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केंद्र में कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद करीब दर्जन भर तथाकथित समाचार वेबसाइट कुकुरमुत्तों की तरह उग आईं। इनमें से ज्यादातर वेबसाइटों के पीछे कांग्रेस के प्रति समर्पित माने जाने वाले पुराने जमे-जमाए पत्रकार हैं। इनकी फंडिंग का जरिया बेहद रहस्यमय होता है। कुछ को विदेशों से पैसे मिल रहे हैं और कुछ को वे बड़े लोग फंड कर रहे हैं जो केंद्र में हिंदुत्ववादी सरकार को हटाकर हर हाल में कांग्रेस को सत्ता में देखना चाहते हैं। इनमें कुछ वेबसाइट अपने पत्रकारों को मोटा वेतन भी देती हैं। इन सभी की समाचार सामग्री को देखें तो समझ जाएंगे कि ये किसके लिए काम कर रही हैं। दरअसल ये 'सुपारी पत्रकारिता' का नया अवतार है। कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाने के लिए ये तमाम वेबसाइट स्थापित करवाई गई हैं।
पिछले दिनों 'द वायर' नाम की ऐसी ही एक वेबसाइट ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे के व्यापार को लेकर मनगढ़ंत रिपोर्ट छापी। व्यापार की सामान्य जानकारी रखने वाले भी समझ रहे हैं कि इस कंपनी के कामकाज में ऐसा कुछ नहीं है जिससे अनुचित लाभ की बात साबित होती हो। वेबसाइट ने कंपनी को 80 करोड़ रु. के 'फायदे' में बताया। यह दावा किया कि उसका लाभ एक साल में 16,000 गुना बढ़ गया। लेकिन बहीखाते को देखें तो वास्तव में कंपनी को नुकसान हुआ था और उसे बंद करना पड़ा। यानी बिना बात के विवाद पैदा कर दिया गया। जब एक बार झूठ को स्थापित कर दिया गया तो 'द वायर' ने रिपोर्ट को संपादित करके इन शरारतपूर्ण गलतियों को हटा दिया। लेकिन बड़े ही पूर्वनियोजित तरीके से अब आगे का जिम्मा मुख्यधारा सेकलर मीडिया ने संभाल लिया है। कांग्रेस पार्टी की प्रोपेगेंडा टीम को बस इतने की ही जरूरत थी। अब वे इस झूठ को बार-बार दोहराएंगे ताकि गांधी परिवार की लूट से लोगों का ध्यान बंटा सकें। वास्तव में कांग्रेस के भ्रष्ट तौर-तरीके ज्यादातर पत्रकारों और मीडिया समूहों को रास आते हैं। जनता में लोकप्रियता के लिए वे भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़े कार्यक्रम दिखाते हैं लेकिन उन्हें पता है कि यह सरकार उनके उन अनुचित हितों को पूरा नहीं करती जो कांग्रेस के शासनकाल में बड़े आराम से होते रहे हैं। प्रधानमंत्री ने जनता के टैक्स के पैसों की बचत के लिए भले ही विदेश यात्रा पर अपने साथ पत्रकारों की फौज ले जाने की परंपरा बंद की हो, लेकिन राहुल गांधी विपक्ष में होते हुए भी अपना प्रचार करने वाले पत्रकारों को विदेश ले जाते हैं। ऐसे में अपनी सरकारी 'सुख-सुविधाओं' में कटौती से तिलमिलाए इन कुछ पत्रकारों से जनोन्मुखी पत्रकारिता की उम्मीद करना बेकार है।
यह मीडिया मूल चरित्र से देश विरोधी है। इस बात को जताते हुए वे कभी झिझकते भी नहीं। वायुसेना प्रमुख बीएस धनोआ ने जब कहा कि हमारी सेना दोनों मोर्चों पर लड़ाई लड़ने की क्षमता रखती है तो इस खास वर्ग में इसकी बड़ी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। आम देशवासियों की दृष्टि से देखें तो वायुसेना प्रमुख का बयान आश्वस्त करने वाला है। सेना प्रमुख कई बार ऐसे बयान सोची-समझी रणनीति के तहत दुश्मन को संदेश देने के लिए जारी करते हैं। कई बार इनका उद्देश्य सैनिकों के मनोबल को बढ़ाना होता है। लेकिन दुश्मन से पहले मीडिया का यह वर्ग तिलमिला जाता है। कई अखबारों और वेबसाइट पर इसे लेकर संदिग्ध किस्म की रिपोर्ट देखने को मिलीं।
गुजरात में चुनाव हैं इसलिए वहां पर हिंदुओं की सामाजिक एकता को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश कांग्रेस प्रायोजित मीडिया ने शुरू कर दी है। इसी प्रयास के तहत खबर छपवाई गई कि गुजरात में मूंछ रखने पर दलित वर्ग के लड़कों की पिटाई की गई। हमारे देश के कुछ हिस्सों में दलितों के साथ भेदभाव की घटनाएं एक कड़वी सामाजिक सच्चाई हैं। लेकिन इनके नाम
पर झूठी खबरें फैलाने से तो उनका अहित ही होगा।
अयोध्या में धार्मिक पर्यटन के विकास के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ नए कदमों की घोषणा की तो हिन्दू विरोधी मीडिया की बौखलाहट सामने आ गई। जब तक प्रदेश में सिर्फ मुगलकालीन इतिहास पर आधारित पर्यटन को बढ़ावा दिया जाता रहा तब तक सब ठीक था। अब अयोध्या, काशी, प्रयाग और चित्रकूट जैसे प्राचीन शहरों को भी पर्यटन मानचित्र पर उभारने की संगठित तरीके से कोशिश की गई तो मीडिया ने इसे 'ताजमहल के महत्व को कम करने की कोशिश' करार दिया। आखिर में एबीपी न्यूज के उस पत्रकार का जिक्र जरूरी है जिसने पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान के खेतों में खड़े होकर बताया कि धान से गेंहू बनता है और गेहूं से रोटी बनाई जाती है। इसका वीडियो सोशल मीडिया पर खूब फैल रहा है। इससे यही पता चलता है कि समाचार संस्थानों में काम कर रहे कई स्वनामधन्य पत्रकार वास्तव में कितने खोखले और जमीन से कटे हुए हैं। पत्रकारिता का स्तर अगर गिर रहा है तो उसके पीछे ऐसे अधकचरे पत्रकारों की बड़ी भूमिका है।
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