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आजादी के 70 साल के दौरान इस देश पर ज्यादातर राज करने वाली सरकारों ने ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा एवं रोजगार जैसे मूलभूत अधिकार उपलब्ध नहीं कराए। भारत को कृषि प्रधान देश तो कहा गया किन्तु किसान का हाल बदतर रहा। मूलभूत अधिकारों से दूर रहने के कारण किसानों का ध्यान कृषि क्षेत्र से हटा। किसान आत्महत्याएं करने लगे। रसायनों ने भूमि को प्रदूषित कर दिया। औद्योगिकीकरण ने ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कर दी तो वर्षा चक्र अनियमित हो गया। रासायनिक खादों के इस्तेमाल के कारण भारत का स्वास्थ्य बिगड़ गया। कुल मिलाकर हमने प्राकृतिक साधनों को छोड़ा, तो प्रकृति ने भी अपना रोष दिखाया। जबकि हमारी परंपरागत अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी। प्रस्तुत है उसी अर्थव्यवस्था के पूरे तानेबाने की केंद्र-बिन्दु परंपरागत कृषि और पशुपालन पर एक रपट
अमित त्यागी
अमेरिका एवं पश्चिम यूरोप के देशों में शहरी जनसंख्या अब गांवों का रुख कर रही है। पर भारत में इसका उलट हो रहा है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फर्म ‘मेकंजी’ की रिपोर्ट के अनुसार 2015-2025 के बीच विकसित देशों के 18 प्रतिशत बड़े शहरों में आबादी प्रतिवर्ष 0.5 प्रतिशत की दर से कम होने जा रही है। पूरी दुनिया में 8 प्रतिशत शहरों में प्रतिवर्ष 1-1.5 प्रतिशत शहरी जनसंख्या के कम होने का रुझान है। भारत की ज्यादातर आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, किन्तु कृषि व्यवस्था के चौपट होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या का पलायन शहरों की तरफ हुआ। शहरीकरण में गोवंश एवं पशुपालन कम हो गया। भारत में यह पलायन निरंतर बढ़ता गया है। यदि पिछले 70 साल के जनसंख्या औसत की तुलना करें तो 1951 में शहरों में रहने वाली जनसंख्या 17.3 प्रतिशत थी। 2011 में यह औसत 31.16 प्रतिशत तक पहुंच गया। यह हमारी नीतियों, उनके अनुपालन में कोताही एवं अधिकारों के जमीनी स्तर पर न पहुंचने का दुष्परिणाम है। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन का यह औसत अब लगभग दुगना होने के कगार पर है।
1932 के बाद जब भारत में पहली बार सामाजिक, आर्थिक जनगणना के आंकड़े आये तब भारत की कुल आबादी की 71 प्रतिशत जनता, जो गांवों में निवास करती है, की दयनीय स्थिति सामने आई। वेतन आयोग की सिफारिशों के द्वारा सरकारी कर्मचारियों की आय जिस अनुपात में बढ़ी, उसी अनुपात में कृषि क्षेत्रों से जुड़े व्यक्तियों की आय नहीं बढ़ी। देश की क्रय शक्ति बढ़ी तो केवल शहरी क्षेत्र में। 45 साल के तुलनात्मक अध्ययन से यह आसानी से समझ आता है। 1970 मे गेंहू की सरकारी खरीद की कीमत 76 रुपये प्रति क्विंटल थी जो 2015 में बढ़कर 1450 रुपये प्रति क्विंटल हो गई। यानी कीमत 19 गुना बढ़ोतरी हुई। इसकी तुलना अगर कर्मचारियों के वेतनमान से करें तो सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान में 110-120 गुना, शिक्षकों के वेतनमान में 300 गुना, डिग्री कॉलेज शिक्षकों के वेतन में 150 गुना तक वृद्धि हुई है। कॉर्पोरेट क्षेत्र के वेतन 1000 गुना तक बढ़े हैं। इस दौरान खर्चे उसी अनुपात में बढ़े जिस अनुपात में वेतन बढ़े। अंतर साफ है कि किसान की कमाई तो 19 गुना हुई और उसके द्वारा किए जाने वाले खर्चे 200 गुना तक बढ़ गए। किसान धीरे-धीरे गरीब होता चला गया। छोटे किसान या तो कर्जदार हो गए या उन्होंने जमीन बेचनी शुरू कर दी। जो किसान बाद मे कर्ज नहीं चुका पाये, उन्होंने आत्महत्या कर ली।
रसायनों से चौपट पशुपालन
भारत में हरित क्रांति की शुरुआत के वक्त रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग के द्वारा उत्पादन बढ़ाया गया था। लेकिन कुछ समय के बाद आभास होने लगा कि जिन रसायनों को हम लाभकारी मान रहे हैं, वे तो जमीन की उर्वरा शक्ति को खत्म कर रहे हैं। इसके बाद कृषि का मशीनीकरण प्रारम्भ हुआ। बैलों के स्थान पर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई प्रारम्भ हो गयी। बैल कम होने का प्रभाव गायों के पालन पर पड़ा। दुग्ध उत्पादन में गाय का स्थान भैंस ने ले लिया। इतिहास को देखें तो गाय, गंगा और गांव भारतीय सभ्यता का आधार रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में गोपालन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर है। किसानों के पास कृषि भूमि कुल भूमि का 30 प्रतिशत है। इसमें 70 प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हैं जिनके पास कुल पशुधन का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। देश का अधिकांश पशुधन, आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के पास है। भारत में लगभग 22 करोड़ गाय, 10 करोड़ भैंस, 14.55 करोड़ बकरी, 8.2 करोड़ भेड़, 2 करोड़ सूअर तथा 68.96 करोड़ मुर्गियों का पालन होता है। भारत 1,218 लाख टन दुग्ध उत्पादन के साथ विश्व में प्रथम, अण्डा उत्पादन में 5,3200 करोड़ अंडों के साथ विश्व में तृतीय तथा मांस उत्पादन में सातवें स्थान पर है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहां हम मात्र 1-2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धिदर प्राप्त कर रहे हैं वहीं पशुपालन से 4-5 प्रतिशत। इसका अर्थ साफ है कि भारत को कृषि प्रधान देश कह कर संबोधित तो किया गया पर वास्तव में भारत पशुपालन प्रधान देश रहा है।
भारत को पशुपालन और कृषि से दूर करके उद्योगीकरण के रास्ते पर लाकर सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का काम पहले अंग्रेजों ने किया, बाद में रासायनिक खाद बेचने वालों ने। इन सबके बीच गोमांस का निर्यात करने वालों की चांदी हो गई। गोवंश के राजनीतिकरण का उद्देश्य भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को चौपट करना भी रहा है।
नफरत के बीज
जब 1700 ई. में अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस वक्त तक यहां गाय और सूअर का वध नहीं किया जाता था। पर अंग्रेज इन दोनों ही पशुओं के मांस का सेवन बड़े चाव से करते हैं। भारत में पहला पशुवधगृह 1707 में रॉबर्ट क्लाइव ने खोला था। उसमें रोज 32 से 35 हजार गायें काटी जाती थीं। 18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गोहत्या होने लगी। यूरोप की ही तर्ज पर अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देशभर में कसाईखाने खोले। जैसे-जैसे भारत में अंग्रेज अधिकारियों की तादाद बढ़ी गोहत्या में भी बढ़ोतरी होती गई। गाय-बैलों का दुर्दांत कत्ल आरम्भ हुआ और गोवंश का मांस, चमड़ा, सींग, हड्डियां आदि बड़े लाभ वाले व्यवसाय बन कर उभरे।
गोवंश का हो संवर्धन
चर्चाओं में गोसंरक्षण की बात तो की जाती है पर यह सिर्फ समस्या का उपचार प्रदान कर रहा है। क्यों न हम ऐसा ढांचा विकसित करें जिसमें गाय हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन जाए। गाय की उपयोगिता के आधार पर एक बिजनेस मॉडल बने और लोग खुद-ब-खुद गोसंरक्षण को मजबूर हो जायें। इसके लिए हमें खेती से गाय को जोड़ना होगा।
गो आधारित जीरो बजट कृषि पर लौटना होगा। पद्मश्री सुभाष पालेकर इस पद्धति के द्वारा वृद्ध और कमजोर गायों को भी उपयोगी बना रहे हैं, रसायन के इस्तेमाल को बंद करके हमारे स्वास्थ्य को बचा रहे हैं। इस कृषि की तरफ बढ़ने से गो संवर्धन होता है। स्थान और वातावरण के अनुसार बकरी, भैंस एवं अन्य पशुओं का पालन भी शुरू हो जाता है। यह सार्वभौमीकरण का भारतीय पक्ष है। इसमें एक बड़ा बाजार एवं रोजगार की संभावनाएं मौजूद हैं। खास बात यह है कि ये रोजगार ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ेंगे और शहरीकरण की समस्या दूर होगी। आज भी बच्चों को विशेष तौर पर गाय का दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। गाय के घी और गोमूत्र के द्वारा आयुर्वेदिक औषधियां बनती हैं। गोबर द्वारा फसलों के लिए उत्तम खाद तैयार होती है।
एक बात तो साफ है। समृद्ध देश का निर्माण बिना पशुपालन को प्रोत्साहित किये नहीं हो सकता। गोवंश के सामयिक पक्ष के साथ अगर परंपरागत पक्ष को जोड़ दिया जाये तो यह वैश्विक अर्थव्यवस्था का आधार बन सकता है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा चरमराया हुआ है। मधुमेह, हृदयघात एवं कैंसर जैसे रोग तो पहले शहरों में ही होते थे, अब भारत के गांवों तक पहुंच चुके हैं। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा के खाते में सार्वजनिक खर्च महज 1.4 प्रतिशत है। किसी गरीब व्यक्ति को बीपीएल कार्ड देने से बेहतर है कि उतना पैसा या तो उसके स्वास्थ्य पर खर्च किया जाए या ऐसा ढांचा विकसित किया जाए जिसमें स्वास्थ्य को ठीक रखा जा सके। गाय आधारित एवं पारंपरिक कृषि मॉडल इन सब समस्याओं का समाधान कर सकता है।
इन समस्याओं के समाधान का बीज अगर कहीं छिपा है तो वह है गाय आधारित जीवन पद्धति। गाय को इसलिए ही देवी कहा गया है, समृद्धि का आधार कहा गया है। इसे अर्थव्यवस्था का केंद्र-बिन्दु बनाया गया था। गाय को सिर्फ पशु मानने की भूल करने वाले शायद उसके वैज्ञानिक, आर्थिक एवं सामाजिक पक्षों से आज तक अनजान हैं।
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