा है कि इस मामले में आप (अदालत) नहीं, संसद ही कुछ कर सकती है। अब जब संसद ने अपना काम कर दिया तो विरोध क्यों?’’ वे यह भी कहते हैं, ‘‘इस विधेयक का पहला श्रेय तो उन मुस्लिम महिलाओं को जाता है, जिन्होंने अंदर-बाहर दमदारी के साथ अपनी लड़ाई लड़ी। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस विधेयक के लिए बधाई के पात्र हैं। यह विधेयक कानून बन जाने पर उस सामाजिक कुप्रथा को खत्म करेगा, जो सैकड़ों साल से चल रही है।’’
वरिष्ठ पत्रकार फिरोज बख्त अहमद कहते हैं, ‘‘सरकार और सर्वोच्च न्यायालय ने अच्छा कदम उठाया है। तीन तलाक मजहबी नहीं, सामाजिक समस्या है। तीन तलाक से मुस्लिम समाज की जगहंसाई होती है। मुसलमान अपनी कौम की अब और न जगहंसाई कराएं।’’ सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक पर बहस करने वाली वकील फरजाना फैज कहती हैं, ‘‘यह विधेयक मुस्लिम महिलाओं का रक्षा कवच है। यह कवच उन्हें पहले ही मिल जाता तो लाखों महिलाएं और बच्चे भीख मांगने को मजबूर नहीं होते।’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘मुसलमानों की समस्याओं की जड़ में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है। इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए साथ ही उसको मिलने वाले चंदे की भी निगरानी होनी चाहिए।’’ इन सबकी राय का निचोड़ यही है कि तीन तलाक के खिलाफ लाए गए विधेयक से वे लोग डर रहे हैं, जो इसकी आड़ में मजहबी दुकानदारी चलाते हैं और वे लोग खुश हैं, जो मुस्लिम महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर हक देना चाहते हैं। (इनपुट: सुरेंद्र सिंघल )
यह कानून मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, शरीयत और संविधान के खिलाफ है। तीन तलाक की आड़ में अन्य विधि से तलाक देने का अधिकार पुरुषों से छीनने की कोशिश हो रही है।
— मौलाना खलीलुर्रहमान नोमानी
प्रवक्ता, आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
1972 में आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन पति-पत्नी के मामलों को सुलझाने के लिए ही हुआ था, लेकिन बोर्ड ने कुछ नहीं किया। इस वजह से इसमें अदालत और सरकार को दखल देनी पड़ी।
-शाइस्ता अंबर
अध्यक्ष, आॅल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड
आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के रहनुमाओं को न तो कानून पता है और न ही संविधान। पहले इन्हीं लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में लिखित रूप से कहा है कि इस मामले में आप (अदालत) नहीं, संसद ही कुछ कर सकती है। अब जब संसद ने अपना काम कर दिया तो विरोध क्यों?
-आरिफ मोहम्मद खान, पूर्व केंद्रीय मंत्री
केंद्र सरकार ने वह काम कर दिया है, जिसके लिए सालों से महिलाएं कोशिश कर रही थीं। तलाक देकर किसी महिला और उसके बच्चों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर करने वाले अब नहीं बचेंगे।
– इशरत जहां, हावड़ा
मुसलमानों की समस्याओं की जड़ में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है। इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए, साथ ही उसको मिलने वाले चंदे की भी निगरानी होनी चाहिए।
-फरजाना फैज, वकील
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