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टीपू सुल्तान जैसे हिन्दुओं के हत्यारे, बर्बर शासक को महिमामंडित करने की कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की चाल कांग्रेस की हिन्दुओं के प्रति दुर्भावना ही जताती है
तुफैल चतुवेर्दी
बात शुरू करने से पहले तीन-चार आवश्यक सूचनाएं मनन-चिंतन की दिशा तय करने में सहायक होंगी-
1.केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने टीपू सुल्तान को बर्बर हत्यारा बताते हुए उसकी जयंती पर कर्नाटक सरकार द्वारा 10 नवंबर को प्रस्तावित कार्यक्रम से किनारा कर लिया है। उन्होंने कहा है कि ‘कर्नाटक सरकार बर्बर हत्यारे, घृणित कट्टरपंथी और सामूहिक दुष्कर्म करने वाले को गौरवान्वित करने के शर्मनाक कार्यक्रम में मुझे आमंत्रित न करे।’ इस पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि ‘हेगड़े को ऐसा नहीं करना चाहिए था।’ उन्होंने मामले का राजनीतिकरण करने की निंदा की। साथ ही 18 वीं सदी के मैसूर के शासक टीपू को स्वतंत्रता सेनानी बताया। कहा कि टीपू ने अंग्रेजों के साथ चार लड़ाइयां लड़ीं, जिस पर भाजपा संसद प्रह्लाद जोशी ने टीपू को हिन्दू विरोधी, कन्नड़ विरोधी बताया।
2. कुछ दिन पहले मीडिया पर ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता की महान प्रतीक’ बताई गईं वाराणसी की मुस्लिम महिलाओं, जिन्होंने दीपावली की पूर्व संध्या पर भगवान राम की आरती उतारी, को ईमान से खारिज कर दिया गया है। दारुल-उलूम जकरिया, सहारनपुर (दारुल उलूम की ढेरों शाखाएं हैं। इसे रक्तबीज ही जानिए और वैसा ही व्यवहार करने की व्यवस्था कीजिये) के उस्ताद और फतवा आॅन लाइन के अध्यक्ष अरशद फारुकी ने फतवा दिया है कि वे औरतें अपनी गलती मानकर दुबारा ईमान लायें। वे कलमा पढ़कर लोगों को बतायें कि उन्होंने अपनी गलती की तौबा कर ली है। जिस पर श्री राम की आरती उतारने वाली नाजनीन अंसारी ने दारुल उलूम के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की बात कही है। उन्होंने कहा है कि दारुल उलूम का कहना है कि जो महिलाएं श्रीराम की आरती करती हैं उन्हें इस्लाम स्वीकार नहीं करता। दारुल उलूम कोई ठेकेदार नहीं, न ही उनके पास कोई अधिकार है इस तरह का आदेश देने का। उन्होंने सरकार से मांग की है कि दारुल उलूम की फंडिंग आदि की जांच की जाये और इस संगठन पर ताला लगाया जाये, क्योंकि 2014 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने फतवे पर रोक लगा दी थी तो दारुल उलूम कैसे किसी के खिलाफ फतवा दे सकता है? उनके अनुसार सवाल उठता है कि जब हिन्दू मजार पर जाकर चादर चढ़ा सकते हैं तो मुस्लिम श्रीराम की आराधना क्यों नहीं कर सकते?
3. पूर्व एमएलसी हाजी इकबाल ईमान से खारिज कर दिए गए हैं। ग्लोबल विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित आयुर्वेदिक कॉलेज में धन्वंतरि जयंती पर हवन-पूजन का आयोजन किया गया था, जिसमें हाजी इकबाल ने भी आहुति डाली थी, जिसका वीडियो सार्वजनिक हो गया। फतवा आॅन लाइन के अध्यक्ष अरशद फारुकी ने इन पर भी फतवा दिया है कि हाजी इकबाल भी इस्लाम से खारिज हैं और उन्हें भी तौबा करनी चाहिए, दुबारा कलमा पढ़ना चाहिए।
4. इनमें सबसे पुरानी मगर महत्वपूर्ण बात है अटल बिहारी वाजपेयी का एक पुराना सार्वजनिक भाषण। कृपया यू ट्यूब पर और अ३ं’ इ्रँं१्र रस्रीीूँ अुङ्म४३ इं३३’ी डा ढ’ं२्र खोजिए। श्री वाजपेयी के इस 6 मिनिट 51 सैकिंड के वीडियो में अपनी पूरी प्रखरता से बोले हैं। प्रारंभ इस वाक्य से होता है- ‘प्लासी की लड़ाई में जितने लोग मैदान में लड़ रहे थे उससे जयादा लोग मैदान के बाहर खड़े होकर तमाशा देख रहे थे। लड़ाई का परिणाम सुनने की प्रतीक्षा कर रहे थे। देश के भाग्य का निर्णय होने जा रहा था मगर उस निर्णय में सारा देश शामिल नहीं था……..।’
इन घटनाओं की खोजबीन की जाये तो तथ्य हाथ लगते हैं कि टीपू सुल्तान, अनंत कुमार हेगड़े, नाजनीन अंसारी, अरशद फारुकी, हाजी इकबाल, अटल बिहारी वाजपेयी इत्यादि की दृष्टि देश और राष्ट्र पर अलग-अलग है। टीपू, अरशद, इकबाल और ऐसे न जाने कितने लोगों के लिए महमूद गजनवी हीरो है। पाकिस्तान स्कूली किताबों में उसकी गौरव-गाथा पढ़ाई जाती है मगर अनंत कुमार हेगड़े, अटल बिहारी वाजपेयी और ऐसे ही करोड़ों लोगों की दृष्टि में भी बर्बर हत्यारा, घृणित लुटेरा है, मगर कर्नाटक सरकार उसकी जयंती मना रही है।
सामान्य पाठक के लिए यह जानना शायद आश्चर्यजनक हो कि टीपू ने हिन्दुओं पर अत्याचारों, कन्वर्जन के लिए कुर्ग, मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों में अपने सेनानायकों को अनेक पत्र लिखे थे। ऐसा इसलिए है कि इतिहास की पुस्तकों से उसके ये कुकर्म गायब कर दिए गए हैं।
(1) टीपू ने अब्दुल कादर को 22 मार्च 1788 को लिखा पत्र-‘12000 से अधिक हिन्दुओं को इस्लाम में कन्वर्ट किया गया। इनमें अनेक नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के बीच व्यापक प्रचार किया जाए, ताकि स्थानीय हिन्दुओं में भय व्याप्त हो और उन्हें इस्लाम में कन्वर्ट किया जाये, किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।’
(2) 14 दिसम्बर 1788 को कालीकट के अपने सेनानायक को पत्र लिखा-‘मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूं। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बंदी बना लेना और यदि वे इस्लाम स्वीकार न करें तो उनकी हत्या कर देना। मेरा आदेश है कि 20 वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में डाल देना और शेष में से 5000 को पेड़ से लटकाकर मार डालना।’ (भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त 1923)
(3) बदरुज्जमां खान को 19 जनवरी 1790 लिखा पत्र-‘क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है? चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बना लिया गया। मैंने अब रमन नायर की ओर बढ़ने का निश्चय किया है ताकि उसकी प्रजा को इस्लाम में कन्वर्ट किया जाए। मैंने रंगपटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।’
देश के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने सेकुलरिज्म का झूठा ढोंग कर टीपू का ‘वीर’ और ‘देशभक्त पुरुष’ के रूप में वर्णन किया है। किन्तु सचाई यह है कि टीपू का सम्बन्ध इस राष्ट्र, इस मिट्टी से कभी नहीं रहा, जो उसका गृहस्थान था। वह केवल हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वयं कहा था-उसके जीवन का उद्देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना था। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था, न कि देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने के लिए।
आइये, अब भारत की तथाकथित दासता प्रारम्भ करने वाली प्लासी की लड़ाई के बारे में विकीपीडिया पर जानकारी देखी जाये। ‘‘प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शीदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान पर हुआ था। युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर बंगाल के नवाब की सेना। कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नबाव सिराजुद्दौला को हरा दिया था। किंतु इस युद्ध को कम्पनी की जीत नहीं मान सकते क्योंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक, उसके दरबारी तथा राज्य के अमीर सेठ, जगत सेठ आदि से क्लाइव ने षडं्यत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध में भाग भी नहीं लिया था। युद्ध के फौरन बाद मीरजाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है। इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है।’’……..इसमें श्री वाजपेयी वाली ही लाइन ली गयी है कि भारत में मुगल सत्ता और उसके अवशेष असली शासक थे।
यहां यह जानना उपयोगी होगा कि प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों के हाथों इस्लाम की हार के उपरांत सैकड़ों वर्षों बाद कोलकाता में सार्वजनिक दुर्गा-पूजा हो सकी थी, जिसमें क्लाइव भी सम्मिलित हुआ। वर्तमान भौगोलिक दृष्टि से देखें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में हिंदू राजाओं की पराजय के बाद से ही हमारे पूर्वज पूजा नहीं कर सकते थे। इस्लामी सत्ता ने मंदिर बनाने, भग्न होते मंदिरों की मरम्मत पर रोक लगा दी थी। चैतन्य महाप्रभु जैसे अनेक भक्तों को सार्वजनिक कीर्तन करने पर कोड़ों से पीटे जाने के उल्लेख मिलते हैं। इस्लामियों द्वारा उन पर ही नहीं सामान्य हिन्दुओं पर गोमांस के टुकड़े फेंके जाते थे। हिंदू तिलक नहीं लगा सकते थे। जनेऊ नहीं पहन सकते थे। इस्लाम हिन्दुओं को अपमानित कर उनसे जजिया वसूलता था। हमारे विश्वविद्यालय नष्ट कर दिए थे। हिन्दू लड़कियों पर इस्लामियों द्वारा सार्वजनिक बलात्कार सामान्य बात थी। हिन्दुओं को गुलाम बना कर बाजारों में बेचा जाना
सामान्य बात थी। चूंकि हिन्दू पीपल, वट वृक्ष की पूजा करते थे अत: शिर्क, कुफ्रÞ होने के कारण इस्लामियों ने उन्हें यथासंभव काट डाला था। स्पष्ट है कि कट्टर इस्लामपरस्त चिंतनधारा के लोगों और अनंत कुमार हेगड़े जैसे लोगों की राष्ट्र की समझ में मूल और बहुत बड़ा अंतर है। उस चिंतनधारा के लोग वही हैं जो मानते हैं कि भारत राष्ट्र दुनियाभर से इकट्ठे हुए भांति-भांति के लोगों का मेला भर है।
विषय यह नहीं है कि ऐसा मानने वाले वामपंथी हैं या राष्टÑवादी, विषय राष्ट्र और देश की गलत समझ का है। 1857 का लिखित इतिहास उपलब्ध है। अंग्रेजों और मुसलमानों, दोनों ने इसे शुद्ध इस्लामी जिहाद लिखा है मगर आज हमें 1857 हिन्दू-मुस्लिम एकता के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता का समर बताया, पढ़ाया जाता है। इसकी स्थापना के लिए तर्कों, तथ्यों की जगह पार्टी प्रचार के पर्चे और फिल्मेंं दिखाई जाती हैं।
दिल्ली में जिहाद का झंडा जामा मस्जिद से बुलंद किया गया था और बहुत से बागी सिपाही अपने को मुजाहिद, गाजी या जिहादी कहते थे। घेरे के खात्मे तक जब बहुत से सिपाही (बाहर से आये) मर गए थे या भूखे, बेतंख्वाह और मायूस होकर गायब हो गए थे तो मुजाहिदों की तादाद तकरीबन फौज की चौथाई हो गयी थी। इसमें एक ग्वालियर की खुदकुशी करने वाले गाजियों की रेजिमेंट भी थी जिन्होंने कसम खाई थी कि जब तक जंग खत्म नहीं होती वह लड़ते रहेंगे। देखने वाली बात है कि जो मरने के इरादे से आते हैं उन्हें कसम खाने की कोई जरूरत नहीं होती।’ (ओआईओसी मोंटगुमरी पेपर्स सं. 1987 सितंबर 1857)
अंग्रेजों की मुसीबत में इजाफा करने और शहरियों के जोशीलेपन को और बढ़ाने के लिए बहुत से आजाद जिहादी भी दिल्ली पहुंच गए। उनमें कट्टर वहाबी मौलवी, जंगजू नक्शबंदी फकीर और इन सबसे बड़ी संख्या में कट्टर मुसलमान, जैसे जुलाहे, कारीगर और दूसरे मजदूरी करने वाले शामिल थे। इन सबका विश्वास था कि उस जगह को, जिसे वे दारुल इस्लाम कहते हैं, उन घृणित काफिरों की हुकूमत से आजाद कराना उनका फर्ज है ( इरफान हबीब ‘द कमिंग आॅफ 1857, सोशल साइंटिस्ट’ खंड 26, अंक 1, जनवरी-अप्रैल 1998 पृष्ठ संख्या 12 )
ऐसा वाहियात और झूठा इतिहास बनाने वाले लोग चाहते हैं कि हम अर्थात् राष्ट्र के सच्चे उत्तराधिकारी आंखें मूंदे उनकी बातों पर भरोसा किये बैठे रहें। वे सारे लोग और उनकी मूल चिंतनधारा, जिसने बुरी से बुरी हद तक हमें अपमानित, प्रताड़ित किया, को भुला दिया जाना चाहिए। यहां यह सोचने की बात है कि जो चिंतन प्रणाली हिन्दुस्थान में कुफ्र-शिर्क मिटाने, काफिरों-मुशरिकों की इबादतगाहों को ढाने (रामजन्मभूमि, कृष्णजन्मभूमि, काशी विश्वनाथ जैसे हजारों मंदिरों के तोड़ने के संदर्भ लीजिये), काफिरों को खत्म करने, उनको गुलाम बनाने आई थी, वह तो आज भी वैसी की वैसी है। 1947 में उसकी शक्ति बंट गयी। अत: आज वह यह सब उतने बड़े पैमाने पर तो नहीं कर पा रही है मगर मुसलमानों को काफिरों-मुशरिकों के साथ जाने में रोक रही है।
अनंत हेगड़े के साहस ने अवसर दिया है कि हमें राष्ट्र को परिभाषित करना चाहिए। इतिहास की किताबों में आज भी सम्मान से गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, मुगल वंश को भारत का शासक बताने की जगह आक्रमणकारी घुसपैठिये, बर्बर हत्यारे, घृणित कट्टरपंथी लिखना चाहिए, जो वे वस्तुत: थे। दारुल-उलूम जकरिया के उस्ताद और फतवा आॅन लाइन के अध्यक्ष अरशद फारुकी उन हत्यारों के प्रशंसक इसी कारण हैं कि उन्होंने कुफ्र, शिर्क मिटाया था और इस्लाम का बोलबाला किया था। ये लोग इसी तर्क और कसौटी के कारण राष्ट्र के शत्रु हैं। ल्ल
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