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दीपावली के पंद्रह दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस संसार में आये गुरु नानक देव जी ने एक तरह से सनातन धर्म को ही अपने भीतरी अनुभव से एक नए रूप में व्याख्यायित किया। उनका जोर इस बात पर है कि एक छोटी सी चीज भी व्यक्ति के रूपांतरण का माध्यम बन सकती है
अजय विद्युत
गुरु नानक किसी भी शास्त्र को नहीं जानते थे, बस जीवन को जानते थे। शास्त्र पुराना पड़ जाता है लेकिन भीतरी अनुभव कभी पुराना नहीं पड़ता। उसकी कोई समाप्ति तिथि नहीं होती क्योंकि भीतरी तत्व न तो इस समय से जुड़ा है, न ही किसी और समय से।
गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु- सभी गुणों को समेटे हैं। उनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगे थे। किशोरावस्था से ही सांसारिक विषयों के प्रति उदासीन। पढ़ाई-लिखाई में मन लगा नहीं। वजह भी अनूठी। यही कोई सात आठ साल की आयु रही होगी नानक की। भगवत्प्राप्ति संबंधी उनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली और इन्हें ससम्मान घर तक छोड़ने गए।
सुई से भगवत्ता की खबर
गुरु नानक के जीवन से जुड़ी यह कहानी सद्गुरु जग्गी वासुदेव अत्यंत रसपूर्ण ढंग से सुनाते हैं। एक बार वे एक अत्यंत धनवान व्यक्ति के यहां मेहमान बनकर पहुंचे। कुछ दिनों बाद जब चलने लगे तो उन्होंने उस धनी व्यक्ति को एक सुई दी और कहा, ‘‘इसे अपने पास रखना। फिर अगले जन्म में मुझे वापस कर देना।’’ गुरु नानक के जाने के बाद उस आदमी ने यह बात अपनी पत्नी को बताई। पत्नी नाराज हुई। उसने कहा, ‘‘तुमने गुरु से यह सुई क्यों ली? वह बूढ़े हो चुके हैं। मान लो, वह नहीं रहे तो तुम उन्हें यह सुई कैसे लौटाओगे? उनके जैसे व्यक्ति की सेवा करना ठीक है लेकिन उनसे कुछ भी लेना गलत बात है। अगर उनकी मृत्यु हो गई तो तुम हमेशा के लिए उनके कर्जदार रहोगे। तुम उस एक कर्र्ज को मिटाने में असमर्थ रहोगे और उसकी वजह से तुम्हें हजारों जन्म लेने होंगे। यह अच्छी बात नहीं है। किसी तरह से उन्हें ढूंढो और तुरंत यह सुई उन्हें वापस कर आओ।’’ वह धनी व्यक्ति गुरु नानक की खोज में निकल पड़ा।
दो महीने बाद उसने उन्हें ढूंढ लिया और बोला, ‘‘गुरुजी, मैं इस सुई को अपने पास नहीं रखना चाहता। आप बूढ़े हो चुके हैं। अगर आप मर गए तो मैं इस सुई को स्वर्ग में साथ ले जाकर वहां तो आपको नहीं दे सकता। मैं हमेशा के लिए आपका कर्जदार हो जाऊंगा।’’
गुरु नानक बोले, ‘‘तो तुम जानते हो कि इस सुई को स्वर्ग में अपने साथ नहीं ले जा सकते?’’ वह व्यक्ति बोला, ‘‘बिल्कुल’’।
गुरु नानक ने फिर कहा, ‘‘अगर तुम एक सुई तक अपने साथ लेकर नहीं जा सकते तो उस धन दौलत का क्या जो तुम एकत्र कर रहे हो। उसे भी तो तुम साथ लेकर नहीं जा पाओगे।’’ उस धनी आदमी को गुरु का संदेश मिल गया। वह उनके चरणों में गिर पड़ा। घर लौटकर उसने केवल उतना अपने पास रखा जितने की उसे अपने परिवार के लिए जरूरत थी। इसके बाद उसने खुद को उन कामों के लिए समर्पित कर दिया, जिनकी समाज को जरूरत थी। इस दुनिया में सीमित स्थान है और संसाधन भी सीमित हैं। गुरु नानक यही कहना चाह रहे हैं या हमें इस सत्य तक पहुंचाना चाह रहे हैं कि चाहे कोई व्यक्ति हो, समाज हो या देश, जब वे अंतहीन तरीके से चीजों को एकत्र करने लगते हैं तो उसका परिणाम सदा एक सा होता है। खुद उसे और हर किसी को भी कष्ट और कलह का सामना करना पड़ता है। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने मन में यह तय करे कि मेरी जरूरतें क्या हैं। वह उतना भर ले और अपने जीवन की क्षमताओं का उपयोग दूसरों की भलाई करने में करे। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक व्यक्ति स्वयं अपने लिए और इस दुनिया के लिए एक दुर्भाग्य की तरह है। धरती पर तबाही की असली वजह प्राकृतिक आपदाएं नहीं बल्कि व्यक्ति की अज्ञानता है। नानक इसी को एकमात्र विपदा मानते हैं और इसका हल केवल एक है- ज्ञान।
अनोखा आशीर्वाद
नानक के जीवन की एक घटना ओशो के शब्दों में… मैंने सुना है कि नानक एक गांव में ठहरे। गांव बड़े भले लोगों का था, बड़े साधुओं का था, बड़े संत—सज्जन पुरुष थे। नानक के शब्द-शब्द को उन्होंने सुना, चरणों का पानी धोकर पीया। नानक को परमात्मा की तरह पूजा। और जब नानक उस गांव से विदा होने लगे, तो वे सब मीलों तक रोते हुए उनके पीछे आए और उन्होंने कहा, ‘‘हमें कुछ आशीर्वाद दें।’’ तो नानक ने कहा, ‘‘मेरा एक ही आशीर्वाद है कि तुम उजड़ जाओ।’’
स्वाभाविक ही है कि लोगों को इससे सदमा लगा। नानक के शिष्य तो बहुत हैरान हुए कि यह क्या बात कही! इतना भला गांव। लेकिन अब बात हो गई और एकदम पूछना भी ठीक न लगा। सोचेंगे, विचार करेंगे, फिर पूछ लेंगे। फिर दूसरे गांव में पड़ाव हुआ। वह दुष्टों का गांव था। मानो पृथ्वी के सब उपद्रवी वहां इकट्ठे थे। उन्होंने नानक का न केवल अपमान किया, तिरस्कार किया बल्कि पत्थर फेंके, गालियां दीं, मारपीट की नौबत आ गई। उन्होंने वहां नानक को रात में रुकने भी न दिया। जब गुरुजी गांव से चलने लगे, तो वहां के लोग तो आशीर्वाद मांगने वाले थे ही नहीं। वे शोरगुल मचाते, गालियां बकते नानक के पीछे गांव के बाहर तक आए थे। गांव के बाहर आकर नानक ने अपनी तरफ से आशीर्वाद दिया कि सदा यहीं आबाद रहो।
यह सुनकर शिष्यों को मुश्किल हो गया। उन्होंने कहा कि अब तो पूछना ही पड़ेगा। यह तो हद हो गई। शिष्यों ने गुरु नानक से कहा कि ‘‘कुछ भूल हो गई आपसे। पिछले गांव में भले लोग थे, उनसे कहा, बरबाद हो जाओ! उजड़ जाओ! और इन गुंडे—बदमाशों को कहा कि सदा आबाद रहो, खुश रहो, सदा बसे रहो!’’
नानक ने कहा, ‘‘भला आदमी उजड़ जाए तो बंट जाता है। वह जहां भी जाएगा भलेपन को ले जाएगा। वह फैल जाए सारी दुनिया पर। और ये बुरे आदमी ये इसी गांव में रहें, कहीं न जाएं। क्योंकि ये जहां जाएंगे, बुराई साथ ले जाएंगे।’’
एक ओंकार सतनाम
नानक के इस सूत्र की व्याख्या ओशो बुद्धि से पार जाकर करते हैं। वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत- मूर्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है। इक ओंकार सतनाम। जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता। हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं। पर जो ऊपर-ऊपर है, वही दिखाई पड़ता है, क्योंकि ऊपर की ही आंख हमारे पास है। भीतर को देखने के लिए तो भीतर की आंख चाहिए। जैसी होगी आंख, वैसा ही होगा दर्शन। आंख से गहरा तो दर्शन नहीं हो सकता। लहरें सपना हैं, सागर सच है। अनेक लहरें हैं, एक सागर है। हमें अनेक दिखाई पड़ता है। और जब तक एक न दिखाई पड़ जाए, तब तक हम भटकते रहेंगे। क्योंकि एक ही सच है। इक ओंकार सतिनाम। और नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है। और सब नाम तो आदमी के दिए हैं। राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, ये नाम आदमी के दिए हैं। ये हमने बनाए हैं। सांकेतिक हैं। लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया- वह ओंकार है, वह ॐ है।
क्यों ओंकार उसका नाम है? क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है और जब लहरें पीछे छूट जाती हैं और सागर में आदमी लीन हो जाता है तब भी ओंकार की धुन सुनाई पड़ती रहती है। वह अस्तित्व की ही लय है। अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। यह अनहद नाद है। नानक कहते हैं, वही एक उसका नाम है- ओंकार। हमारे दिए हुए नाम बहुत दूर न जा सकेंगे। और अगर थोड़े-बहुत जाते भी हैं, तो इसलिए जाते हैं कि हमारे नामों में भी उसके नाम की थोड़ी-सी झलक होती है। समस्त ज्ञानियों का यह अनुभव है कि उन्होंने किसी भी नाम से शुरू किया हो, लेकिन आखिरी में ॐ आ जाता है। जैसे ही तुम शांत होने लगते हो, वैसे ही ॐ आने लगता है। ॐ सदा मौजूद है, बस, तुम्हारे शांत होने की जरूरत है। ल्ल
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