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दीपावली। सिर्फ यह बोलने भर से जो उत्सवी उजास मन में फूटती है, उसका मुकाबला किसी अन्य रोशनी से नहीं किया जा सकता। इस रोशनी का स्रोत जितना एक दीपक में है उतना सकारात्मक सोच में भी है। घनी अंधेरी रात में दीपमालिकाएं सजाएं, मुस्काता, शुभकामनाएं बांटता समाज प्रतीक रूप में बहुत कुछ कहता है। गहन से गहन तिमिर को काटने के लिए क्या चाहिए—एक दीया, एक दृढ़संकल्पी मुस्कान, सहयोग-साझेपन के तंतु और परस्पर स्नेह का भाव। भारतीय समाज सदियों से यही सब करते हुए दीपावली मनाता आ रहा है। एक उत्सव पूरे समाज को नई ऊर्जा से भर देता है। फिर यह तो उत्सवों का उत्सव है। ऊर्जा से नहलाकर ताजा कर देने वाली एक बड़ी लहर।
दीपावली को लोग ऐश्वर्य से जोड़कर देखते हैं। सही भी है। देवी लक्ष्मी धन और संपन्नता की प्रदाता हैं। यह उनके पूजन की रात्रि है। परंतु यह रात्रि समृद्धि के प्रदर्शन से ज्यादा गहन आराधन और संसाधनों के बुद्धिसम्मत उपयोग की भी तो है। बुद्धि का प्रयोग केवल पैसा बनाने के लिए किया तो ऐसे पैसे का भी कोई मोल नहीं। लक्ष्मी चंचला हैं, टिकती नहीं। पैसा सहयोग, समन्वय और समर्पण से टिकता है। यदि स्थायी समृद्धि और संतुष्टि चाहिए तो लक्ष्य को सामाजिक सरोकार से जोड़ना होगा। समर्पण बढ़ेगा तो लक्ष्मी टिकेंगी।
दीपावली को लोग ऐश्वर्य से जोड़कर देखते हैं। सही भी है। देवी लक्ष्मी धन और संपन्नता की प्रदाता हैं। यह उनके पूजन की रात्रि है। परंतु यह रात्रि समृद्धि के प्रदर्शन से ज्यादा गहन आराधन और संसाधनों के बुद्धिसम्मत उपयोग की भी तो है। लक्ष्मी पूजन के समय गणेश भी तो वहीं विराजते हैं! भला ‘बुद्धि’ के बिना ‘अर्थ’ निकाला जा सकता है? सनातन धर्म में जो चार पुरुषार्थ माने गए हैं उनमें ‘अर्थ’ भी एक है। लेकिन ‘अर्थ’ को केवल वित्त समझना ठीक नहीं है। अर्थ यानी लक्ष्य। भौतिक जीवन में यदि लक्ष्य तय न हों तो प्राप्ति कुछ भी नहीं होती। यानी, भौतिकता का अर्थ—लक्ष्य का संधान। तभी लक्ष्मी सधेंगी। साथ ही यह भी सच है कि लक्ष्य केवल पैसा हो तो यह कोई लक्ष्य नहीं, इसे ‘अर्थ’-पूर्ण होना होगा। बुद्धि का प्रयोग केवल पैसा बनाने के लिए किया तो ऐसे पैसे का भी कोई मोल नहीं। लक्ष्मी चंचला हैं, टिकती नहीं। पैसा सहयोग, समन्वय और समर्पण से टिकता है। यदि स्थायी समृद्धि और संतुष्टि चाहिए तो लक्ष्य को सामाजिक सरोकार से जोड़ना होगा। समर्पण बढ़ेगा तो लक्ष्मी टिकेंगी।
दीपावली पर पाञ्चजन्य के विशेष संयुक्तांक का नियोजन करते हुए जब संपादकीय टोली बैठी तो मन में यही प्रश्न था— क्या दीपोत्सव का दार्शनिक संदेश विशेषांक की सहज-सरल उदाहरणमय कथावस्तु बन सकता है? ऐसे लोग, जिन्होंने केवल वित्त को नहीं साधा बल्कि जीवन को ही अर्थपूर्ण कर लिया। ऐसे लोग, जो आज अपने आस- पास के लोगों में आस-विश्वास के दीपस्तंभ की तरह खड़े हैं।
प्रस्तुत अंक में हमने पाठकों के सामने उनके ही बीच से उभरे किरदारों को सामने लाने का प्रयास किया है। ऐसी कुछ रोशनियां जो समाज में सकारात्मकता और समन्वय का उजाला बांट रही हैं। बही-खातों पर शुभ-लाभ लिखकर भी खुद को केवल अपने लाभ तक सीमित कर लेने वाले सोच के उलट ये कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने समाज के शुभ में ही अपने लाभ को खोजा। ये कहानियां वाकई अनूठी हैं क्योंकि वे यह बताती हैं कि सिर्फ जुटाने की बजाय लुटाते चलने में भी व्यक्ति क्या कुछ जोड़
सकता है। आपको हमारा यह प्रयास कैसा लगा, बताइएगा। साथ ही बताइएगा यदि आप भी ऐसे कुछ लोगों को जानते हों। ताकि भविष्य में कभी उनकी कहानी भी देश के सामने आए।
अंत में एक संदेश आपके लिए— शुभ-लाभ बही और ड्योढ़ी पर तो खूब लिखा, क्या इस बार इसे अपने मन पर लिखेंगे! अपने जीवन में उतारेंगे!
पाठकों, वितरकों, विज्ञापनदाताओं और समस्त शुभचिंतकों को दीपावली
की शुभकामनाएं।
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