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न कोई निमंत्रण, न कोई साधन, लेकिन कुंभ मेले में आने वालों का सिलसिला थमता नहीं। केवल एक डुबकी लगाकर श्रद्धालु नई ऊर्जा से भर जाते हैं। श्रद्धालुओं की इस अपार आस्था को देखते हुए यूनेस्को ने कुंभ मेले को अमूर्त विश्व धरोहर का दर्जा दिया
पूनम नेगी
सनातन धर्म में कुंभ यानी कलश को पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। हमारे मनीषियों ने ‘पूर्णता’ मानव जीवन का परम लक्ष्य को माना है। हमारे यहां इसे ‘मोक्ष’ की संज्ञा दी गई है। मानव जीवन के इस चरम लक्ष्य की प्राप्ति के विभिन्न उपायों में एक सर्वसुलभ उपाय कुंभ स्नान है। कहा जाता है कि कुंभ के अमृत रूपी जल के स्पर्श मात्र से मनुष्य के जन्म-जन्मांतरों के पाप कट जाते हैं, यही आस्था हम सनातनधर्मियों की सबसे बड़ी शक्ति है। इसी प्रगाढ़ आस्था के बूते लाखों-करोड़ों श्रद्धालु अमृत की चाह में बिना किसी निमंत्रण के इस मोक्ष मेले में सहज ही खिंचे चले आते हैं।
योग के उपरांत हमारे इस मोक्ष स्नान मेले को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर सूची में स्थान मिलने से हम भारतीयों का सिर दुनियाभर में एक बार फिर ऊंचा हो गया है। देश के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों— हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रति 12 और छह वर्ष के अंतराल पर लगने वाले महाकुंभ और अर्द्धकुंभ मेलों ने देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसका बोध राष्टÑपिता महात्मा गांधी के उस विचार से होता है जो उन्होंने एक पत्र के जरिए व्यक्त किया था। देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरु को लिखे एक पत्र में हरिद्वार के कुंभ पर्व का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा था, ‘‘मैं यात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गया था। तीर्थ क्षेत्र में पवित्रता की शोध में भटकने का मोह भी मुझे कभी नहीं रहा किन्तु वहां स्नान को जुटे 17,00000 लोगों को देखना मुझे काफी विस्मयकारी लगा। इतनी बड़ी संख्या में जुटे ये लोग पाखंडी नहीं हो सकते। इस तरह की श्रद्धा आत्मा को किस ऊंचाई तक उठाती होगी, यह वाकई एक विचार योग्य विषय है।’’
इस मेले का पौराणिक कथानक भले ही अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों के पारस्परिक युद्ध के दौरान धरती पर अमृत की बूंदें गिरने से जुड़ा हो, परंतु इसका आध्यात्मिक और वैज्ञानिक आधार भी कम मजबूत नहीं है। हमारे ऋषि-मनीषियों के चिंतन का वैज्ञानिक पहलू बेहद सशक्त था। उन्होंने अपनी गणनाओं में पाया कि प्रति 12 वर्ष के अंतराल पर विशिष्ट ग्रहीय स्थितियों के कारण विद्युत चुंबकीय तरंगों की गति जब अपने चरम पर होती है तो विषुवत रेखाओं के निकटवर्ती क्षेत्रों की नदियों के जल में विशिष्ट ऊर्जा की सघनता होती है और विशिष्ट मुहूर्त में ऐसे जल में स्नान करने से मनुष्य का शरीर और ऊर्जा वलय दोनों पवित्र हो जाते हैं। वैदिक चिंतन में 12 वर्ष का एक युग भी माना गया है। अत: कुंभ मेला युगांत में घटित होकर एक नए युग का सूत्रपात करता है। इसी क्रम में यदि ज्योतिर्विदों की मानें तो इस मेले का सीधा संबंध खगोल शास्त्र की गणनाओं के अनुसार सौरमंडल की गति से है। कुंभ कारक ग्रहों में तीन प्रधान ग्रह हैं— बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा। इन विशिष्ट ग्रहों के विशेष राशियों पर पहुंचने पर बने खगोलीय संयोगों के कारण प्रत्येक 12 और छह वर्ष के अंतराल पर कुंभ मेले का आयोजन होता है।
इस मोक्षदायी स्नान से जुड़ा पौराणिक आख्यान भी खासा रोचक है। कथा है कि एक बार ऋषि दुर्वासा ने अपने अपमान से आहत होकर सत्तामद में चूर देवराज इंद्र को उनकी शक्तियां नष्ट हो जाने का शाप दे दिया। इसका लाभ उठाकर दानवों ने इंद्रपुरी पर अधिकार कर लिया। देवराज को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने ऋषि से क्षमा मांगी। उनके कहने पर वे अपनी शक्ति और राज्य पुन: हासिल करने के लिए त्रिलोकपति श्रीहरि विष्णु के पास गए। समस्या निवारण के लिए समुद्र मंथन किया गया। वह कथा सब जानते हैं। सागर मंथन से निकले 14 रत्नों में एक अमृत कुंभ भी था। तब इंद्र आदि देवों ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि कोई ऐसी युक्ति करें जिससे यह अमृत दानवों तक न पहुंच सके।
इस पर भगवान विष्णु के कहने पर उनके वाहन गरुड़, इंद्र के पुत्र जयंत के साथ उस अमृत कुंभ को लेकर आकाश में ले उड़े, मगर दानवों से यह छिपा न रह सका और गुरु शुक्राचार्य के नेतृत्व में उन पर हमला बोल दिया। आकाश में हुए उस युद्ध के दौरान अमृतकलश से कुछ बूंदें छलक कर पृथ्वी के जिन चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक) पर जा गिरीं, कालांतर में वे स्थान कुंभ तीर्थ के रूप में लोकविख्यात हो गए। तार्किक दृष्टि से विचार करें तो हमारे गुरुओं और योगियों ने पृथ्वी पर ऐसी जगहों को तय किया था जहां इंसान पर किसी खास घटना का जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। अगर किसी खास दिन कोई इंसान वहां रहता है तो उसके लिए दुर्लभ संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। इसीलिए ये कुंभ मेले देश की उन कुछ खास जगहों पर आयोजित किए जाते हैं, जहां पर पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमकर एक अपकेंद्रिय बल यानी केंद्र से बाहर की ओर फैलने वाली ऊर्जा पैदा करती है।
गायत्री विद्या के महामनीषी तथा वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य इस पौराणिक पर्व का आध्यात्मिक विश्लेषण करते हुए लिखते हैं, ‘‘मानव जीवन अपने आप में एक सागर मंथन है। मनुष्य की सुरासुर प्रवृत्तियों के मध्य सदैव संघर्ष चला करता है और अंत में जो सद्विचार रूपी तत्व ज्ञान प्रकट होता है, वहीं अमृत होता है। सदाचार के प्रेरक देव गुरु बृहस्पति इसके निर्देशक हैं और कालचक्र के नियामक सूर्य-चंद्र इसके संरक्षक ताकि सद्वृत्तियां ही इस अमृत को ग्रहण कर सकें। पांच ज्ञानेद्रिंयां, पांच कर्मेद्रिंयां तथा मन और बुद्धि ये सब मिलकर 12 होते हैं। ज्ञानेद्रियों और कर्मेंद्रियों के नियंता सूर्य, मन का नियंता चंद्रमा और बुद्धि का नियंता गुरु होता है। इसी कारण कुंभ पर्व का अंतराल भी 12 वर्ष का होता है।’’
चाहे हरिद्वार हो, चाहे प्रयाग, उज्जैन या नासिक, जहां भी कुंभ पर्व का आयोजन होता है, वहां एक लघु भारत बस जाता है। जाति, भाषा, प्रांत और मत-मतांतरों को भुलाकर लोग अनेकता में एकता का जो प्रमाण इस मौके पर प्रस्तुत करते हैं, वह दुनिया के इतिहास में बेमिसाल है।
वृंदावन, काशी और दक्षिण भारत में भी कुंभ
कुंभ स्थल के लिए निर्धारित चार स्थानों के अतिरिक्त वृंदावन में यमुना नदी के तट पर भी कुंभ स्नान की परंपरा है। हरिद्वार कुंभ से पूर्व वैरागी संत एक माह तक यमुना तट पर निवास कर तीर्थ स्नान करते हैं तथा रंगभरी एकादशी को वृंदावन की परिक्रमा करके हरिद्वार रवाना होते हैं।
काशी में भी कुंभ स्नान के पौराणिक उल्लेख मिलते हैं। मान्यता है कि कुंभ स्नान करने वाले समस्त प्राणियों के पापों का प्रक्षालन काशी में ही होता है। कुंभ स्नान में नागा संन्यासी इस परंपरा को पूर्ण रूप से मानते हैं। वे कुंभ स्नान करके गंगा स्नान करते हैं तथा जुलूस निकाल कर शिवरात्रि को बाबा विश्वनाथ का दर्शन और पूजन करने के बाद यहां से दूसरे कुंभ स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। दक्षिण भारत में भी कुंभ स्नान की परंपरा है। प्रत्येक 12 वर्ष के अंतराल पर कुंभ राशि में गुरु के प्रवेश करने पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु कुंभ-कोणम सरोवर में स्नान करते हैं।
इतिहास के आइने में कुंभ की तस्वीर
कुंभ मेले का प्राचीनतम उपलब्ध और लिखित वर्णन सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसे चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान लिखा था। इस दस्तावेज के मुताबिक 1,404 वर्ष पूर्व ह्वेनसांग ने प्रयाग कुंभ का अवलोकन किया था। ह्वेनसांग ने लिखा, ‘‘वे तीन सप्ताह तक कुंभ मेले में घूमते और संतों-महात्माओं तथा योगियों के दर्शन करते रहे। प्रयाग में कुंभ मेला कड़कड़ाती ठंड में लगा था। गंगा और यमुना नदी के तटों के दोनों ओर मीलों-मील तक तंबुओं के नगर बसे हुए थे। सूर्योदय से पूर्व भीषण कड़कड़ाती ठंड में एक साथ हजारों स्त्री-पुरुषों को बर्फ जैसे ठंडे जल में नहाते देख हिंदुओं की अपने धर्म और परंपरा के प्रति दृढ़ निष्ठा से आश्चर्यचकित रह गया। इस मेले मे लगे शिविरों में ऐसे अनेक धर्मगुरु देखे जो अपने शिष्यों को पुराण, उपनिषद् आदि धर्मग्रंथों की कथाएं सुना रहे थे। अनेक शिविरों में आग में घी तथा अन्य वस्तुएं डालकर मंत्र पढ़ते हुए यज्ञ किया जा रहा था।’’ अंग्रेजी इतिहासकार विंसेंट पर्ल ने भी अपनी पुस्तक ‘रिलीजियस हिस्ट्री आॅफ इंडिया’ में उज्जैन कुंभ में एक हठयोगी के आंखों देखे चमत्कार का वर्णन करते हुए लिखा है, ‘‘उस नागा साधु ने जादूगर की तरह अपने पतले शरीर को सबके सामने फुलाकर कई गुना कर डाला, फिर तीन इंच मोटी लोहे की सलाख को गले से लगाकर उसे मोड़ दिया। इस मेले में मुख्यत: किसान, मजदूर, दुकानदार तथा व्यापारी और भी तरह-तरह के लोग थे, जो वास्तव में पूरे हिंदुस्तान का एक सुंदर नमूना प्रस्तुत करते थे। वास्तव में यह एक समग्र भारत था।’’
कुंभ मेला और हारवर्ड का शोध
हारवर्ड विश्वविद्यालय की फैकल्टी आॅफ आर्ट एंड साइंस (एफएएस), स्कूल आॅफ डिजाइन, हारवर्ड बिजनेस स्कूल, स्कूल आॅफ पब्लिक हेल्थ, हारवर्ड मेडिकल स्कूल, हारवर्ड डिविनिटी स्कूल एवं हारवर्ड ग्लोबल हेल्थ इंस्टीट्यूट के दल द्वारा ‘मैपिंग इंडियाज कुंभ मेला’ के तहत किए गए एक अध्ययन में दुनिया के इस सबसे बड़े मानवीय समागम के बारे में कई रोचक तथ्य उजागर हुए हैं। दल के एक सदस्य लोगान प्लास्टर का कहना है, ‘‘पृथ्वी पर इतने बड़े पैमाने का एक मानवीय समारोह कैसे आयोजित हो सकता है, यह देखना वाकई एक कौतूहल का विषय है। इस मेले के विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर गौर करने पर कई अनूठी और दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं।’’ कुंभ के व्यापारिक पहलुओं पर अध्ययन करने वाली हारवर्ड बिजनेस स्कूल की टीम ने यहां जुटने वाली भीड़ पर हैरानी जताते हुए कहा है, ‘‘मेले के दौरान लाखों-करोड़ों का जो विशाल जन समूह दिखता है, अगर उसे जन समुद्र का नाम दिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कुंभ मेला केवल एक मेला ही नहीं, वरन विभिन्न भाषाओं, संस्कृति और क्षेत्रों से आने वाले लोगों के मिलन केंद्र के रूप में वाकई मानवता का अनंत प्रवाह है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि जितने लोग इस मेले में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं, वह संख्या कई देशों की सकल जनसंख्या से भी ऊपर है।’’ टीम के अनुसार ‘‘अस्थायी तौर पर ही सही इतनी विशाल जनसंख्या के कारण महाकुंभ के दौरान वह स्थल दुनिया का सबसे बड़ा शहर बन जाता है। भारत के बारे में जानने के लिए कुंभ आयोजन से बेहतर समय नहीं हो सकता। अध्ययन के दौरान यह प्रश्न हर किसी के दिमाग में कौंधता रहा कि इन कल्पवासियों के आवासीय प्रबंधन के साथ उनको रोजमर्रा की सुविधाएं किस तरह से उपलब्ध करवाई जाती होंगी! बहुत लोग सोचते हैं कि इतनी भीड़ की वजह से कितना जल, वायु, ध्वनि और मृदा प्रदूषण हुआ होगा! प्रश्न यह भी किया जा सकता है कि इतनी भीड़ में किसी को आध्यात्मिक शांति कैसे प्राप्त हो सकती है? लेकिन इस शोध के मुताबिक अगर आप विशाल जन समूहों के साथ कुछ दिन बिताते हैं तो आप समूह का हिस्सा बनने से पहले जितने खुश थे, समूह के साथ कुछ दिन बिताने के बाद आप मानसिक रूप से पहले से ज्यादा सुखी और प्रसन्न होते हैं।’’ विभिन्न परीक्षणों के बाद स्टीफन रेइकर और उनकी मंडली ने निष्कर्ष निकाला है, ‘‘कल्पवासियों की मानसिक प्रसन्नता का स्तर गैर कल्पवासियों के स्तर से काफी ऊंचा था। नि:संदेह यह शोध ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भारतीय अवधारणा को सही साबित करता है, जो यह कहती है कि मनुष्य की प्रसन्नता और खुशियां सिर्फ खुद पर ही नहीं, बल्कि आपके वृहत्त परिवार और आस-पास रहने वाले लोगों पर भी निर्भर करती हैं।’’ इस समूह ने मेले में कई दिन बिताए और इस दौरान न सिर्फ कई अद्भुत धार्मिक अनुभव प्राप्त किए, बल्कि मेले में उपस्थित शहरीकरण योजना, जन स्वास्थ्य सेवा, सरकारी तंत्र, सुरक्षा और व्यापार आदि विषयों का भी गहन अध्ययन किया।
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