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थोड़ा बदला, बहुत बाकी

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Oct 30, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Oct 2017 11:32:38

 

हरियाणवी सिनेमा की शुरुआत 1970 में हुई, लेकिन चंद फिल्मों  के निर्माण  के बाद अरसे तक सन्नाटा छाया रहा। 1984 में इस सन्नाटे को ‘चंद्रावल’ फिल्म ने न केवल तोड़ा, बल्कि हरियाणवी सिनेमा को नए सिरे से जीवंत किया और स्वर्णिम भविष्य की उम्मीद जगाई। हरियाणवी फिल्मों के क्षेत्र में बहुत काम किया जाना बाकी है

नागार्जुन

हरियाणा को कई सितारे दिए हैं। भारतीय सिनेमा में हरियाणवी सिनेमा के योगदान को खारिज नहीं किया जा सकता। खासकर बीते कुछ दशकों से हिन्दी फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले हरियाणवी संवादों ने देशभर में हरियाणवी बोली को लोकप्रिय बना दिया। इसी का असर है कि हिन्दी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में भी  हरियाणवी शब्दों एवं उक्तियों का भरपूर प्रयोग हो रहा है। हां, बात अलग है कि अपनी स्थापना के करीब पांच दशकों में भी हरियाणवी सिनेमा वह मुकाम नहीं बना पाया, जिसका वह हकदार है।
हरिवुड यानी हरियाणवी सिनेमा का दौर 70 के दशक से शुरू हुआ। आनंद कुमार के निर्देशन में 1970 में बनी ‘हरफूल सिंह जाट जुलाणी’ पहली हरियाणवी फिल्म थी। इसके बाद 1973 में ‘वीरा शेरा’ आई। हालांकि ये फिल्में सराही तो गर्इं, लेकिन दर्शकों पर प्रभाव नहीं छोड़ पार्इं। हरियाणवी सिनेमा को 1984 में आई देवी प्रभाकर की ‘चंद्रावल’ फिल्म से पहचान मिली। यह फिल्म बेहद कामयाब रही। इसी के बाद हरियाणवी फिल्मों के निर्माण में तेजी आई। ‘चंद्रावल’ ने बॉक्स आॅफिस पर कई रिकॉर्ड तोड़े। यह हरियाणा में बनी अब तक की पहली सुपूर-डुपर फिल्म है। खास बात यह कि इस फिल्म ने हरियाणवी सिनेमा के दर्शकों के दायरे का पता लगाया। हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब और राजस्थान के कुछ इलाकों (जाट बहुल) में इस फिल्म ने अच्छा कारोबार किया। अभिनेत्री ऊषा शर्मा की अदाकारी खासतौर से सराही गई। इस फिल्म से कई सितारे एक साथ चमके। एक गाड़िया लुहार युवती पर बनी इस फिल्म में जगत जाखड़, अनूप लाठर और पलवल के हास्य अभिनेता डॉ. प्रशांत शुक्ला आदि ने भी दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ी। सच तो यह है कि इस फिल्म ने तहलका मचा दिया था। फिल्म के गीतकार-संगीतकार जेपी कौशिक थे। इसके दो गीत ‘जीजा तू काला मैं गोरी घणी’ और ‘मेरा चूंदड़ मंगा दे हो’ तो आज तक लोकप्रिय हैं। इस फिल्म की एक खासियत यह है कि इसके गीतों में हरियाणा के प्रमुख शहरों का जिक्र है। इससे पहले 1982 में सुमित्रा हुड्डा, शशि रंजन, भाल सिंह और मुक्ता अभिनीत ‘बहूरानी’ आई थी, जिसका निर्देशन अरविंद स्वामी ने किया था। इसे पहली सफल व्यावसायिक हरियाणवी फिल्म माना जाता है। इसका निर्माण एक सोसायटी बनाकर किया गया था, जिसमें प्रदीप हुड्डा, सुमित्रा हुड्डा, अरविंद स्वामी, ऊषा शर्मा, देवी शंकर प्रभाकर आदि लोग शामिल थे, जो इसके शेयरधारक थे। साझा प्रयास के तहत बनी यह पहली फिल्म थी।
‘चंद्रावल’ के बाद हरियाणवी फिल्मों की बाढ़ सी आई और 50-60 फिल्में बनीं। इनमें ‘भाभी का आशीर्वाद’, ‘छैल गेल्यां जांगी’, ‘लाडो बसंती’, ‘म्हारी धरती म्हारी मां’, ‘फूल बदन’, फिल्म ‘बटेऊ’ आदि शामिल हैं। लेकिन इनमें से कोई भी ‘चंद्रावल’ का मुकाबला नहीं कर सकी। कई फिल्में तो ऐसी रहीं कि व कब बनीं, कब प्रदर्शित हुईं, इसका पता ही नहीं चला। इसकी बड़ी वजह यह थी कि ये तमाम सारी फिल्में बेतुकी व बिना सिर-पैर की थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘चंद्रावल’ ने जो दर्शक वर्ग तैयार किया था, इन फिल्मों को देखने के बाद उसका हरियाणवी फिल्मों से मोहभंग हो गया। यहां तक कि कलाकार भोजपुरी और पंजाबी आदि अन्य क्षेत्रीय फिल्मों की ओर रुख करने लगे। 2000 में अश्विनी चौधरी निर्देशित और आशुतोष राणा अभिनीत फिल्म ‘लाडो’ आई जो सफल रही और पहली बार किसी हरियाणवी फिल्म को राष्ट्रीय स्तर पर कोई पुरस्कार मिला। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में इसे सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार मिला। इसके बाद 2014 में आई ‘पगड़ी’ ने 62वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में दो पुरस्कार जीते। इसे सर्वश्रेष्ठ फीचर हरियाणवी फिल्म और बलजिंदर कौर को सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेत्री का पुरस्कार मिला।
हरियाणवी सिनेमा को नया आयाम देने के प्रयास फिर से शुरू हुए हैं और हाल के वर्षों में कुछ अच्छी फिल्में बनी हैं। इनमें यशपाल शर्मा अभिनीत ‘पगड़ी’, ‘सतरंगी’ शामिल हैं, जबकि ‘चौहान’ बन रही है और पं. लखमीचंद पर हिन्दी में यशपाल शर्मा भी एक फिल्म बना रहे हैं। अच्छी बात यह है कि इस क्षेत्र में अब जो लोग आ रहे हैं, वे न केवल तकनीक में निपुण हैं, बल्कि फिल्मों की मार्केटिंग कर सकते हैं और कम बजट में अच्छी फिल्में भी बनाना जानते हैं।  हरियाणवी सिनेमा को पहचान दिलाने के लिए मुहिम चलाने वालों में देवी शंकर प्रभाकर, दरियाव सिंह मलिक, जयंत प्रभाकर, ओपी हरियाणवी, अरविंद स्वामी, रामपाल बल्हारा, नसीब कुण्डू, अंकित बल्हारा के पिता भाल सिंह बल्हारा, सुमित्रा हुड्डा, रेखा सरीन, सुनीता डाबर आदि लोग शामिल थे। लेकिन हाल के वर्षों में हिसार के यशपाल शर्मा ने यह कमान संभाल ली है। ‘चाइना गेट’, ‘लगान’, ‘गंगाजल’, ‘अब तक 56’ और ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ जैसी फिल्मों में अपने दमदार अभिनय का लोहा मनवा चुके यशपाल शर्मा अभिनीत ‘सतरंगी’ 26 अगस्त को रिलीज हुई थी, लेकिन इससे पहले ही इसने राष्ट्रीय पुरस्कार जीत लिया था। दरअसल, रिलीज से पहले ही इस फिल्म को रीजनल फिल्म अवॉर्ड के लिए भेजा गया था। यशपाल शर्मा ‘सतरंगी’ को हरियाणवी सिनेमा के लिए नई शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘पगड़ी’ से हरियाणवी सिनेमा में बदलाव आना शुरू हुआ। राज्य सरकार ने दोनों फिल्मों को 10-10 लाख रुपये दिए और इन्हें टैक्स फ्री भी किया। लेकिन वे इसे नाकाफी मानते हैं। वे चाहते हैं कि हरियाणा में फिल्मों को लेकर एक समग्र नीति बने और हरियाणवी फिल्मों के निर्माण के लिए सब्सिडी दी जाए। कलाकारों को भी प्रोत्साहित किया जाए। ‘सतरंगी’ के निर्देशक संदीप शर्मा भी हरियाणा के ही हैं।
हरियाणवी सिनेमा की दशा, दिशा और मौजूदा स्थिति पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के युवा एवं कार्यक्रम विभाग के पूर्व निदेशक और ‘लाडो बसंती’ के नायक अनूप लाठर कहते हैं, ‘‘हरियाणवी सिनेमा की स्थिति अच्छी नहीं है। इसमें संभावनाएं बहुत हैं, लेकिन इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। इसे प्रश्रय देने के लिए कुछ लोगों ने संस्थागत तौर पर प्रयास शुरू किए थे, जिनमें मैं भी शामिल था। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में भी कुछ प्रयास हुए। उस समय हरियाणा फिल्म विकास परिषद या इस तरह की संस्था बनाने की योजना बनी थी। जब इस पर काम शुरू हुआ तो बाहर रह रहे कुछ लोग भी जुड़ गए। ये वो लोग थे जिन्होंने हरियाणवी सिनेमा के लिए न तो कुछ किया और न ही कभी कहा कि वे हरियाणा से हैं। पर जब कुछ मिलने की उम्मीद जगी तो मुंबई और दूसरे शहरों से हरियाणा पहुंच गए। नतीजा यह हुआ कि समितियों में नाम और प्रसिद्धि देख कर लोगों को शामिल किया जाने लगा। इसका विरोध हुआ और अंतत: वह फाइल लटक गई। हालांकि इसका एक फायदा यह हुआ कि रोहतक में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट खुल गया। हालांकि यह इंस्टीट्यूट एक बायो प्रोडक्ट के रूप में सामने तो आया, लेकिन इसमें बाहरी और अपेक्षाकृत कम योग्य लोगों को बैठा दिया गया। राज्य में जब सत्ता बदली तो फिर से उम्मीद जगी और इस दिशा में पुन: प्रयास शुरू हुए तो इस बार भी सतीश कौशिक जैसे लोग आ गए। पिछली बार भी ये और इनके जैसे लोग आ गए थे, जिन्हें मुंबई में अब काम नहीं मिल रहा है। पिछली बार सतीश कौशिक ने पांच हरियाणवी फिल्म बनाने की घोषणा की थी, लेकिन सरकार से फायदा उठा ले गए और कुछ किया भी नहीं।’’
कई फिल्मों और एल्बम में काम कर चुके लाठर थिएटर से भी जुड़े हुए हैं। वे कहते हैं कि अगर सरकारी स्तर पर कोई योजना बनती भी है तो इस बात की क्या गारंटी है कि हरियाणवी सिनेमा का भला हो जाएगा? हरियाणवी सिनेमा को दर्शक मिल जाएंगे? मुश्किल एक नहीं है। ‘चंद्रावल’ ही एकमात्र ऐसी फिल्म है, जो गोल्डन जुबली रही। इसी फिल्म ने इस बात की पहचान कराई कि हरियाणवी सिनेमा के दर्शक कहां-कहां हैं। वे आगे कहते हैं, ‘‘हरियाणा में बनने वाली फिल्में ही हरियाणवी कहलाएगी, लेकिन दर्शक दूसरे राज्यों के भी होंगे। ऐसा भी हो सकता है कि जिन इलाकों में हरियाणवी सिनेमा के दर्शक हैं, वहां के लोगों को भी फिल्म में काम मिले। लेकिन प्रमुखता हरियाणवी पृष्ठभूमि को ही मिले। राज्य की हकीकत यह है कि पुराने सिनेमा हॉल लगभग बंद हो चुके हैं और मल्टीप्लेक्स हैं नहीं। गुड़गांव, फरीदाबाद को छोड़ दें तो अन्य जिलों में या तो मल्टीप्लेक्स हैं ही नहीं और कुछ जिलों में हैं भी तो इक्के-दुक्के। इसलिए राज्य में मल्टीप्लेक्स की संख्या बढ़ानी होगी। इसके अलावा, मल्टीप्लेक्स में 150-200 रुपये की टिकट होती है और ग्रामीण लोग इतनी महंगी टिकट नहीं खरीदते। यानी पहली समस्या यह है कि वैसे दर्शक नहीं हैं जो मल्टीप्लेक्स तक पहुंच सकें। अगर मान  भी लिया जाए कि वे मल्टीप्लेक्स तक आ भी जाएं तो मल्टीप्लेक्स वाले हरियाणवी सिनेमा को स्क्रीन देने के लिए तैयार नहीं हैं।
वस्तुस्थिति यह है कि बॉलीवुड के मुकाबले क्षेत्रीय सिनेमा को हॉल नहीं मिलते। लिहाजा राज्यों ने दिशानिर्देश जारी कर मल्टीप्लेक्स में क्षेत्रीय सिनेमा को कुछ हफ्ते के लिए स्क्रीन देना अनिवार्य किया है। यानी क्षेत्रीय फिल्म आई तो उन्हें चलानी ही पड़ेगी। इस तरह राज्यों ने क्षेत्रीय सिनेमा को न केवल हॉल दिए, बल्कि उन्हें करों में भी छूट दी। मतलब पहली फिल्म से टैक्स में वसूली जाने वाली राशि फिल्म निर्माताओं को सब्सिडी के रूप में अगली फिल्म के लिए लौटाने की व्यवस्था की गई। कुछ राज्यों ने सार्वजनिक जगहों स्कूल-कॉलेज, पार्क और अन्य महत्वपूर्ण स्थलों पर शूटिंग की इजाजत दी है। लेकिन हरियाणा में इस तरह की व्यवस्था नहीं है। ‘चंद्रावल’ के बाद बड़े पैमाने पर फिल्में बनीं, जिनमें अधिकांश पिट गर्इं। नतीजतन निर्माताओं के पैसे डूब गए और कुछ ने तो हताशा में आत्महत्या तक कर ली।’’ हालांकि लाठर इस बात से खुश हैं कि गानों और एलबम के मामले में हरियाणा में अच्छा काम हो रहा है तथा इसका बाजार भी है।
लोकप्रिय धारावाहिक ‘न आना इस देश लाडो’ में अम्माजी की भूमिका निभाने वाली सोनीपत की मेघना मलिक कहती हैं कि सबसे पहले राज्य में रंगमंच को बढ़ावा देना होगा। अभी तक हरियाणा में रंगमंच की संस्कृति नहीं आई है। साथ ही, पटकथा, तकनीक, किरदारों का चयन पेशेवर तरीके से किया जाए। अगर सीमित दायरे में फिल्में बनाकर ही निर्माता खुश हैं तो इससे हरियाणवी सिनेमा का भला नहीं होगा। जिस समय ये फिल्में हिट हो रही थीं, उस समय इसे संभाला जाता तो आज स्थिति कुछ और होती। जब आमिर खान बाहर से आकर हरियाणवी पृष्ठभूमि पर फिल्म बना सकते हैं तो हरियाणा के लोग ऐसा क्यों नहीं कर सकते? दरअसल, हरियाणवी फिल्मों की कहानियां अब भी पुराने दौर में ही उलझी हुई हैं, जिससे बाहर निकलने की जरूरत है। इसके अलावा, पटकथा पर भी जोर देना होगा, क्योंकि कमजोर कथानक के कारण हरियाणवी सिनेमा ने अपना दर्शक वर्ग खो दिया। इसलिए ऐसी पटकथाएं लिखी जाए जो युवाओं को फिल्मों से जोड़ें। क्षेत्रीय फिल्म इंस्टीट्यूट के छात्रों को भी प्रोत्साहन देने की जरूरत है। राज्य में जिस तरह खेलों को बढ़ावा दिया गया, उस तरह थिएटर को बढ़ावा नहीं मिला। वैसे राज्य सरकार नई सिनेमा नीति पर काम कर रही है और जल्द ही इसे लागू किया जाएगा। साथ ही, राज्य स्तर पर फिल्म समारोह का आयोजन किया जाए और दूसरी क्षेत्रीय फिल्में भी इसमें दिखाई जाएं तो लोगों का नजरिया भी बदलेगा और दर्शक भी तैयार होंगे।’’ मेघना इन दिनों ‘न आना इस देश लाडो’ के अगले भाग की शूटिंग कर रही हैं। इसमें ‘अम्माजी’ एक अलग रूप में दिखेंगी। वे 2012 से राज्य चुनाव आयोग की ब्रांड एम्बेसडर भी हैं।
वैसे हरियाणा के बहुत से लोगों ने बॉलीवुड में अपनी सफलता के झंडे गाड़े। इनमें सुनील दत्त, ओम पुरी, सोनू निगम, सुभाष घई, सतीश कौशिक, परिणीति चोपड़ा, प्रियंका चोपड़ा, रणदीप हुड्डा, सीताराम पचाल आदि प्रमुख हैं। हालांकि इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह कहते हुए हिचकते हैं कि वे हरियाणवी हैं।     ल्ल

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