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प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थापना दिवस विजयादशमी (30 सितंबर) पर नागपुर स्थित रेशिमबाग मैदान में संघ का विजयादशमी उत्सव संपन्न हुआ। इस अवसर पर सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों की विस्तार से चर्चा करते हुए समाधान के नाते समाज की सकारात्मक शक्ति के जागरण का आह्वान किया। उन्होंने समाज को शक्तिशाली और स्वावलंबी बनाने पर जोर दिया। श्री भागवत ने देश के सशस्त्र बलों की सराहना करते हुए रोहिंग्या घुसपैठ को एक संकट बताया और उसे उसी रूप में देखकर निदान करने की बात कही। वर्तमान केन्द्र सरकार के तहत बढ़ते भारत के समाजोपयोगी कार्यक्रमों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कृषि और किसानों के हित में और प्रयास करने की आवश्यकता पर बल दिया।
समारोह के विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रसिद्ध संत निर्मलदास जी महाराज को आना था, पर स्वास्थ्य कारणों से वे आ नहीं पाए, परन्तु उन्होंने अपना लिखित संदेश अवश्य प्रेषित किया। इस अवसर पर सामान्य नागरिकों सहित सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र के अनेक गणमान्यजन उपस्थित थे। उत्तर-पूर्व से भी जनजातीय समाज के अनेक बंधु कार्यक्रम में सम्मिलित हुए। प्रस्तुत है सरसंघचालक के उद्बोधन का अविकल पाठ-
यह वर्ष परम पूज्य पद्मभूषण कुशक बकुला रिनपोछे की जन्मशती का वर्ष है, साथ ही स्वामी विवेकानंद के प्रसिद्ध शिकागो अभिभाषण का 125वां वर्ष तथा उनकी शिष्या स्वनामधन्य भगिनी निवेदिता के जन्म का 150वां वर्ष है। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने शिकागो अभिभाषण में भारत की विश्व मानवता के प्रति जिस राष्ट्रीय दृष्टि की घोषणा की थी, उसी का व्यक्तिगत व सार्वजनिक जीवन में प्रकटीकरण आचार्य बकुला जी के द्वारा किया गया।
यह राष्ट्रीय दृष्टि हमारी विरासत है। आदि कवि वाल्मीकि ने इसी दृष्टि के जागरण हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन को अपनी चिरंजीवी कृति महाकाव्य रामायण का विषय बनाया। हमारे प्रमुख अतिथि महोदय के गुरुवर, भक्ति आंदोलन के आचार्य संतशिरोमणि रविदास जी महाराज ने स्वयं के जीवन व उपदेशों से इसी दृष्टि का पुन:जागरण जनसामान्य में किया था। भगिनी निवेदिता द्वारा भी उसी राष्टÑीय आदर्श को चरितार्थ करने वाला हिंदू समाज इस देश में खड़ा करने के लिये सतत समाज जागरण व प्रबोधन के प्रयास किए गए। स्वधर्म व स्वदेश के गौरव को मन में चेताकर करोड़ों देशवासियों की अहर्निश सेवा करते हुए उनको अज्ञान व अभावों से मुक्ति दिलाकर संगठित पुरुषार्थ की प्रेरणा दी गई।
समाज को राष्ट्रगौरव से परिपूर्ण पुरुषार्थ के लिये खड़ा करना है तो देश के चिंतकों, बुद्धिधर्मियों को पहले स्वयं के चित्त से उस विदेशी दृष्टि के विचारों व संस्कारों को—जो गुलामी के कालखंडों में हमारे चित्त को व्याप्त कर उसे आत्महीन, भ्रमित व मलिन कर चुके हैं—हटाकर उनसे मुक्त होना ही होगा। राष्ट्र कृत्रिम पद्धतियों से नहीं बनाये जाते। सत्ता आधारित नेशन स्टेट की कल्पना से हमारी संस्कृति व लोक आधारित राष्ट्र की वस्तुस्थिति एकदम अलग व विशिष्ट है। हम सब की भाषाओं, प्रान्त, पंथ-संप्रदाय, जाति-उपजाति, रीति-रिवाज, रहन-सहन की विविधताओं को एक सूत्र में पिरोने वाली हमारी संस्कृति व उसके जनक, विश्व मानवता को कौटुंबिक दृष्टि से देखकर विकसित हुए सनातन जीवनमूल्य, हमारी ‘हम भावना’ है। वही भावना समाज के व्यक्ति, परिवार तथा समाज के जीवन के सभी अंगों को अनुप्राणित करती हुई उनके क्रियाकलापों से स्पष्ट रूप में आविष्कृत होती है। तब ही अपने राष्ट्रविरोधी का वास्तविक विकास होता है।
इस शाश्वत सत्य का अनुभव अंशत: आज की हमारी स्थिति में शनै: शनै: हमें प्राप्त हो रहा है। योगविद्या तथा पर्यावरण की हमारी अपनी पहल के कारण अंतरराष्ट्र जगत में उस भूमिका की बढ़ती मान्यता व स्वीकार हम सबके मन में विद्यमान अपने प्राचीन राष्ट के प्रति गौरव की सुखद अनुभूति देता है। पश्चिम सीमा पर पाकिस्तान की तथा उत्तर सीमा पर चीन की कार्रवाईयों के प्रति, ‘डोकलाम’ जैसी घटनाओं में उजागर भारत का सीमाओं पर तथा अंतरराष्टÑीय राजनय में सशक्त व दृढ़ प्रतिभाव हमारे मन में स्व-सामर्थ्य की आश्वासक अनुभूति जगाने के साथ ही अंतरराषराष्ट्रय जगत में भी भारत की प्रतिमा को नयी सम्मानजनक ऊंचाई प्रदान करता है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों के एक के बाद एक पराक्रम ज्ञानबल के क्षेत्र में भी हमारे देश की धाक जमाने में सफल होते दिख रहे हैं। देश की आंतरिक सुरक्षा को व्यवस्थित करने में देश आगे बढ़ा है। आवागमन के बुनियादी ढांचे का गति से विस्तार अरुणाचल जैसे सीमावर्ती राज्यों में भी होता हुआ दिख रहा है। महिला वर्ग की समुन्नति को लेकर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाएं भी चल रही हैं। स्वच्छता अभियान जैसे उपक्रमों से नागरिकों में कर्तव्य भावना का संचार कर उनकी सहभागिता भी प्राप्त की जा रही है। कहीं-कहीं मूलगामी बदलाव के प्रयास, जनमानस में नवीन आशा व साथ-साथ अपेक्षाओं का भी सृजन कर रहे हैं। बहुत कुछ हो रहा है, होगा, इसके साथ जो हो रहा है, उसमें तथा और अधिक कुछ होना चाहिए, उसको लेकर समाज में चर्चाएं चल रही हैं। जैसे कश्मीर घाटी की परिस्थिति को लेकर जिस दृढ़ता के साथ सीमा के उस पार से होने वाली आतंकियों की घुसपैठ व बिना कारण गोलीबारी का सामना किया जा रहा है, उसका स्वागत हो रहा है। सेना सहित सभी सुरक्षाबलों को अपने कर्तव्य को करने की छूट दी गई। अलगाववादी तत्वों की उकसाऊ कार्रवाई व प्रचार-प्रसार को, उनके अवैध आर्थिक स्रोतों को बंद करके तथा राष्टÑविरोधी आतंकी शक्तियों से उनके संबंधों को उजागर कर तथा रोककर नियंत्रित किया जा रहा है। उसके सुपरिणाम भी वहां की परिस्थिति में प्राप्त होते दिखते हैं।
भेदभाव रहित, स्वच्छ प्रशासन चाहिए
परंतु लद्दाख, जम्मू सहित संपूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य में भेदभावरहित, पारदर्शी, स्वच्छ प्रशासन के द्वारा राज्य की जनता तक विकास के लाभ पहुंचाने का कार्य त्वरित व अधिक गति से हो, इसकी अभी भी आवश्यकता है। राज्य में विस्थापितों की समस्या का निदान अभी तक नहीं हुआ है। भारतभक्त व हिंदू बने रहने के लिये ही कई दशकों से थोपी गई विस्थापित अवस्था को उनकी पीढ़ियां झेल रही हैं। भारत के नागरिक होते हुए भी वे राज्य की भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते मूल अधिकारों से वंचित रह जाने के कारण शिक्षा, आजीविका तथा प्रजातांत्रिक सुविधाओं से अभी भी दूर हैं, बहुत पिछड़ गए हैं। राज्य के ही स्थायी निवासी पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर से 1947 में आए व कश्मीर घाटी से 1990 से विस्थापित बंधुओं की समस्याएं भी पहले की तरह ही बनी हुई हैं। भारतभक्ति व स्वधर्म भक्ति पर अडिग रहते हुए हमारे ये सब बंधु बराबरी से अपने प्रजातांत्रिक कर्तव्यों का वहन तथा प्रजातांत्रिक अधिकारों का उपयोग करते हुए सुख, सम्मान व सुरक्षा के साथ सब देशवासियों के साथ रह सकें, ऐसी परिस्थिति लानी होगी। यह न्याय-संगत कार्य संपन्न हो सके, इसलिये आवश्यकतानुसार संवैधानिक प्रावधान करने होंगे, पुराने बदलने होंगे। तब ही जम्मू-कश्मीर की प्रजा का शेष भारतीय प्रजा के मानस से सात्मीकरण तथा संपूर्ण राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया में सहयोग व समभाग संभव होगा।
राज्य व केन्द्र शासन-प्रशासन के साथ समाज की भूमिका का भी इस प्रक्रिया में अहम महत्व है। राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों में रहने वाले नागरिक सदैव सीमा पार से चलने वाली गोलीबारी, आतंकी घुसपैठ आदि की छाया में वीरतापूर्वक डटे हैं, एक प्रकार से वे भी इन राष्टÑविरोधी शक्तियों के साथ प्रत्यक्ष युद्धरत हैं।
उनको सदैव इन स्थितियों में सतत असुरक्षा तथा जीवन व आजीविका की अस्त-व्यस्तता को झेलते रहना पड़ता है। शासन व प्रशासन के द्वारा उनको पर्याप्त राहत आदि की व्यवस्था करवाने के साथ-साथ समाज के विभिन्न संगठनों को भी वहां संपर्क बनाकर, अपनी शक्ति में संभव हो उतनी तथा आवश्यकतानुसार सुयोग्य सेवाओं की व्यवस्था करनी चाहिए। इस दिशा में संघ के स्वयंसेवक पहले से ही वहां कार्य में लगे हैं। समाज का सोचना-करना बढ़ने से, प्रशासन व समाज के संयुक्त प्रयासों से व्यवस्था अधिक अच्छी हो सकती है। कश्मीर घाटी तथा लद्दाख के सुदूर सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा संस्कार करने वाले कार्यों की और अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। समाज के सकारात्मक संपर्क, जागरण व प्रबोधन का कार्य, जनमानस को सुविहित आकार देने के लिये समाज के ही प्रयत्नों द्वारा संपन्न कराना इस परिस्थिति की अनिवार्य आवश्यकता है। वर्षों से योजनाबद्ध असत्य कुप्रचार के द्वारा मनों में घोले गये अलगाव व असंतोष के विष को दूर करने के लिये स्वाभाविक अकृत्रिम आत्मीयता का परिचय भी समाज के द्वारा किए गए ऐसे सकारात्मक कार्यों से दिलवाना होगा। राष्टÑविरोधी शक्तियों के षड्यंत्रों से दृढ़तापूर्वक, सामर्थ्य के साथ निबटने की सुविचारित नीति के पीछे जब सम्पूर्ण समाज भी अपना बल समेटकर खड़ा होगा, तब समस्या के सम्पूर्ण निराकरण का मार्ग प्रशस्त होगा।
राष्ट्रविरोधी तत्वों का प्रतिकार हो
यह विचार करना इसलिये भी अत्यावश्यक हो गया है कि भाषा, प्रान्त, पंथ-संप्रदाय, समूहों की स्थानीय तथा समूहगत महत्वाकांक्षाओं को उभारकर समाज में आपस में असंतोष, अलगाव, हिंसा, शत्रुता या द्वेष तथा संविधान कानून के प्रति अनादर का वातावरण बढ़ाते हुए अराजकसदृश्य स्थिति उत्पन्न करने का खेल राष्टÑविरोधी शक्तियां अन्य सीमावर्ती राज्यों में भी खेलती हुई दिखाई देती हैं। बंगाल व केरल की परिस्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं। वहां के राज्यशासन व उनके द्वारा योजनापूर्वक राजनीतिक रंग चढ़ाया हुआ प्रशासन इस गंभीर राष्टÑीय संकट के प्रति केवल उदासीन ही नहीं, तो केवल अपने संकुचित राजनीतिक स्वार्थ के चलते उन राष्ट्रविरोधी शक्तियों की ही सहायता करता हुआ दिखता है। राष्टÑविरोधी गतिविधियों की यह सारी सूचनाएं केन्द्र शासन-प्रशासन के पास पहुंचती हैं। इन सबको निष्फल करने का उनका भी प्रयास निश्चित रूप से चल रहा होगा। परंतु सीमा पार से होनेवाली गो-तस्करी सहित सभी प्रकार की तस्करी चिंता का विषय बनी ही है। देश में पहले से ही अनाधिकृत बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या है, उस पर अब म्यांमार से खदेड़े गए रोहिंग्या भी घुसे हैं तथा बहुत अधिक संख्या में घुसने को तैयार हैं। म्यांमार से लगातार चलती आई उनकी अलगाववादी हिंसक व अपराधी गतिविधि तथा आतंकियों से सांठगांठ ही वहां से उनके खदेडेÞ जाने का मुख्य कारण है। यहां पर वे केवल देश की सुरक्षा व एकात्मता पर संकट ही बनेंगे, यह ध्यान में रखकर ही उनका विचार व निर्णय करना चाहिये। शासन की सोच भी वही दिख रही है। परंतु परिस्थिति की इस जटिलता में पूर्ण सफलता समाज के सहयोग के बिना मिलना संभव नहीं।
देश की सीमाओं की व देश की आंतरिक सुरक्षा का व्यवस्थागत दायित्व सेना, अर्धसैनिक व पुलिस बलों का होता है। स्वतंत्रता के बाद अब तक उसको निभाने में वे पूरी जिम्मेवारी के साथ परिश्रम व त्यागपूर्वक लगे हैं। परंतु उनको पर्याप्त साधन-संपन्न करना, आपस में व देश के सूचना तंत्र के साथ तालमेल बिठाना, उनकी तथा उनके परिवारों के कल्याण की चिंता करना, युद्ध साधनों में देश की आत्मनिर्भरता, इन बलों में पर्याप्त मात्रा में नई भर्ती व प्रशिक्षण, इसमें शासन की पहल की गति अधिक बढ़ानी पड़ेगी। समाज से भी उनके प्रति अधिक आत्मीयता व सम्मान की व उनके परिवारों के देखभाल की अपेक्षा है।
उद्योग, कृषि, पर्यावरण पर दें ध्यान
आर्थिक परिदृश्य भी हमें इसी निष्कर्ष पर पहुंचाता है। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, आर्थिक स्थिति में द्रुतगति से प्रगति तथा समाज के अंतिम व्यक्ति को लाभ पहुंचाने के लिये शासन के द्वारा जनधन, मुद्रा, गैस सब्सिडी, कृषि बीमा जैसी अनेक लोक कल्याणकारी योजनाएं व कुछ साहसी निर्णय किए गए। परंतु अभी भी एकात्म व समग्र दृष्टि से देश की सभी विविधताओं व आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उद्योग, व्यापार, कृषि, पर्यावरण को एक साथ चलाने वाली, देश के बडेÞ उद्योगों से लेकर छोटे, मध्यम व लघु उद्योगों तक को, खुदरा व्यापारियों, कृषकों व खेतिहर मजदूरों तक सबके हितों का ध्यान रखने वाली समन्वित नीति की आवश्यकता प्रतीत होती है। विश्व के अद्यतन अनुभव व अपने देश के धरातल की वास्तविकता— दोनों का ध्यान रखते हुए, अपने देश के आदर्श, परंपरा, आकांक्षा, आवश्यकता व संसाधनों का एकत्र विचार करते हुए, आर्थिक मतवादों की घिसी-पिटी लीक से बाहर आकर हमारे नीति आयोग व राज्यों के नीति सलाहकारों को सोचना पडेÞगा। समाज को भी दिन-प्रतिदिन के उपयोग की वस्तुएं तथा अन्य खरीदारी में स्वदेशी उत्पादन की खरीदी का आग्रह कठोरतापूर्वक रखना पडेÞगा।
सामान्यजन के कल्याण की प्रामाणिक भावना से योजनाएं व नीतियां शासन के द्वारा लागू होती हैं। उनके द्वारा लोगों में उद्यमशीलता बढ़े, वे कार्यप्रवण हों, इसकी भी चिंता करनी चाहिये। शासन के उद्देश्यों की प्रामाणिकता, परिवर्तन के लिये आवश्यक साहसी वृत्ति, प्रमुख लोगों की पारदर्शिता व साख, परिश्रम इस पर सभी का अटूट विश्वास है। बहुत वर्षों के बाद प्राप्त यह सौभाग्य पूर्णफलदायी हो, इसके लिये उपरोक्त मुद्दों का विचार करना पडेÞगा।
रोजगार के उपाय हों
त्रुटिपूर्ण होकर भी सकल घरेलू उत्पाद का मानक अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता व बढ़त की गति के मापक के नाते प्रचलित है। रोजगार भी अपने देश की मुख्य आवश्यकता मानी जाती है। इन दोनों में सबसे बड़ा योगदान हमारे लघु, मध्यम, कुटीर उद्योगों का, खुदरा व्यापार तथा स्वरोजगार के छोटे-छोटे नित्य चलने वाले अथवा तात्कालिक रूप से करने के काम करने वालों का, सहकार क्षेत्र का तथा कृषि और कृषि पर निर्भर कार्यों का है। जागतिक व्यापार के क्षेत्र में होने वाले उतार-चढ़ाव तथा आर्थिक भूचालों से समय-समय पर वे हमारी सुरक्षा का भी कारण बने हैं। अभी भी सुदृढ़ बनी हुई हमारी परिवार व्यवस्था में घर की महिलाएं भी घर बैठे छोटा-मोटा काम कर परिवार की आजीविका में योगदान करती रहती हंै। अर्थव्यवस्था के सुधार और स्वच्छता के उपायों में यद्यपि सर्वत्र थोड़ी बहुत उथल-पुथल व अस्थिरता अपेक्षित है, इन क्षेत्रों में उसका परिणाम न्यूनतम हो व अंततोगत्वा इनका बल बढेÞ, यह ध्यान में रखना पड़ेगा। उनकी कौशल-गुणवत्ता बढ़े, उनके उत्पादनों की गुणवत्ता बढ़े, उनके लिये बाजार की सुविधाएं उत्पन्न हों, ऐसे अनेक कार्य, शासन, स्वयंसेवी संगठन तथा कुछ बडेÞ उद्योग भी नैगमिक सामाजिक दायित्व की कल्पना प्रचलित होने के पहले से हमारी परंपराओं के संस्कार के कारण कर रहे हैं। परंतु कुल मिलाकर हमारे आर्थिक चिंतन में अर्थव्यवस्था उत्पादन को विकेन्द्रित, उपभोग को संयमित, रोजगार को परिवर्धित तथा मनुष्य को संस्कार केन्द्रित बनाने वाली हो तथा ऊर्जा की बचत करने वाली व पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली हो, ऐसा सोचकर बढ़े बिना; देश में अंत्योदय तथा अंतरराष्ट्र जगत में संतुलित, धारणक्षम व गतिमान अर्थव्यवस्था का उदाहरण बनने का हमारा स्वप्न साकार नहीं हो सकेगा। अनुसूचित जाति, जनजाति, घुमंतु जाति जैसे सुविधाओं से वंचित वर्गों के लिये केन्द्र व राज्यों में अनेक प्रावधान हंै। उनका लाभ इन वर्गों के सभी लोगों को मिले, शासन-प्रशासन इस विषय में सजग व संवेदनशील होकर ध्यान दे, इसमें शासन-प्रशासन की तत्परता व सावधानी व समाज के भी सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की आवश्यकता है।
कृषि का क्षेत्र हमारे देश में बहुत बड़ा है तथा हमारा किसान स्वभाव से न केवल अपने परिवार का, अपितु सबका भरण-पोषण करने वाला है। वह आज दुखी है। वह बाढ़, अकाल की, आयात-निर्यात नीति की, फसल बढ़ाने पर भारी कर्जे की व कम भाव की व फसल बरबाद होने पर सब तरह से नुकसान की मार झेलकर निराश होने लगा है। एक भाव घर करता जा रहा है कि नयी पीढ़ी पढ़ेगी तो शहरों में जाकर बेरोजगार बन जाएगी, देहात में रहकर खेती में काम करना पसंद नहीं करेगी और यदि खेती में काम करती है तो देहातों के सुविधाशून्य जीवन में ही पड़ी रहेगी। परिणामस्वरूप गांव खाली हो रहे हैं व शहरों पर दबाव बढ़ता चला जा रहा है। दोनों में विकास की समस्या, शहरों में अपराध की समस्या बढ़ रही है। फसल बीमा जैसी अच्छी योजनाएं प्रवर्तित हुई हैं। मृदा परीक्षण, बाजार से संगणकों द्वारा सीधी खरीदी ऐसे उपयुक्त कदम भी बढ़ाए जा रहे हैं। परंतु धरातल पर इसका अमल ठीक से हो इसलिए केन्द्र व राज्य शासन के द्वारा अधिक चौकसी होनी चाहिये। कर्जमाफी जैसे कदम भी शासन की संवेदना व सद्भावना के परिचायक हैं परंतु केवल तात्कालिक राहत इस समस्या का उपाय नहीं है। नई तकनीकी को भी उसके जमीन, पर्यावरण व मनुष्य के स्वास्थ पर कोई घातक, दीर्घकालिक दुष्परिणाम नहीं है इसकी व्यापक परीक्षा करने के बाद ही स्वीकार करना होगा। अपने लागत व्यय पर लाभ देने वाला फसल का न्यूनतम मूल्य किसानों को मिलना चाहिये। फसल की समर्थन मूल्य पर खरीददारी शासन के द्वारा सुनिश्चित करनी पडेÞगी। जैविक कृषि, मिश्र कृषि, गो आधारित पशुपालन सहित कृषि का प्रचलन बढ़ाना होगा। अन्न, जल व जमीन को विषयुक्त बनानेवाली, किसान का खर्चा बढ़ाने वाली रासायनिक खेती धीरे-धीरे बंद करनी पड़ेगी। अपने देश में बडेÞ प्रमाण में कृषक अल्पभूधारक तथा सिंचन व्यवस्थारहित भूमि में कृषि करने वाला है। उसके लिये तो कम व्यय में विषमुक्त खेती करने का सहज-सुलभ उपाय गो आधारित खेती ही है। इसलिये गोरक्षा तथा गोसंवर्धन की गतिविधि संघ के स्वयंसेवक, भारतवर्ष के सभी संप्रदायों के संत, अनेक अन्य संगठन संस्थाएं तथा व्यक्ति चलाते हैं। गो अपनी सांस्कृतिक परंपरा में श्रद्धा का एक मानबिंदु है। गोरक्षा का अंतर्भाव अपने संविधान के मार्गदर्शक तत्वों में भी है, अनेक राज्यों में उसके लिये कानून विभिन्न राजनीतिक दलों के शासनों के काल में बन चुके हैं। देशी गाय के दूध में ए-2 (।़2) प्रकार का दूध होता है, जिसकी मनुष्य के पोषण की दृष्टि से श्रेष्ठतम उपयुक्तता तथा गोमय व गोमूत्र में पाये जाने वाली मनुष्य व पशुओं की चिकित्सा तथा भूमिसुधार में भी योगदान करने वाले व हानिकारक प्रभावों से रहित खाद व कीटनियंत्रकों के निर्माण में उपयुक्तता अब विज्ञानसिद्ध है और उसके कई अनुसंधान भी चल रहे हैं।
गोधन की तस्करी एक चिंताजनक समस्या बनकर सभी राज्यों, विशेषत: बंगलादेश की सीमा पर उभरकर आयी है। ऐसी स्थिति में ये गतिविधियां और अधिक उपयुक्त हो जाती हैं। ये सभी गतिविधियां उनके सभी कार्यकर्ता कानून, संविधान की मर्यादा में रहकर करते हंै। हिंसा व अत्याचार के बहुचर्चित प्रकरणों में जांच के बाद इन गतिविधियों से व कार्यकर्ताओं से उसका कोई संबंध नहीं, यह भी सामने आया है। इधर के दिनों में उलटे गोरक्षा का प्रयत्न अहिंसक रीति से करने वाले कई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं, उसकी न कोई चर्चा है, न कोई कार्रवाई।
गोरक्षकों पर प्रश्नचिन्ह न लगाएं
वस्तुस्थिति न जानते हुए अथवा उसकी उपेक्षा करते हुए गोरक्षा व गोरक्षकों को हिंसक घटनाओं के साथ जोड़ना व सांप्रदायिक प्रश्न के नाते गोरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाना ठीक नहीं। अनेक मुस्लिम मतानुयायी सज्जनों के द्वारा भी गोरक्षा, गोपालन व गोशालाओं का उत्तम संचालन किया जाता है। गोरक्षा के विरोध में होने वाला कुत्सित प्रचार बिना कारण ही विभिन्न संप्रदायों के लोगों के मन पर तथा आपस में तनाव उत्पन्न करता है, यह मैने कुछ मुस्लिम मतानुयायी बंधुओं से ही सुना है। ऐसे में हाल में सद्हेतु से दिये गये शासन में उच्चपदस्थों के बयान तथा सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से, सात्विक भाव से संविधान कानून की मर्यादा का पालन कर चलने वाले गोरक्षकों को, गोपालकों को चिन्तित या विचलित होने की आवश्यकता नहीं। हितसंबंधी शक्तियों द्वारा ऐसे वाक्यों के गलत अर्थ लगाकर सभी के दृष्टिकोणों को प्रभावित करने के चंगुल से शासन-प्रशासन के लोग भी मुक्त रहें, कानून का अमल अपराधी को अवश्य दंड दें, सज्जनों को उसका उपद्रव न हो, इसकी चिन्ता करें। गोरक्षा व गोसंवर्धन का वैध व पवित्र लोकोपकारी कार्य चलेगा, बढेÞगा। यही इन परिस्थितियों का उत्तर भी होगा।
जलसिंचन की व्यवस्था कृषि की सफलता का और एक प्रमुख कारण होती है। देश को प्रतिवर्ष प्राप्त होने वाली जलराशी के वैज्ञानिक व्यवस्थापन का हमें समग्रता से विचार करना पडेÞगा। विषमुक्त खेती व जलव्यवस्थापन में शासन के द्वारा जलसंचयन, जलसंरक्षण, नदी प्रवाहों का निर्मलीकरण व अविरलीकरण, वृक्षारोपण जैसी उपयुक्त पहलें हो चुकी हैं। समाज में अनेक व्यक्ति जल व्यवस्थापन जैसे विषय पर ‘असरकारी’ पद्धति से काम कर रहे हैं। जंगलों की सुरक्षा व रखरखाव का दायित्व जंगलों में ही स्थित ग्रामवासियों को अधिकृत कर देने का स्तुत्य उपक्रम भी कहीं-कहीं प्रारम्भ हुआ, यह अच्छा लक्षण है।
नयी शिक्षा नीति- रचना जरूरी
राष्ट्र के नवोत्थान में शासन, प्रशासन के द्वारा किये गये प्रयासों से अधिक भूमिका समाज के सामूहिक प्रयासों की होती है। इस दृष्टि से शिक्षा व्यवस्था महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज के मानस में आत्महीनता का भाव व्याप्त हो, इसलिये शिक्षा व्यवस्था की रचनाओं में, पाठ्यक्रम में व संचालन में अनेक अनिष्टकारी परिवर्तन विदेशी शासकों के द्वारा परतंत्रताकाल में लाये गये। उन सब प्रभावों से शिक्षा को मुक्त होना पडेÞगा। नई शिक्षानीति की रचना हमारे देश के सुदूर वनों में, ग्रामों में बसने वाले बालक-तरुण भी शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे, उतनी सस्ती व सुलभ होनी पडेÞगी। उसके पाठ्यक्रम राष्टÑीयता व राष्ट्रगौरव का बोध जागृत कराने वाले तथा प्रत्येक छात्र में आत्मविश्वास, उत्कृष्टता की चाह, जिज्ञासा, अध्ययन व परिश्रम की प्रवृत्ति जगाने के साथ-साथ शील, विनय, संवेदना, विवेक व दायित्वबोध जगाने वाले होने चाहिए। शिक्षकों को छात्रों का आत्मीय बनकर स्वयं के उदाहरण से यह बोध कराना पडेÞगा। शिक्षा का बाजारीकरण समाप्त हो, इसलिये शासकीय विद्यालयों, महाविद्यालयों को भी व्यवस्थित कर स्तरवान बनाना पडेÞगा। इस दिशा में समाज में भी अनेक सफल प्रयोग चल रहे हैं, उनके अनुभवों का भी संज्ञान लेना पडेÞगा।
परंतु क्या शिक्षा केवल विद्यालयीन शिक्षा होती है? क्या अपने स्वयं के घर-परिवार, अपने माता-पिता, घर के ज्येष्ठ, अड़ोस-पड़ोस के वरिष्ठों की कथनी व करनी से, उनके आचरण की प्रामाणिकता व भद्रता की, संस्कारों से युक्त मनुष्यता के व्यवहार, करुणा व सहसंवेदना की सीख नहीं मिलती? क्या समाज में चलने वाले उत्सव, पर्वों सहित सभी उपक्रमों, अभियानों, आंदोलनों से मन, वचन, कर्म के संस्कार उन्हें नहीं मिलते? क्या माध्यमों के द्वारा, विशेषकर अंतरताने पर चलने वाले सूचना प्रसारण के द्वारा उनके चिन्तन व व्यवहार पर परिणाम नहीं होता? ब्लू व्हेल खेल इसका ही उदाहरण है। इस खेल के कुचक्रों से अबोध बालकों को निकालने के लिये शीघ्र ही परिवार, समाज एवं शासन द्वारा प्रभावी कदम उठाने होंगे।
हाल ही में छोटे-मोटे कारणों को लेकर समाज का रास्ते पर उतरना, नागरिक कर्तव्य, कानून, संविधान के प्रति उदासीनता या अनादर दिखाते हुए बिना कारण हिंसा पर उतारू होना, ऐसे वातावरण का लाभ समाज विरोधी आपराधिक प्रवृत्तियों ने तथा समाज की श्रद्धा, एकात्मता व शांति को भंग करना चाहने वाली राष्ट्रविरोधी शक्तियों ने उठाना, ऐसी जो घटनायें घट रही हैं, उनका मूल समाज के असंतोष अथवा उस पर खेलने वाली स्वार्थी राजनीति या अन्य तत्वों के बराबर मात्रा में समाज के विवेक, संस्कार तथा दायित्वबोध के अभाव में भी है।
व्यक्तिगत आचरण व सामूहिक जीवन के सुसंस्कार परिवार व समाज के जीवन से भी नई पीढ़ी को प्राप्त होने चाहिये। अपने संपर्क, स्वयं का उदाहरण तथा नि:स्वार्थ सेवा के द्वारा समाज में न्याय, समरसता व सहसंवेदना का, संस्कारयुक्त आचरण का वातावरण बनाने में संघ स्वयंसेवकों सहित अनेक संगठन व व्यक्ति लगे हैं। परंतु संपूर्ण समाज को ही अपनी कुरीतियां व आचरण की विसंगतियों की आदत को त्यागकर संस्कार व सद्भावनायुक्त आत्मीय, समदृष्टि आचरण अपनाना पड़ेगा, तभी ये सारे प्रयत्न पूर्ण फलदायी होंगे। पिछले कुछ समय से पारिवारिक संबंधों में बिखराव एवं सामाजिक विद्रूपताओं के अनेक चिंताजनक उदाहरण सामने आये हैं, ये घटनायें परिवारों एवं समाज जीवन में संस्कारों के स्खलन की ही संकेत हैं। अत: हमें कुटुंब एवं समाज प्रबोधन के माध्यम से सद्संस्कार जागरण के कार्य को अधिक गति से बढ़ाना होगा। इस संबंध में भगिनी निवेदिता ने कहा है-
‘‘समाज कुटुंब की शक्ति है। नागरिक सभ्य जीवन की पृष्ठभूमि में गृहजीवन है और नागरिक सभ्य जीवन राष्टÑीयता का पोषण करता है। मनुष्यों को जोड़ने वाला यह सूत्र है। इन चारों तत्वों के आवश्यक अंश को हमें हमारे प्राचीन धर्म ने दिया है, परंतु हमने उनके प्रति अपनी अधिकांश चेतना को सुला दिया है। हमें पुन: अपने स्वयं की संचित निधि के अर्थ को समझना पडेÞगा।’’
इसलिये सद्यस्थिति में शासन की भारतीय मूल्याधारित नीति तथा प्रशासन द्वारा उसका प्रामाणिक, पारदर्शी व अचूक क्रियान्वयन जितना आवश्यक है, उतना ही समाज का राष्ट्रहितैक बुद्धि से संघबद्ध, गुणवत्तायुक्त व अनुशासित होकर चलना इसकी आवश्यकता है।1925 से राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ इसी कार्य में लगा है। अपने राष्ट्र के स्वरूप की स्पष्ट कल्पना जिनकी बुद्धि में है तथा वाणी उतनी ही स्पष्टता से निर्भयतापूर्वक उसको मुखरित करने का साहस रखती है, मन में अपनी इस पवित्र अखंड मातृभूमि की भक्ति तथा उसके प्रत्येक पुत्र के प्रति अपार आत्मीयता व संवेदना भरी है। अपने पराक्रमी व त्यागी पूर्वजों का गौरव जिनके अंत:करण का आलंबन है व इस राष्ट्र को परमवैभवसंपन्न बनाने के लिये सर्वस्वत्याग ही जिनकी सामूहिकता की व कर्म की प्रेरणा है, ऐसे कार्यकर्ताओं का देशव्यापी समूह बनाने का यह कार्य अपने 93वें वर्ष में पदार्पण कर रहा है। कार्य निरंतर गति से बढ़ रहा है। राष्ट्रजीवन के सभी अंगों में संघ के स्वयंसेवक सक्रिय हैं। विश्वगुरु भारत के पूर्ण स्वरूप का प्रकटन हम आने वाले कुछ ही दशकों में कर सकेंगे, ऐसी अनुकूलता सर्वदूर विद्यमान है, अवसर को तत्परतापूर्वक पकड़ना हमारा कर्तव्य है।
कोटि कोटि हाथोंवाली मां का अद्भुत आकार उठे
लख विश्वनयन विस्फार उठे जगजननी का जयकार उठे॥
हिन्दूभूमि का कणकण हो अब शक्ति का अवतार उठे
जलथल से अंबर से फिर हिन्दू की जय जयकार उठे
जगजननी का जयकार उठे॥
॥ भारत माता की जय ॥
‘देखो सबको एक समाना’
समारोह के विशिष्ट अतिथि संत निर्मल दास थे। पर अस्वस्थ होने के कारण वे समारोह में शामिल नहीं हो पाये। उन्होंने कार्यक्रम के निमित्त जो संदेश भेजा, वह इस प्रकार है:
इस मंच के माध्यम से मैं भारतवासियों को संदेश देना चाहता हूं कि सब प्राणियों में परमात्मा का अंश है। वे सब में एक समान रूप से हैं। ‘सब में जोत, जोत है सोई’ इसलिए सबको मिल-जुलकर रहना चाहिए, किसी में ऊंच-नीच नहीं देखनी चाहिए, सबको मिलकर समाज व देश के विकास व रक्षा में योगदान देना चाहिए। श्री गुरु रविदास जी ने कहा है, ‘सत संगति मिल रहिये माधो, जैसे मधुप मखीरा’ यानी सबको ऐसे मिलकर रहना चाहिए जैसे मधुमक्खियां रहती हैं। श्री गुरु रविदास जी ने राजपाट के बारे में कहा, ‘ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सभन को अन्न, छोट बड़े सम बसैं, रविदास रहे प्रसन्न’। सबको समान भाव से रहना चाहिए व सबकी न्यूनतम जरूरतें—रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा आदि समान रूप से पूरी हों, ऐसे राज में ही सब प्रसन्न रह सकते हैं।
बाल स्वयंसेवकों का शस्त्रपूजन
नागपुर के बाल एवं शिशु स्वयंसेवकों का शस्त्रपूजन और विजयदशमी उत्सव 24 सितम्बर को तीन स्थानों पर सम्पन्न हुआ। उत्तर नागपुर में आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए महानगर के सुप्रसिद्घ होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ. मुनव्वर युसुफ ने कहा, ‘‘यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी है तो लक्ष्य निर्धारित करो और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दो।’’ उन्होंने कहा कि आत्मविश्वास को किसी भी सूरत में कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिए। नागपुर महानगर संघचालक श्री राजेश लोया तथा अन्य संघ अधिकारी भी कार्यक्रम में उपस्थित थे।
नरेन्द्रनगर में आयोजित एक अन्य कार्यक्रम को संबोधित करते हुए नाथे प्रकाशन के निदेशक और रोजगार संघ के अध्यक्ष प्रो संजय नाथे ने कहा कि संघ में जिम्मेदारी का भाव पैदा किया जाता है। नागपुर महानगर सेवा प्रमुख श्री माधवराव उरदे और अजनी भाग संघचालक श्री बापूराव देशकर भी कार्यक्रम में उपस्थित थे।
स्नेहनगर में आयोजित कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रमुख स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. चैतन्य शेम्बेकर थे। सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत भी इस मौके पर उपस्थित थे। डॉ. शेम्बेकर ने आधुनिक जीवन में उभर रही चुनौतियों को सामना करने के लिए स्किल डेवलपमेंट पर जोर दिया। सोमालवाडा भाग संघचालक श्री सुधीर वर्हाडपांडे एवं श्री पंकज कोठारी भी कार्यक्रम में उपस्थित थे।
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