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कई विपक्षी दलों और मजहबी नेताओं के विरोध के बावजूद लोकसभा ने मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक-2017 पारित कर दिया। इसके अनुसार कोई भी मुसलमान यदि अपनी पत्नी को तत्काल ‘तीन तलाक’ किसी भी माध्यम से देगा तो उसे तीन साल तक की सजा हो सकती है
प्रमोद भार्गव
अगस्त, 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में तीन तलाक को अमान्य और असंवैधनिक घोषित करने के साथ केंद्र सरकार को इस बाबत छह माह के भीतर कानून बनाने का निर्देश दिया था। लोकसभा से पारित हुए इस विधेयक में न केवल शीर्ष न्यायालय की भावना को स्थापित किया गया है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद-25 के अंतर्गत दिए प्रावधान और मजहबी आचार और मान्यता के सरंक्षण के प्रति भी मुस्लिम समुदाय को आश्वस्त किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पुरुषों के बरअक्स मुस्लिम महिलाओं को समता का दर्जा देने की भावना जताई थी। साथ ही, अदालत ने आगाह किया था कि उसे केवल तलाक का ‘तलाक-ए-बिद्दत’ स्वरूप नामंजूर है। इसी के तहत एक साथ तीन बार ‘तलाक, तलाक, तलाक’ कहकर वैवाहिक संबंध को पल भर में तोड़ देने की 1,400 साल पुरानी प्रथा के बूते मुस्लिम पुरुष पत्नी से संबंध विच्छेद को स्वतंत्र थे। शीर्ष न्यायालय ने इस ‘तलाक-ए-बिद्दत’ को ही शून्य घोषित करते हुए असंवैधानिक ठहराया था। इसके अलावा शरीयत में ‘तलाक-ए-अहसन’ और ‘तलाक-ए-हसन’ नाम से भी विवाह-विच्छेद के दो प्रावधान मौजूद हैं। इनमें एक निश्चित अंतराल के बाद तलाक कहने का प्रावधान है। इस दौरान पति-पत्नी के बीच मन-मुटाव दूर कर सुलह की गुंजाइश बनी रहती है।
दरअसल, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कभी भी इस बुराई को दूर करने की कोशिश नहीं की। यही वजह रही कि मुस्लिम महिलाएं जीवन भर ‘तलाक-ए-बिद्दत’ के भय से आतंकित रही हैं। गोया, इस काले कानून बनाम कुप्रथा का खात्मा जरूरी था। तलाक-ए-बिद्दत में एक आदिम एवं अमानुषी प्रथा भी बनी चली आ रही थी। इसके अनुसार तत्काल तीन तलाक के बाद यदि पति-पत्नी फिर से पुराने रिश्ते को बनाए रखना चाहते हैं, यानी फिर से निकाह के इच्छुक हैं तो स्त्री को कम से कम एक दिन के लिए किसी अन्य पुरुष की पत्नी बनकर उससे संबंध बनाना जरूरी है। इस कुप्रथा को ही हलाला कहा जाता है।
ऐसे क्रूर प्रावधानों से छुटकारे के लिए सरकार ने तत्काल तलाक कहने की स्थिति को गंभीर अपराध मानकर तीन साल की सजा का प्रावधान रखकर उचित पहल की है। फौरन तलाक के दंश से पीड़ित महिलाएं तो इसे उम्र कैद में बदलने की मांग कर रही हैं। सायरा बानो वह पहली महिला थी, जिसने तत्काल तीन तलाक की संवैधानिक वैधता को अदालत में चुनौती दी थी। इसके बाद जकिया हसन और अतिया साबरी जैसी पीड़ित महिलाएं आगे आईं जबकि इस कुप्रथा को बदलने के लिए आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को हस्तक्षेप की जरूरत थी। यही बोर्ड भारत के बहुसंख्यक सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त बोर्ड का दावा और भ्रम तो यह था कि इस 1,400 साल पुरानी मान्यता में दखल देने का अधिकार तो न्यायपालिका को भी नहीं है। इसलिए बोर्ड के आका इस तलाक के प्रबंध पर कुडंली मार कर बैठे हुए थे, जबकि इस कुप्रथा का दंश भोगने वाली स्त्री की जिंदगी परंपरा, आधुनिकता, मजहब और कानून के दांव-पेच में उलझकर रह गई थी। नतीजतन पति देश में हो या परदेश में बैठा हो, तत्काल तलाक उसकी मर्जी का पर्याय बन गया था।
लिहाजा, आजीवन निभाए जाने वाले वैवाहिक संबंध को बोल या लिखकर तोड़े जाने का सिलसिला अनवरत बना हुआ था। फेसबुक, व्हाट्सएप और ईमेल के जरिए भी संबंध तोड़े जा रहे थे। ये संबंध न टूटें, इसके लिए आवश्यक पहल करने की जरूरत तो मुस्लिम बोर्ड, मजहबी नेता, संसद में बैठे मुस्लिम सांसदों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की थी, लेकिन अगुआ बनीं वे महिलाएं, जो कुरान, शरीयत और संविधान की कमोबेश जानकार नहीं थीं। अलबत्ता वे इतना जरूर अनुभव कर रही थीं कि ‘तलाक-ए-बिद्दत’ का प्रावधान उनके मानवाधिकारों के हनन का सबसे बड़ा जरिया बना हुआ है। उन्होंने इसे संवैधानिक चुनौती देने का बीड़ा उठाया और उनके साथ इस लैंगिक अन्याय को दूर करने में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की जकिया सोमन अगुआ बनीं। आखिर में सर्वोच्च न्यायालय और भारत सरकार भी उनकी मंशा और भावना की अनुगामी बनती दिखाई दी, जबकि एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने विधेयक के प्रारूप को मुसलमानों के मौलिक अधिकारों का हनन बताया। ओवैसी संशोधन प्रस्ताव भी लेकर आए, लेकिन उनके प्रस्ताव के पक्ष में महज दो वोट गिरे। इससे पता चलता है कि वे स्वयं मजहबी जड़ता की गिरफ्त में हैं।
मुस्लिम लीग के ईटी मोहम्मद बशीर, बीजद के केबी महताब और अन्नाद्रमुक के ए. अनवर ने भी इस विधेयक का विरोध किया। इन मुस्लिम सांसदों के विरोध से यह स्पष्ट होता है कि अपने क्षेत्र की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले ये सांसद भारतीय संविधान की मूल भावना से कहीं ज्यादा इस्लाम में गहरे पैठ बनाए बैठी जड़ता को महत्व दे रहे हैं। प्रगतिशील और स्त्रीजन्य मानवीय मूल्यों को रेखांकित करने से इनका कोई वास्ता नहीं है। जो लोग इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, मिस्र, मोरक्को, इंडोनेशिया और मलेशिया समेत 22 इस्लामिक देशों में ‘तलाक-ए-बिद्दत’ जैसे अमानवीय कानूनों का अंत बहुत पहले किया जा चुका है।
संसद के भीतर ओवैसी जैसे सांसदों और संसद के बाहर कुछ मौलवी इस कानून को शरीयत में दखल और इस्लाम को खतरे में मान रहे हैं। विदेश राज्यमंत्री एम. जे. अकबर ने संसद में इन गैर-जरूरी सवालों के जबाव देकर लगभग सबके मुंह सिल दिए। कुरान की आयतों का हवाला देते हुए अकबर ने कहा, ‘‘यह पवित्र ग्रंथ कहता है कि मुस्लिम महिलाओं का जो हक है, उन्हें हर हाल में उससे कहीं ज्यादा मिलना चाहिए। यह विधेयक उन नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं के लिए जीवनदायी संजीवनी है, जो फौरन तलाक के खौफ में जी रही हैं। दरअसल, इस कानून से उन लोगों को भी तगड़ा झटका लगा है, जो तलाक के बहाने महिलाओं को हमेशा दहशत और
आतंक के साए में जीते रहने को विवश करते रहते हैं।’’
इस्लाम खतरे में है, कहने वालों पर करारा तंज कसते हुए अकबर ने कहा, ‘‘इस्लाम खतरे में है’’ के नारे को आजादी से पहले देश तोड़ने और अब समाज तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इस्लाम खतरे में नहीं है, बल्कि कुछ लोगों की दुकानदारियां खतरे में हैं।’’
अकबर की इन कुरान-सम्मत दलीलों से साफ हो गया है कि भारत जैसे सेकुलर देश में लोकतांत्रिक गणतंत्र में तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए गैर जरूरी था। इससे उनकी सामाजिक गरिमा और शारीरिक शुचिता का दमन हो रहा था। इस विधेयक के राज्यसभा से पारित होने और फिर राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद न केवल मुस्लिम महिलाओं को कानूनी सुरक्षा-कवच मिलेगा, बल्कि समाज में सम्मान से जीने का अधिकार भी मिलेगा।
(लेखक साहित्यकार और टिप्पणीकार हैं)
पवित्र ग्रंथ (कुरान) कहता है कि मुस्लिम महिलाओं का जो हक है, उन्हें हर हाल में उससे कहीं ज्यादा मिलना चाहिए। यह विधेयक उन नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं के लिए जीवनदायी संजीवनी है, जो फौरन तलाक के खौफ में जी रही हैं। दरअसल, इस कानून से उन लोगों को भी तगड़ा झटका लगा है, जो तलाक के बहाने महिलाओं को हमेशा दहशत और आतंक के साए में जीते रहने को विवश करते रहते हैं।
—एम.जे. अकबर, विदेश राज्यमंत्री
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