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कांग्रेस-इस्लामवादी गठजोड़ :कांग्रेस की समाज-बांटो नीति

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Dec 18, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Dec 2017 11:11:10

भारत का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि खुद को सत्ता में लाने के लिए कांग्रेस किस हद तक जाकर देश-विरोधियों के साथ हाथ मिलाती रही है। गुजरात चुनाव में खुद को ‘दलित नेता’ बताने वाले जिग्नेश मेवाणी को इस्लामी आतंकियों  से पैसा दिलाकर गुजरात में समाज बांटने की कांग्रेसी चाल का हुआ पर्दाफाश

ज्ञानेन्द्र बरतरिया
आप किसके लिए काम करते हैं? साधारण सा उत्तर है-जो आपको वेतन देता है या किसी और तरह का भुगतान करता है। और गुजरात में कांग्रेस समर्थित कथित ‘दलित एक्टिविस्ट’ जिग्नेश मेवाणी को भुगतान कौन करता है? उत्तर है-इस्लामी आतंकवादी संगठन पीएफआई की राजनीतिक शाखा और अरुंधति रॉय। बाकी लोग भी होंगे, या हो सकते हैं।
सवाल फिर उठता है-कांग्रेस और जिग्नेश मेवाणी किसके लिए काम करते हैं? इस्लामी आतंकवादी संगठनों के लिए, या उनकी राजनीतिक शाखा के लिए, जो सेकुलरवाद और उदारवाद की छत्रछाया में पनपने का ढोंग करती है? और जाकिर नाइक का एनजीओ किसे भुगतान करता है? कांग्रेस को, कांग्रेस के लिए, कांग्रेस के मांगने पर। पूरे 75 लाख रुपए।
इनमें से कोई बात छिपी नहीं रह गई है। पीएफआई या पॉपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया केरल का एक इस्लामी संगठन है, जिसके आतंकवादी संबंधों पर एनआईए अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंप चुकी है। और मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक एनआईए ने पीएफआई को आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त माना है, जिनमें आतंकवादी शिविर चलाना और बम बनाना शामिल है। एनआईए ने पीएफआई को आतंकवादी संगठन घोषित करके प्रतिबंधित किए जाने की सिफारिश की है।
आतंकवादी संगठनों को प्रतिबंधित तो पाकिस्तान भी कर लेता है, लेकिन जरा आराम से। तरीका यह होता है कि प्रतिबंधित किया जाने वाला आतंकवादी संगठन फौरन अपना नाम बदल लेता है। बहरहाल, यहां पीएफआई की एक राजनीतिक शाखा है, दूसरे नाम से-सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी आॅफ इंडिया या एसडीपीआई। तुम कितने संगठन  प्रतिबंधित करोगे?
अब यह एसडीपीआई खुले तौर पर जिग्नेश मेवाणी को चेक से भुगतान करती है। एसडीपीआई के एक पदाधिकारी ने मीडिया से कैमरे पर कहा-‘‘हम मेवाणी को पूरा समर्थन दे रहे हैं। हम हर उस पार्टी को समर्थन देंगे, जो साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ती है।’’ माने यह कि इस्लामी आतंकवादी संगठन और कथित उदारवादी लोग हर उस व्यक्ति (और पार्टी) का समर्थन करना चाहते हैं, जो गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध हो। क्यों? क्या इसलिए, जिससे वे अपना इस्लामिस्ट एजेंडा आगे बढ़ा सकें?
आइए, इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करें। ‘साम्प्रदायिक शक्तियों’ से लड़ने का सच क्या है? पहले बात जिग्नेश मेवाणी की। यह शख्स गुजरात के उना की उस घटना का विरोध करने के नाम पर चर्चा में आया था, जिसमें एक मृत गाय की खाल उतारने के लिए ले जा रहे सात दलित लोगों को कथित ‘गो रक्षकों’ की भीड़ ने पीट दिया था। आगे बात करने से पहले इसके भी तथ्य सारे सामने रखते चलें। गाय घायल होकर मरी थी। (जिसके बारे में बाद में फोरेंसिक जांच में पता चला था कि उसे गिर के किसी शेर ने मारा था) इस मामले में 43 लोगों गिरफ्तारी हुई। देश भर के मीडिया ने इस घटना को उठाया और मार्क्सवादी जिग्नेश मेवाणी यहां से दलित नेता बन गया। वह इसके पहले जेएनयू में भी नेतागीरी कर चुका है और आम आदमी पार्टी का प्रवक्ता भी रह   चुका है।
तो उस गाय को गिर के किसी शेर ने मारा था, और आम लोगों के पास एक घायल होकर मरने वाली गाय की फोरेंसिक जांच करने की क्षमता न होती है, न होने की अपेक्षा की जानी चाहिए। लेकिन इस घटना ने कथित ‘गोक्षक दलों’ द्वारा कानून को अपने हाथ में लेने के मुद्दे को सामने ला दिया। इसकी भारी आलोचना हुई। होनी स्वाभाविक थी। आखिर कानून हाथ में लिया गया था और मामले को जातिगत मोड़ भी दे दिया गया था और मीडिया के अफसानों की संवेदनशीलता में जाति बहुत प्रिय विषय भी होती है। मीडिया के लिए कोई भी ‘अपराध’, ‘जाति’ के खांचे में फिट होते ही पाप या पुण्य हो सकता है।  
लेकिन आलोचना करने वाले ठीक वही लोग थे, स्वयंभू सेकुलर और उदारवादी, जो उस समय बिल्कुल चुप्पी साधे रहते थे, जब गायों के तस्कर न केवल कानून तोड़ते थे, बल्कि आम नागरिकों को, राह में आने की कोशिश करने वाले ग्रामीणों को, बच्चों को, महिलाओं को पुलिस वालों को मनमर्जी जान से मार देते थे, उन पर गोलियां बरसाते थे, उन्हें ट्रकों से कुचलते थे। पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले में तो गायों की तस्करी रोकने की कोशिश करने पर सीमा सुरक्षा बल के जवान को भी मौत के घाट उतार दिया गया था। इस तरह की घटनाएं खुद दिल्ली तक में घटी हैं, जहां पुलिस पर ही हमला कर दिया गया था। इस तरह की घटनाओं के ढेरों सबूत और मीडिया में प्रकाशित समाचार मौजूद हैं, जिनका उल्लेख करना या उनकी सूची प्रकाशित करना यहां संभव नहीं है। कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी तक और जिग्नेश मेवाणियों तक तमाम स्वयंभू सेकुलरों और उदारवादियों को उस समय कोई परेशानी नहीं होती थी। उनकी चुप्पी, उनकी सरकारें गायों के तस्करों का बचाव और संरक्षण करती रह जाती थीं। क्यों? क्या इसलिए कि गायों के तस्कर परिभाषा से ही ‘पंथनिरपेक्ष’ होते हैं? और गायों की तस्करी का अर्थ ही ‘पंथनिरपेक्षता’ होता है?
तमाम स्वयंभू सेकुलरों और उदारवादियों के सच का एक पहलू यह है। इस पहलू की कई और पते हैं। जैसे, इशरत जहां के लश्करे तोयबा से संबंधों के बारे में पी. चिदम्बरम के गृह मंत्रालय द्वारा शपथ पत्र बदला जाना। यह भी खालिस सेकुलरवाद था। ऐसे उदाहरणों की भी कोई कमी नहीं है, जिनमें न केवल सेकुलरवाद को एकपक्षीय करने की कोशिश की गई, बल्कि आतंकवादियों तक का पोषण-संरक्षण सरकारी और राजनीतिक स्तरों पर उसी अंदाज में किया गया, जैसे रोजमर्रा का तुष्टीकरण होता रहता है।
जिग्नेश मेवाणी दूसरा पहलू है, जो अपने आपमें कई पहलुओं को समेटे हुए है। चाहे आप स्वयं को ‘पंथनिरपेक्ष’ कहते हों, उदारवादी कहते हों, मार्क्सवादी कहते हों, समाजवादी कहते हों, आम आदमी कहते हों, जातिवादी-भाषावादी-प्रांतवादी कहते हों या कोई भी वादी कहते हों- सवाल एक ही है- आपका एजेंडा क्या है? इन बहुत ऊंचे नजर आने वाले आदर्शों के नीचे पलने वाली राजनीति का अंतिम उद्देश्य क्या होता है? इस दौर में अरविंद केजरीवाल किस्म के उदाहरण ने इसका बहुत साफ तौर पर जवाब दे दिया है, अतीत में भी कई दे चुके हैं। लेकिन वास्तव में केजरीवाल इसका बहुत छोटा उदाहरण भर हैं। आखिर क्यों इन सारे कथित ऊंचे आदर्शों को एक पलड़े में रखा जा सकता है? क्या इसलिए कि इनका एजेंडा एक ही है, जिसमें इन्हें तमाम देशी-विदेशी मददगार मिलते चले जाते हैं? क्या है वह एजेंडा?
ये सारे वाद और इनसे जुड़ने वाले सारे लोगों को पहली परेशानी भारत की परंपराओं से, भारत के वास्तविक इतिहास से, भारत की बहुसंख्यक जनता से, भारत के राष्ट्रत्व से- और जिसे उन्होंने मिलाकर एक शब्द में हिन्दुत्व कह दिया है, उससे है। इन सारे वादों का जमघट लगाकर हिन्दू विरोध करना इंडिया का नेहरूवादी विचार है। इनके लिए साम्प्रदायिकता का एकमात्र अर्थ हिन्दुत्व और ‘पंथनिरपेक्षता’ का एकमात्र अर्थ हिन्दू विरोध है। तो हिन्दू विरोध कैसे किया जाए? पचास से ज्यादा आतंकवादियों को प्रेरित कर चुका एक जाकिर नाइक इसके लिए काफी नहीं है। (वैसे भी 75 लाख रुपए कोई बहुत बड़ी रकम नहीं होती होगी, शायद।) उसके लिए और लोग भी चाहिए होते हैं। ये और लोग क्या करेंगे? बहुत सीधा और प्रत्यक्ष प्रमाण पर आधारित उत्तर है कि अंतत: अपने इस्लामिक एजेंडे को पूरा करने के लिए, उसके लिए एक सुविधाजनक राजनीतिक आधार बनाने के लिए इस देश की जनता को विभाजित करने का प्रयास करेंगे। जाति-वर्ग-प्रांत-भाषा के आधार पर। जिग्नेश मेवाणी इस खेल के छोटे-से मोहरे बने हैं, भले ही स्वेच्छा से बने हों। स्वेच्छा इतनी कि चैक हैं, और खुद को सेकुलर-लिबरल कहने का लाइसेंस है। लाइसेंस दो छोर से जारी हुआ है। एक पीएफआई या उसका चहबच्चा, वो जो भी हो उसकी ओर से, और दूसरे कांग्रेस की ओर से।
आगे देखिए, पीएफआई-जैसा भी है, मूलत: केरल का संगठन है। जिग्नेश मेवाणी जो भी हैं-गुजरात के एक जिले में एक सीट से कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार हैं, जो घोषित तौर पर निर्दलीय हैं। तो केरल के इस्लामिस्ट संगठन को गुजरात के निर्दलीय उम्मीदवार स्वयंभू दलित एक्टिविस्ट में इतनी रुचि क्यों है? सिर्फ रुचि नहीं, उम्मीद है। हिन्दुत्व पर हमला करने के लिए उसे कमजोर करना जरूरी है, और कमजोर करने के लिए उसे जातियों में बांटना बहुत जरूरी है। इसके लिए किसी के दलित होने या न होने का कोई महत्व नहीं है। आप कोई भी हो सकते हैं-ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, जैन, जाट, गुर्जर, पाटीदार, किसी भी तरह के दलित, या सैकड़ों जातियों में से कोई और। फंडिंग और राजनीतिक समर्थन पाने की शर्त यही है कि आप हिन्दुओं को विभाजित करने में सक्षम हों और आप जिस जाति की नेतागीरी कर रहे हों, उसका संख्याबल उपयोगी किस्म का हो। जो एक को छोड़कर बाकी जातियों में वैमनस्य पैदा कर सकता हो। फिर आपके लिए फंडिंग केरल से ही क्या, विदेश से भी आ सकती है, या वाया केरल भी आ सकती है।
तो क्या केरल के इस्लामिस्ट गुजरात पर दूरबीन से नजर गड़ाए बैठे थे कि वहां कौन सा जिग्नेश मेवाणी उनके काम का साबित हो सकता है? शायद नहीं। कोई और ही सूत्र ऐसा होगा, जो गुजरात में किसी ‘काम के आदमी’ को केरल के फंडिंग स्रोत से जोड़ता होगा। कौन है वह सेतु? जाहिर तौर पर कांग्रेस। एक तरफ जाकिर नाइक कांग्रेस को फंड देता है, दूसरी तरफ एक और इस्लामवादी आतंकवाद समर्थक संगठन जिग्नेश मेवाणी को फंड देता है। तीसरी तरफ कांग्रेस जिग्नेश मेवाणी को समर्थन देती है, और उस सीट से अपना उम्मीदवार हटा लेती है। यह कांग्रेस की लंबे समय से चली आ रही रणनीति है। यह सिर्फ मुस्लिम वोट-बैंक की राजनीति या भारतीय मुसलमानों को खुश करने की रणनीति नहीं है, बल्कि आतंकवाद तक का तुष्टीकरण, पुष्टिकरण और संरक्षण देने की रणनीति है। उदाहरण के लिए इस्लामिस्ट आतंकवादी संगठन ‘सिमी’- स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आॅफ इंडिया- पर जब केन्द्र की पूर्ववर्ती वाजपेयी सरकार ने प्रतिबंध लगाया था, तो कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद उस प्रतिबंध के खिलाफ बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय पहुंचकर ‘सिमी’ की तरफ से वकील बने। कांग्रेस सलमान खुर्शीद से मणिशंकर अय्यर की तरह पिंड छुड़ाने का नाटक आसानी से नहीं कर सकती। जब यह संगठन नाम बदलकर इंडियन मुजाहिदीन के नाम से फिर सक्रिय हुआ, तो कांग्रेस के तमाम नेताओं ने उसका खुला बचाव किया।  
यह सिर्फ एक उदाहण है और पाकिस्तानी अफसरों के साथ गोपनीय ‘डिनर मीटिंग’ करने के बहुत पहले का है। ऐसे उदाहरणों की लंबी सूची है। खिलाफत आंदोलन और मोपला नरसंहार के खुले समर्थन से लेकर शाहबानो मामले और मुंबई के आतंकवादी हमलों को रा. स्व. संघ की ‘साजिश’ बताने तक। कांग्रेस लगातार इस्लामिक आतंकवादी संगठनों, इरादों और विचारों के साथ खड़ी मिलती है। फंड और राजनीति के पूरे तालमेल के साथ। इतने बड़े खेल में कई छोटे मोहरों की जरूरत होती है।
 उन्हें कई बार छोटा-मोटा फंड और छोटा-मोटा समर्थन देना पड़ता है। तुम अकेले नहीं हो, जिग्नेश मेवाणी। कांग्रेस से लेकर आतंकवाद का पूरा नेटवर्क तुम्हारे साथ है। लेकिन जिग्नेश मेवाणी, यह गलतफहमी न पाल लेना कि तुम कभी आगे की कतार में पहुंच कर वजीर बन सकते हो। कांग्रेस कर्नाटक का चुनाव हिन्दी विरोध के नाम पर लड़ने जा रही है। वहां भी कई जिग्नेश मेवाणियों की   जरूरत पड़ेगी।    ल्ल

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