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किताबें और उनकी सामग्री कभी पुरानी नहीं होती। आज भी विभिन्न कालखंडों में प्रकाशित पुस्तकें समसामायिक संदर्भों में सटीक बैठती हैं। नई पीढ़ी के लिए इनमें पाने को बहुत कुछ है, विषय का गांभीर्य भी, भाषा का प्रावीण्य भी। 6 से 14 जनवरी 2018 को आयोजित होने जा रहे 26वें नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर प्रस्तुत है एक विशेष आयोजन
नलिन चौहान
आज के इंटरनेट-गूगल युग में जब विषय सामग्री (कंटेंट) को खोजने की सुविधा सहज हो गई है, वहीं दूसरी ओर पुरानी हो चुकी किताबों में नए संदर्भ झांकने-खंगालने की जरूरत पहले से अधिक हो गई है। यह आवश्यकता भारतीय भाषाओं खासकर हिंदी में लगती है, जहां विभिन्न विधाओं में प्रचुर मात्रा में स्तरीय लेखन हुआ है पर अकादमिक अध्ययन में अंग्रेजी के वर्चस्व और हिंदी में संदर्भ न दिए जाने के दुश्चक्र ने नई पीढ़ी को अपनी भाषा में उपलब्ध खजाने से वंचित ही रखा है। ऐसे में हिंदी समाज के मन से भ्रम मिटने की आशा में प्रस्तुत हैं कुछ पुस्तकों की चर्चा जो स्मरण बोध बन सकें और दोबारा पुराने बीज से नवांकुर निकलने का मार्ग प्रशस्त हो।
वीर विनोद-मेवाड़ का इतिहास, महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास
(जोधपुर ग्रंथागार)
हाल में ही विवादित हिंदी फिल्म पद्मावती के कारण मेवाड़ की महारानी पद्मिनी के व्यक्तित्व में देश भर की रुचि पैदा हुई है। संयोग ही है कि वर्ष 1886 में प्रकाशित इस चार खण्डों वाले महाग्रंथ का वर्ष 2017 में चौथा संस्करण (इससे पहले 1986, 2007) प्रकाशित हुआ है।
मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह ने इस वृहद् ग्रन्थ को कविराजा श्यामलदासजी की सरपरस्ती में लिखवाना तय करते हुए इसके लेखन के लिए एक लाख रु. स्वीकृत किए जबकि यह महाराणा फतह सिंह के शासनकाल में प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ के महत्व का इस बात से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इतिहासकार महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीरानंद ओझा ने अपने ‘उदयपुर का इतिहास’ ग्रंथ का भवन वीर विनोद की बुनियाद पर खड़ा किया और सर्वाधिक पाद टिप्पणियां इसी ग्रन्थ की दीं, लेकिन सर्वत्र इसे अप्रकाशित बताया। इस तरह, ओझा की पुस्तक ने ‘वीर विनोद’ की बड़ी मांग पैदा कर दी थी क्योंकि पाद टिप्पणियों वाले इस ग्रन्थ को हर कोई देखना चाहता था। ओझा जी ने 1928 में यह जरूर स्वीकार किया कि 12 वर्ष तक लिखा गया और एक लाख रु. के व्यय से यह वृहद् इतिहास कई हजार पृष्ठों में समाप्त हुआ है।
वीर विनोद के प्रथम भाग में भूगोल, राजपूताना-मेवाड़ के भूगोल और इतिहास, जातियों का वर्णन, दूसरे भाग में मध्यकालीन मेवाड़ का इतिहास व उसका महत्व, तृतीय भाग में उत्तर मध्यकालीन मेवाड़ का विवरण और चतुर्थ भाग में महाराणा प्रताप से सज्जन सिंह तक का विवरण और उसकी महत्ता का वर्णन किया गया है। इस विस्तृत ग्रन्थ में मेवाड़ के राजवंश और उससे जुड़ी अनेक रियासतों का विवरण इतिहास समुच्चय की मूलभूत विशेषता है तथा इसकी भाषा मौलिक और प्रभावी है।
संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर (लोकभारती प्रकाशन)
इस पुस्तक में दिनकर जी ने भारतीय जनता की रचना से लेकर बुद्ध से पहले के हिन्दुत्व, जैन, बौद्ध और वैदिक मत के उद्भव और उनकी सामाजिक प्रासंगिकता को समेटा है। खास बात यह है कि पुस्तक में भारत में इस्लाम, मुस्लिम आक्रमण, हिंदू-मुस्लिम संबंध, हिंदुत्व पर प्रभाव, भक्ति आंदोलन और इस्लाम और अंतत: अमृत और हलाहल संघर्ष शीर्षक पाठों के तहत सात अध्यायों में हिंदू और इस्लाम के टकराव से लेकर विमर्श को सहेजा है। उदाहरण के लिए दिनकर ने पाकिस्तान के कौमी शायर अल्लामा इकबाल के तराना-ए-हिंदी से तराना-ए-मिल्ली तक के सफर को रेखांकित करते हुए लिखा है कि इकबाल की कविताओं से आरम्भ में, भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था, किन्तु, आगे चलकर उन्होंने बहुत-सी ऐसी चीजें भी लिखीं जिनसे हमारी एकता को आघात पहुंचा। जैसे यह बात कम लोग जानते हैं कि ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ तराना लिखने वाले इकबाल ने बाद में लिखा-
चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा,
मुस्लिम हैं हम वतन के, सारा जहां हमारा।
तोहीद की अमानत, सीनों में है हमारे,
आसां नहीं मिटाना, नामों-निशान हमारा।
इतना ही नहीं, वे लिखते हैं कि हम वैदिक काव्य तथा रामायण और महाभारत को बहुत ऊंचा पाते हैं, क्योंकि इन कविताओं में पारदर्शिता बहुत अधिक है और उनके भीतर से जीवन की बहुत बड़ी गहराई साफ दिखाई पड़ती है। इसके सिवा, उनसे यह भी ज्ञात होता है कि जिस युग में ये काव्य रचे गए, उस युग में यह देश समाज-संगठन के आदर्शों को लेकर और अगोचर सत्यों का पता लगाने के लिए भयानक संघर्ष कर रहा था।
भारतीय संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि, देवेन्द्र स्वरूप (समाजनीति समीक्षण केंद्र)
राष्ट्रवादी इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप के भारतीय संविधान के पूर्व-उत्तर काल पर आधारित कुल 17 व्याख्यानों में 18वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 20वीं शती के मध्य तक के कालखंड के भारतीय इतिहास का विशद् वर्णन है। यह पुस्तक अंग्रेजों की फैलाई अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियों और दुष्प्रचार का शमन करती है, जैसे अंग्रेजों को दक्षिण में फ्रांसीसियों द्वारा थोपे गये युद्धों के कारण ही भारतीय राजनीति में उलझना पड़ा, कोरा झूठ है। इसी तरह अंग्रेजों के मुगलों का उत्तराधिकारी होने की बात भी झूठ है क्योंकि भारत के प्राय: सब भागों में अंग्रेजों के प्रतिद्वंद्वी स्थानीय देशज राजा एवं मराठे ही थे। यह बात साफ है कि 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में मराठों के पतन के बाद ही अंग्रेज भारत पर हावी हो पाये और इस प्रकार उन्होंने भारत का साम्राज्य मुगलों से नहीं, अपितु मराठों से प्राप्त किया था। पुस्तक बताती है कि मराठों के पतन के बाद भारत में अपने एकछत्र राज्य को स्थापित करने के लिए अंग्रेज उच्च वर्ग ने भारतीय सभ्यता एवं इतिहास और भारतीयों के चरित्र का एक अत्यंत नकारात्मक बौद्धिक चित्र प्रस्तुत करना शुरू किया। इसी क्रम में एक सुनियोजित प्रयास बड़े स्तर पर भारतीयों को कन्वर्ट कर उन्हें ईसाई बनाने का भी था। इन प्रयासों की परिणति 1857 के विस्फोट में हुई। पुस्तक बताती है कि किस तरह पढ़े- लिखे भारतीयों के दबाव में महात्मा गांधी को संसदीय स्वराज का अपना तात्कालिक उद्देश्य बताना पड़ा और कैसे अंग्रेज निरंतर मुसलमानों और दलित वर्ग का उपयोग गांधीजी के रास्ते में अवरोध खड़ा करने के लिए करते रहे। दलितों पर गांधीजी का प्रभाव इतना गहरा था कि अंग्रेजों के उस प्रयास को वे बहुत सीमा तक कुंठित कर पाये। कुल मिलाकर यह पुस्तक बताती है कि दीर्घकाल तक स्वदेशी और स्वराज्य के आदर्शों के लिए संघर्षरत रहने के पश्चात भी भारत को अंग्रेजी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना पड़ा।
आज भी खरे हैं तालाब, अनुपम मिश्र
(गांधी प्रतिष्ठान)
पिछले दो दशक में देश में सर्वाधिक पढ़ी गई पुस्तकों में से एक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ बिना कॉपीराइट वाली अकेली ऐसी पुस्तक है, जिसे इसके मूल प्रकाशक से अधिक अन्य प्रकाशकों ने अलग-अलग भारतीय भाषाओं और फ्रांसीसी भाषा में दो लाख से अधिक प्रतियों को छापा है। जनसत्ता के संस्थापक-संपादक और अनुपम मिश्र को पत्रकारिता में लाने वाले प्रभाष जोशी के शब्दों में, अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है। सम्मान से समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है। कोई भारतीय ही तालाबों के बारे में ऐसी किताब लिख सकता है।
यह पुस्तक दिल्ली के महानगरीय समाज के निरंतर चुकते पानी और राजधानी की समृद्व जल परंपरा वाली विरासत के छीजने की चिंता की साक्षी भी है। अंग्रेजी राज में अनमोल पानी का मोल लगने की बात पर पुस्तक बताती है कि इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ-हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।
यह अनायास नहीं है कि जल जैसे नीरस विषय पर सरस भाषा में ‘आज भी खरे हैं तालाब’ नामक पुस्तक लिखने वाले अनुपम मिश्र जिस तरह ‘हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख’ पंक्ति के रचयिता भवानी प्रसाद मिश्र की कुल पंरपरा से थे। यह पुस्तक देश के हिंदी समाज की पानी की ही नहीं बल्कि भाषा की भी चिंता को भी रेखांकित करती है। प्रकृति और पानी के प्रति यह ममत्व उनकी दूसरी पुस्तकों ‘हमारा पर्यावरण’ और ‘राजस्थान की रजत कण बूंदें’ शीर्षक वाली पुस्तकों में भी परिलक्षित होता है। आज ये पुस्तकें जल संरक्षण के देशज ज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर हैं।
भारतीय कला, वासुदेवशरण अग्रवाल (पृथ्वी प्रकाशन)
इस पुस्तक में लेखक ने भारतीय कला और वास्तु पर तत्कालीन प्रचलित वर्णनात्मक ग्रंथों से इतर कला के अर्थों पर विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने स्थापत्य और वास्तु को संयुक्त अध्ययन करते हुए अवशेषों को बाह्य वर्णन तक न सीमित रखते हुए उनके भीतरी अर्थ पर आवश्यक विचार किया है, जिनके परिणामस्वरूप ये कला-कृतियां अस्तित्व में आर्इं। पुस्तक में संस्कृत, पालि, प्राकृत भाषाओं की मूल शब्दावली का उपयोग करते हुए वास्तु और स्थापत्य के नामों, कला संबंधी अभिप्रायों और अलंकरणों के विकास को खोजने का प्रयास किया गया है। इतना ही नहीं, कला की साहित्यिक पृष्ठभूमि की खोज के क्रम में कला और साहित्य के अंतर्संबंध को भी रेखांकित किया गया है। पुस्तक में प्रत्येक युग, प्राग ऐतिहासिक युग, सिन्धु घाटी, वैदिक काल, महाजनपद युग, मौर्य-शुंगकाल से संबंधित विशेष कलाओं की ओर ध्यान देते हुए भारतीय कला के विकास-क्रम की समीक्षा की गई है। कुषाण कला, गांधार कला, सातवाहन युगीन स्तूप, भारतीय मिट्टी के खिलौने सहित संस्कृत युग में प्रतीक और मूर्तियों का गहन रूप से विश्लेषण किया गया है।
हिंदी की शब्द सम्पदा, विद्यानिवास मिश्र (राजकमल प्रकाशन)
आज जब हिंदी समाज के सार्वजनिक जीवन में अध्यापन से लेकर मीडिया तक में हिंदी भाषा के प्रयोग के स्वरूप और उपादेयता पर सहज संकट पसरा है, ऐसे में विविध व्यवहार क्षेत्रों में हिंदी की अभिव्यक्त क्षमता की एक मनमौजी पैमाइश वाली ललित निबन्ध शैली में लिखी गई भाषा विज्ञान की इस किताब की महत्ता और बढ़ जाती है। ‘दिनमान’ में किश्तवार छपे ये लेख पुस्तक के रूप में 12 अध्यायों में जजमानी की सामाजिकता से लेकर पर्व-त्योहार और मेलों के लोकपक्ष, राजगीर और संगतराश से लेकर वनौषधि तथा कारखानों की आर्थिकी को रेखांकित करते हैं। पानी से लेकर चारों दिशाओं तक, पशुओं से लेकर मानव शरीर तक, विवाह के सात बंधन से लेकर राम रसोई-घर द्वार तक जीवन का शायद कोई कोना ही इससे अछूता रहा है।
एक आत्मकथा, मोहित सेन (नेशनल बुक ट्रस्ट)
मशहूर कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन ने अपनी आत्मकथा में बहुत आश्चर्य और दुख के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन पाकिस्तान-समर्थक नीतियों की भर्त्सना की है। वे लिखते हैं ‘‘यहां यह कह देना जरूरी है कि उन दिनों किसी कम्युनिस्ट नेता ने हमारी युवा मानसिकता को स्वयं भारत की महान परंपराओं और बौद्धिक योगदान की ओर ध्यान नहीं दिलाया जो हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन और मार्क्सवाद के विकास के लिए इतना उपयोगी सिद्ध हो सकता था, हम कम्युनिस्ट अधिक थे भारतीय कम।’’
प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा के शब्दों में, मोहित सेन की पुस्तक यदि इतनी असाधारण और विशिष्ट जान पड़ती है, तो इसलिए कि उन्होने बिना किसी कर्कश कटुता के, बिना किसी लाग-लपेट के भी अपनी पार्टी के विगत के काले पन्नों को खोलने का ‘दुस्साहस’ किया है, जिसे यदि कोई और करता, तो मुझे संदेह नहीं, पार्टी उसे साम्राज्यवादी प्रोपेगेण्डा कह कर अपनी आंखों पर पट्टी बांधे रखना ज्यादा सुविधाजनक समझती। यह वही पार्टी है, जो मार्क्स की ‘क्रिटिकल’ चेतना को बरसों से छद्म चेतना में परिणत करने के हस्तकौशल में इतनी दक्ष हो चुकी है, कि आज स्वयं उसके लिए छद्म को असली से अलग करना असंभव हो गया है। मालूम नहीं, अपने सेकुलर होने की दुहाई देने वाली दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां आज अपने विगत इतिहास के इस अंधेरे अध्याय के बारे में क्या सोचती हैं, किन्तु जो बात निश्चित रूप से कही जा सकती है, वह यह कि आज भी वे अपने अतीत की इन अक्षम्य, देशद्रोही नीतियों का आकलन करने से कतराती हैं।
बहरहाल, गूगल और अमेजन पर किताबों का भंडार अपार है किंतु पुस्तक प्रेमियों की भूख इससे भी बड़ी है। यह ‘बड़ी भूख’ हमने कुछ पुरानी पुस्तकों का जिक्र कर जरा और बढ़ा दी है। इसलिए इंटरनेट पर भले तलाशिए किंतु वहां ये और ऐसी किताबें न मिलें तो अपने शहर-कस्बे की ‘खास’ दुकानें खटखटाते रहिए। इस तलाश और खटखटाहट से ही विचार के नए अंखुए फूटने हैं। ल्ल
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