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ऋतुओं के सतत् परिवर्तन की भूमि भारत में यूं तो बारहों माह कोई न कोई उत्सव रहता है। लेकिन भाद्रपद के खत्म होते-होते, एक के बाद एक त्योहार माहौल में नया जोश भर देते हैं। नवरात्र भी ऐसा ही एक पर्व है जब आसेतु हिमाचल शक्ति की उपासना की जाती है
पूनम नेगी
ऋग्वेद के देवी सूक्त में मां आदिशक्ति कहती हैं, ‘अहं राष्ट्रे संगमती बसना अहं रुद्राय धनुरातनोमि…’ अर्थात् ‘‘मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं। मैं ही रुद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूं।’’ वैदिक चिंतन कहता है कि मां आदिशक्ति ही विविध अंश रूपों में सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं। उनके बिना समस्त देवशक्तियां अपूर्ण हैं। देवी दुर्गा वस्तुत: स्त्री शक्ति की अपरिमितता की द्योतक हैं। हमारे ऋषियों ने आदिशक्ति की इसी गौरव-गरिमा को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए ऋतु परिवर्तन की वेला में नवरात्र उत्सव का विधान बनाया।
शक्ति की आराधना की युगानुकूल तात्विक विवेचना करते हुए वेदमाता गायत्री के सिद्ध साधक व युगमनीषी पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है कि ऋतु परिवर्तन की नौ दिवसीय नवरात्र साधना अवधि शक्ति संचय की दृष्टि से अति विशिष्ट होती है। नवरात्र ऐसा देवपर्व है जिसे अध्यात्म क्षेत्र में मुहूर्त विशेष की मान्यता प्राप्त है। यह पर्व लोकजीवन को देव-जीवन की ओर उन्मुख करता है। वस्तुत: महिषासुर, शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ आदि असुर और कुछ नहीं, हमारे अंतस में स्थित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मद, आलस, लालच जैसी दुष्प्रवृत्तियां ही हैं, जो हमारी अच्छाइयों को उबरने नहीं देतीं और हम अनजाने ही पतन की राह पर चल पड़ते हैं। नवरात्र का पुण्य फलदायी साधनाकाल हमें अपने भीतर सद्प्रवृत्ति जगाकर दुष्प्रवृत्तियों को नष्ट करने का अवसर देता है। जगत्जननी परम कल्याणमयी हैं, उनकी आराधना से तत्काल नयी शक्ति की उद्भावना होती है। वे दुर्ग यानी किले की भांति शरणागत को अभय देने वाली दुर्गतिनाशिनी हैं। इन दिनों भगवती दुर्गा की आराधना पुरुषार्थ साधिका के रूप में की जाती है। सर्वप्रथम श्रीराम ने रावण से युद्ध के पूर्व नवरात्र काल में मां शक्ति की आराधना की थी। देवी ने उन्हें विजय का वरदान भी दिया था। कहते हैं, देवी की आराधना रावण ने भी की थी पर मां ने उसे ‘कल्याणमस्तु’ का आशीर्वाद नहीं दिया था। यह प्रसंग हिन्दू दर्शन के उस उत्कृष्ट चिंतन का परिचायक है कि शक्ति उसी को फलित होती है जो सत्य, न्याय व मर्यादा पर चलता है।
नवरात्र की समृद्ध परम्पराएं
जगत्जननी मां दुर्गा की आराधना का नवरात्र उत्सव तमाम क्षेत्रीय विशिष्टताओं के साथ समूचे देश में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। जहां समस्त उत्तर भारत व उत्तराखंड में रामलीलाओं की धूम दिखती है वहीं पश्चिमी बंगाल में महिषासुरमर्दिनी का पूजन प्रचलित है। गुजरात में गरबा और मैसूर व कुल्लू में दशहरा उत्सव के अनोखे रंग देखने वाले होते हैं। अनेक प्रेरणादायी शिक्षणों को संजोये मां जगदंबा की आराधना का यह पर्व सदियों से भारतीय जनमानस को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में गूंथे हुए है।
बंग समाज की पारम्परिक दुर्गापूजा
बंग समाज की पारम्परिक दुर्गापूजा का एक अलग ही आकर्षण है। बंग समाज में मान्यता है कि नवरात्र वेला में मां दुर्गा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को सपरिवार धरती पर आती हैं और महिषासुर का वध करके आश्विन शुक्ल दसवीं तिथि को पृथ्वी से विदा हो जाती हैं। यहां भव्य पूजा पंडालों में विराजमान महिषासुरमर्दिनी के साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणीपाणि सरस्वती, मूषक पर सवार गणेश व मयूर पर सवार कार्तिकेय भी विराजमान रहते हैं। ये देव प्रतिमाएं हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रेरक शक्तियां हैं। जहां महिषासुर अन्याय, अत्याचार व पापाचार का प्रतीक है तो वहीं देवी दुर्गा हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का। पांच दिन तक चलने वाले दुर्गापूजा उत्सव की शुरुआत षष्ठी के दिन भव्य पूजा पंडालों में मां दुर्गा की प्रतिमाओं की स्थापना के साथ होती है। दुर्गा देवी के बोधन, आमंत्रण के उपरांत प्राण प्रतिष्ठा समारोह में पुरातन बंग संस्कृति की परम्पराओं का सौंदर्य आज भी कायम है। विधिवत् स्थापना के उपरान्त सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन प्रात:काल और संध्यावेला में शंखध्वनि के साथ मां दुर्गा की भव्य पूजा-आरती व प्रसाद वितरण का क्रम चलता है। अष्टमी की महापूजा की विधि वाकई देखने वाली होती है। दशमी को एक विशेष पूजा होती है। इस दिन स्त्री व पुरुषों के अलग-अलग समारोह जनाकर्षण के केन्द्र होते हैं। जब महिलाएं पारम्परिक वाद्ययंत्र ढाक की धुन पर देवी की प्रतिमा के समक्ष ‘शिंदूर खैला’ खेलती हैं तो एक अलग ही समां बंध जाता है। बांग्ला पूजन समारोहों में धुनुची नृत्य का खास महत्व होता है। सुहागिनें माता को शिंदूर अर्पित कर एक दूसरे को सिंंदूर लगाकर अपने सुहाग की सलामती की कामना करती हैं। दूसरी ओर पुरुष विजयादशमी के दिन माता की पूजा-अर्चना के बाद एक दूसरे को गले लगाकर शुभकामनाएं देते हैं। यह समारोह ‘कोलाकुली’ के नाम से विख्यात है। ‘शिंदूर खेला’ और ‘कोलाकुली’ के बाद मां को भावपूर्ण विदाई देकर उनकी प्रतिमाओं को जल में विर्सजित किया जाता है।
इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत 11वीं सदी में हुई थी। ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को इस पर्व को समूचे बंगाल के जनजीवन में प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी, जिसमें सर्वप्रथम प्रतिमा निर्माण के लिए एक खास तरह की मिट्टी का इस्तेमाल किया गया जो सोनागाछी (गणिकाओं के इलाके) से लाई गई थी। कहा जाता है कि दुर्गा मां ने अपनी एक भक्त गणिका को सामाजिक तिरस्कार से बचाने के लिए वरदान दिया था कि उसके यहां की मिट्टी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी, तभी से यह परम्परा शुरू हुई। बंगभूमि से शुरू हुआ दुगार्पूजा का सांस्कृतिक वैभव आज समूचे देश में फैल चुका है।
त्रिपुरा की दुर्गापूजा
पूर्वी भारत में त्रिपुरा के पूर्व राजा कृष्ण किशोर माणिक्य बहादुर ने 19वीं सदी में दुर्गापूजा की शुरुआत की थी। राज्य सरकार द्वारा सुप्रसिद्ध उज्जयंत महल के सामने निर्मित दुर्गाबाड़ी मंदिर में बीते 200 साल से दुगार्पूजा का आयोजन किया जा रहा है। गौरतलब है कि जब त्रिपुरा ने 15 अक्तूबर, 1949 में भारत सरकार के साथ विलय पर हस्ताक्षर किए थे तब इस बात पर सहमति बनी थी कि राज्य दुर्गाबाड़ी मंदिर, गोमती जिले के उदयपुर में त्रिपुरेश्वरी काली मंदिर और कुछ अन्य प्रमुख मंदिरों की देखभाल और खर्च का वहन राज्य सरकार करेगी। यह परम्परा तब से अनवरत चली आ रही है। राज्यभर के लोगों के आकर्षण का केन्द्र इस पूजा की खास बात यह है कि यहां मां आदिशक्ति की परम्परागत अष्टभुजी प्रतिमा से इतर सिर्फ दो भुजाओं वाली प्रतिमा की पूजा की जाती है। इसके पीछे एक रोचक कथा है। बताया जाता है कि अष्ट भुजाओं वाली देवी प्रतिमा को देख रानी कृष्ण किशोर बेहोश हो गर्इं, तब मंदिर के पुजारियों ने विचार-विमर्श कर दुर्गा देवी की छह भुजाओं को प्रतिमा के पीछे छुपा दिया।
तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक की दुर्गापूजा में नवरात्र पर तीन महाशक्तियों लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है। इन राज्यों में प्रथम तीन दिन लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है। फिर तीन दिन विद्या की देवी माता सरस्वती की पूजा- अर्चना की जाती है और अंतिम तीन दिन शक्ति की देवी मां दुर्गा का पूजा-अर्चना की जाती है। तमिलनाडु में नवरात्र को ‘गोलू’ पर्व के नाम से मनाया जाता है। यहां के लोग मां दुर्गा की उपासना के लिए अपने घरों में 100 तरह की छोटी-बड़ी मूर्तियां रखते हैं। नवमी पर वे अपने घर की सभी मूर्तियां पूजा पंडाल में ले जाकर रख देते हैं। एक ही पंडाल में दुर्गा मां की तरह-तरह की मूर्तियां होने से वह किसी म्यूजियम जैसा दिखता है।
कश्मीर में भी नवरात्र
कश्मीर में अल्पसंख्यक हिन्दू समाज नवरात्र के पवित्र त्योहार को अलग ही अंदाज में मनाता है। यहां का पंडित समाज नवरात्र के दिनों में उपवास कर विधि विधान से मां भवानी की पूजा करता है। कश्मीर के हिन्दू परिवारों की क्षीरभवानी व वैष्णो माता में बहुत आस्था है और ये लोग इन दिनों माता के दर्शन को बहुत शुभ मानते हैं। यहां के लोगों की मान्यता है कि विजयदशमी के दिन जो तारा उगता है, उस समय को विजय मुहूर्त माना जाता है। हालांकि कश्मीर में पलायन के बाद इसका रंग फीका पड़ा है।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा व पंजाब में दशहरा उत्सव से पूर्व नौ दिन तक नवरात्र में मां दुर्गा की उपासना पूरी श्रद्धा भक्ति से की जाती है। अष्टमी या नवमी को कन्याभोज व हवन-पूजन के साथ माता के भक्त अपना नौ दिवसीय उपवास पूरा करते हैं। विजयादशमी यानी दशहरे की शाम बुराई पर अच्छाई के प्रतीक रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन किया जाता है। नवरात्र काल में इन क्षेत्रों में दुर्गा सप्तशती, मानस पाठ, सुंदर कांड व भागवत कथा व रामलीलाओं की धूम दिखती है। देवी मंदिर भी इन दिनों मां के जयकारों से गूंजते रहते हैं। बीते कुछ सालों में दुर्गापूजा, डांडिया व गरबा के आयोजन भी इन क्षेत्रों में खासे लोकप्रिय हो चुके हैं।
महाराष्ट्र में विद्यारम्भ
महाराष्टÑ के पारम्परिक हिन्दू समाज में नवरात्र के नौ दिनों में मां दुर्गा को पूजा जाता है और दसवें दिन माता सरस्वती का पूजन किया जाता है। इसके पीछे इन लोगों का मानना है कि विजयादशमी के शुभ दिन मां सरस्वती की पूजा करने से पढ़ने वाले बच्चों पर मां सरस्वती का आशीर्वाद बना रहता है। इसलिए इस दिन को विद्यारम्भ के लिए बहुत शुभ माना जाता है। नवरात्र काल में यहां एक सामाजिक उत्सव सिलंगण का आयोजन किया जाता है जिसमें गांव के लोग नये कपड़े पहनकर शमी वृक्ष की पूजा करते हैं और शुभत्व के प्रतीक रूप में शमी वृक्ष के पत्ते एक दूसरे को भेंट करते हैं।
कामाख्या का कुमारी पूजन
असम में कामाख्या शक्तिपीठ का कुमारी पूजन अद्भुÞत है। कामाख्या में कुमारी पूजा का चलन उतना ही पुराना है जितना कामाख्या का इतिहास। इसके लिए पांच से 13-14 वर्ष की बालिकाओं का चयन किया जाता है। यहां नवरात्र के पहले दिन एक ही कुमारी कन्या की पूजा होती है। दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन और इसी तरह क्रम आगे बढ़ाते हुए अंतिम दिन यानी नवमी के दिन नौ कुमारियों की भव्य पूजा की जाती है। मंदिर के पुजारियों की मानें तो इस अवधि में नीलांचल पर्वत पर मां कामाख्या कुमारी रूप में प्रतिपल मौजूद रहती हैं, इसी कारण नवरात्र काल में इन जीती-जागती मांओं (कन्याओं) की पूजा कर सच्चे मन से जो भी मांगा जाता है, वह जरूर मिलता है। कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद भी कुमारी पूजा करने कामाख्या आये थे।
स्वतंत्रता सेनानियों ने शुरू की थी बिहार में दुर्गापूजा
यूं तो बिहार की राजधानी पटना समेत कई स्थानों पर विभिन्न पूजा समितियां मां दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित कराती हैं, लेकिन पटना के लंगरा टोली स्थित बंगाली अखाड़े की 123 साल पुरानी दुगार्पूजा इस मायने में खास है कि इसका शुभारंभ उन स्वतंत्रता सेनानियों ने किया था जिन्होंने अंग्रेजों से बचने के लिए यहां दुर्गा मंदिर बनाया था। कहा जाता है कि 1893 से पूर्व यहां आजादी के दीवाने जुटते थे और अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीतियां तैयार की जाती थीं। अंग्रेजों को शक न हो इसलिए यहां दुर्गा मंदिर की स्थापना की गई थी। मंदिर स्थापना के बाद यहां1893 से शारदीय नवरात्र के मौके पर दुर्गा पूजा होने लगी। खास बात यह है कि यहां दुर्गा पूजा के मौके पर मां दुर्गा की प्रतिमा को बगैर किसी काट-छांट के साड़ी पहनाई जाती है। इस समारोह में विजयादशमी के दिन मां की विदाई चूड़ा-दही खिलाकर करने की परंपरा है, जिसका निर्वहन सालों से होता आ रहा है।
असम व ओडिशा में भी दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाल की तरह ही धूमधाम से मनाया जाता है। बिहू के बाद दुगार्पूजा असमिया समुदाय का सबसे लोकप्रिय त्योहार है। कहा जाता है कि असम में मिट्टी की मूर्तियों के साथ पहली बार दुर्गापूजा कामाख्या, दिघेश्वरी व महाभैरवी मंदिर में आयोजित की गई थी। असम के मुख्य शहर सिल्चर में दुर्गापूजा की शुरुआत दिमासा राजा सुरदर्पा नारायण के शासन के दौरान शुरू हुई थी।
विश्व का सबसे लम्बा उत्सव बस्तर का दशहरा मेला
छत्तीसगढ़ प्रांत के बस्तर संभाग का दशहरा इस मायने में परम्परागत उत्सव से भिन्न है कि यहां के लोग इसे श्रीराम की रावण पर विजय के रूप में न मनाकर मां दंतेश्वरी की आराधना के पर्व के रूप में मनाते हैं। मां दंतेश्वरी बस्तरवासियों की कुल देवी हैं। पूरे 75 दिन तक चलने वाला बस्तर का दशहरा उत्सव विश्व का सबसे लम्बी अवधि तक चलने वाला उत्सव माना जाता है। इस पर्व की तैयारियां श्रावण मास की हरेली अमावस्या से शुरू हो जाती हैं। यह पर्व लगभग 500 वर्ष से परंपरानुसार मनाया जा रहा है। इस लम्बी अवधि में प्रमुख रूप से काछन गादी, पाट जात्रा, जोगी बिठाई, मावली जात्रा, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा मुरिया दरबार आदि मुख्य रस्में होती हैं। रथ परिक्रमा प्रारंभ करने से पूर्व काछनगुड़ी में वंचित समाज की कुंवारी कन्या को कांटे के झूले में बिठाकर झूलाते हैं तथा उससे पर्व की अनुमति व सहमति ली जाती है। बस्तर दशहरा का आकर्षण का केंद्र होता है काष्ठ निर्मित विशालकाय दोमंजिला भव्य रथ, जिसे सैकड़ों ग्रामीण वनवासी उत्साहपूर्वक खींचते हैं और रथ पर सवार होता है बस्तर का सम्मान, ग्रामीणों की आस्था व भक्ति का प्रतीक दंतेश्वरी माई का छत्र। बस्तर का राजपरिवार इसमें पूरे उत्साह से शामिल होता है।
मैसूर का विश्व प्रसिद्ध दशहरा उत्सव
मैसूर का दशहरा अंतरराष्ट्रीय उत्सव के रूप में आज अपनी अलग पहचान बना चका है। इसमें शामिल होने के लिए देश-विदेश से प्रतिवर्ष हजारों पर्यटक यहां आते हैं। इस उत्सव में कई प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इसमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है12 हाथियों का परम्परागत जुलूस। इस जुलूस का आयोजन मैसूर राजमहल से किया जाता है जिसमें रंग-बिरंगे वस्त्राभूषणों से सजे कई गजराज एक साथ शोभायात्रा के रूप में इकट्ठे चलते हैं। इन सबका नेतृत्व करने वाले विशेष हाथी ‘अम्बारी’ की पीठ पर 750 किलो के स्वर्ण हौदे पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा रखी जाती है। यह भव्य हस्ति यात्रा मैसूर राजमहल से तीन किलोमीटर की दूरी तय कर बन्नीमंडप पहुंचकर समाप्त होती है।
कहा जाता है कि मैसूर दशहरे का इतिहास विजयनगर साम्राज्य से जुड़ा है। वाडियार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णदेव वाडियार की इच्छा थी कि यह पर्व खूब धूमधाम से मनाया जाए ताकि आने वाली पीढ़ियां इस उत्सव को याद रखें। इसके लिए उन्होंने उत्सव में होने वाले कार्यक्रमों की एक निर्देशिका भी बनवाई थी जिसमें लिखा था कि कुछ भी हो जाए, दशहरा पर्व मनाने की परम्परा टूटनी नहीं चाहिए। कहते हैं कि दशहरे के एक दिन पूर्व राजा के पुत्र नंजाराजा की मृत्यु हो गई, लेकिन राजा वाडियार ने दिल पर पत्थर रख कर बिना किसी अवरोध के दशहरा उत्सव आयोजित कर इस परम्परा को कायम रखा।
कुल्लू का अनोखा दशहरा उत्सव
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा पारम्परिक और ऐतिहासिक दृष्टि से एक अलग ही महत्व रखता है। इस पर्व को मनाने की परम्परा राजा जगत सिंह के काल (17वीं शताब्दी) से चली आ रही है। कथानक के अनुसार राजा जगत सिंह ने एक साधु की सलाह पर कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा स्थापित की थी। दरअसल राजा किसी असाध्य रोग से पीड़ित थे और इसी से मुक्ति पाने के लिए साधु ने उन्हें यह सलाह दी थी। अयोध्या से लाई गई इस मूर्ति की स्थापना की बाद राजा जगत सिंह स्वस्थ होने लगे और फिर उन्होंने अपना शेष जीवन भगवान् को समर्पित कर दिया।
खास बात यह है कि कुल्लू का यह अनोखा दशहरा उत्सव विजयादशमी के बाद से मनाया जाता है। सात दिन चलने वाले इस उत्सव के अंत में यहां रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले नहीं जलाए जाते बल्कि बुराई के प्रतीक स्वरूप लंका का दहन किया जाता है। घालपुर मैदान में होने वाले दशहरा पर्व में कुल्लू घाटी के अतिरिक्त सेराज और रूपी घाटियों तथा अन्य अनेक गांवों से स्थानीय लोग अपने देवी-देवताओं को मंदिरों से बाहर लाकर अत्यन्त श्रद्धा और पवित्रता से उन्हें सजी हुई पालकियों में बैठाकर नगाडेÞ व तुरही के नाद के साथ दशहरा मैदान में लाते हैं। यह मनोरम दृश्य देखने लायक होता है। कुल्लू के राजाओं की कुल देवी हिडिंबा को मनाली से यहां लाया जाता है। देवी के पहुंचने पर ही उत्सव प्रारंभ होता है।
कुल्लू और शांगरी राजवंश के लोग प्राचीन परंपरा के अनुसार श्री रघुनाथ जी और अन्य देवी-देवताओं की परिक्रमा करते हैं। उसके बाद श्रद्धापूर्वक श्री रघुनाथ जी के रथ को रस्सों से खींचते हुए मैदान के एक ओर ले जाया जाता है, जहां वह सात दिन तक रहते हैं। इस उत्सव के दौरान कुल्लू के सामाजिक रीति-रिवाज, लोगों के रहन-सहन, संगीत और नृत्य के प्रति उनके प्रेम के साथ ही क्षेत्रीय इतिहास और धार्मिक आस्थाओं का सजीव रूप नजर आता है।
तुलसी ने शुरू कराया था रामलीलाओं का मंचन रामलीला के मंचन का श्रेय वस्तुत: गोस्वामी तुलसीदास को जाता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम अवध, काशी के चित्रकूट से रामलीलाओं का शुभारम्भ किया था। 17वीं शताब्दी की बात है। रामचरितमानस् लिखने के बाद उन दिनों गोस्वामी जी अवध क्षेत्र में घूम-घूमकर मानस पाठ का प्रचार कर रहे थे। एक दिन वे ऐशबाग क्षेत्र के छांछी कुंआ मंदिर परिसर में बने अखाड़े (आज का रामलीला मैदान) में रुके हुए थे। उसी दौरान वहां अयोध्या के कई साधु-संतों ने भी डेरा डाला हुआ था। तुलसीदास जी ने अखाड़े में मौजूद उन साधुओं के समक्ष श्रीराम की लीला के मंचन का प्रस्ताव रखा तो वे सहर्ष तैयार हो गये। उन्होंने जिस खूबसूरती से रामलीला को आम जनता के सामने पेश किया, उसे काफी पसंद किया गया। उसके बाद से सर्वत्र रामलीला के मंचन की परम्परा शुरू हो गई।
सांप्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल : अवध की रामलीला
अवध क्षेत्र में 500 साल पुरानी ऐशबाग (लखनऊ) की रामलीला सांप्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल मानी जाती है। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि यह रामलीला नवाबी दौर में खूब फली-फूली।
कहते हैं, अवध के नवाब आसफुद्दौला पूरे प्रांत में सांप्रदायिक सौहार्द के आग्रही थे। वे खुद भी रामलीला में बतौर पात्र अभिनय करते थे। उन्होंने ही ऐशबाग क्षेत्र में रामलीला के मंचन और ईदगाह के लिए बराबर-बराबर साढ़े छह-छह एकड़ जमीन दान दी थी। आजादी से पूर्व इस रामलीला को अंग्रेज सरकार से भी सहायता मिलती थी और वर्तमान समय में यह काम नगर निगम कर रहा है।
प्रख्यात अवधविद् योगेश प्रवीण बताते हैं कि अवध के तीसरे नवाब मौलाना मोहम्मद अली शाह (1833-42) ने शाही खजाने से रामलीला के लिए मदद भेजी थी। उनके हाथ का लिखा हुआ इस शाही मदद का एक पर्चा पिछली शताब्दी में लखनऊ के बिरहाना मुहल्ले में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार के घर से मिला था। इस रामलीला समिति से जुड़ा एक अन्य दिलचस्प तथ्य यह है कि यह पिछले 70 साल से देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को बेनागा आमंत्रण भेजती रही है और बीते साल पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस रामलीला का निमंत्रण स्वीकार किया था। अवधी भाषा की मिठास और इस क्षेत्र की प्राचीन ग्राम्य संस्कृति को यह रामलीला आज भी बचाए हुए है।
यूनेस्को की विश्व धरोहर रामनगर की रामलीला
यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल रामनगर (काशी) की रामलीला आज भी अपनी सदियों पुरानी परम्परा को संजोए हुए है। एक माह तक चलने वाला ऐसा अनूठा सांस्कृतिक अनुष्ठान विश्व में शायद ही कहीं होता हो।
सूचना क्रांति एवं आधुनिकता के वर्तमान युग में इस आयोजन में आज भी हजारों दर्शक सम्मिलित होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य मेघा भगत द्वारा शुरू कराई गई रामनगर की रामलीला के दर्शक और रामनगर का स्वरूप एवं माहौल समय के साथ भले ही बदल गया हो लेकिन रामलीला का मंचन बिल्कुल नहीं बदला है।
विशाल मुक्ताकाश के नीचे होने वाली यहां की रामलीला में आज भी बिजली की रोशनी एवं लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं होता, वेशभूषा, संवाद-मंच आदि सभी कुछ प्राचीनता का बोध कराते हैं। विधि निषेधों की परम्परा का अक्षरश: पालन इस रामलीला की बड़ी धरोहर है।
तुलसी ने शुरू कराया था रामलीलाओं का मंचन
रामलीला के मंचन का श्रेय वस्तुत: गोस्वामी तुलसीदास को जाता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम अवध, काशी के चित्रकूट से रामलीलाओं का शुभारम्भ किया था। 17वीं शताब्दी की बात है। रामचरितमानस् लिखने के बाद उन दिनों गोस्वामी जी अवध क्षेत्र में घूम-घूमकर मानस पाठ का प्रचार कर रहे थे। एक दिन वे ऐशबाग क्षेत्र के छांछी कुंआ मंदिर परिसर में बने अखाड़े (आज का रामलीला मैदान) में रुके हुए थे। उसी दौरान वहां अयोध्या के कई साधु-संतों ने भी डेरा डाला हुआ था। तुलसीदास जी ने अखाड़े में मौजूद उन साधुओं के समक्ष श्रीराम की लीला के मंचन का प्रस्ताव रखा तो वे सहर्ष तैयार हो गये। उन्होंने जिस खूबसूरती से रामलीला को आम जनता के सामने पेश किया, उसे काफी पसंद किया गया। उसके बाद से सर्वत्र रामलीला के मंचन की परम्परा शुरू हो गई।
गुजरात : देवपर्व और गरबा उत्सव
गुजरात में का त्योहार विशेष धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्र की नौ रातों तक चलने वाले इस देवपर्व पर गुजराती समाज की आस्था का अनूठा रूप दिखता है। मां अम्बा के इस पूजन पर्व में यहां के स्त्री-पुरुष शक्ति और भक्ति की आराधना में पूरी तरह लीन रहते हैं। गरबा नृत्य इस उत्सव की शान होता है। देवी मां की आरती के बाद पूरी रात डांडिया रास और गरबा नृत्य का आयोजन चलता है जिसमें पुरुष एवं स्त्रियां संगीत की ताल पर घूम-घूमकर नृत्य करते हैं। पारम्परिक गुजराती समाज की मान्यता है कि इस गरबा के माध्यम से पूरे तन-मन में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि पूरे साल तक शरीर की बाह्य व आंतरिक गतिशीलता और मन की प्रसन्नता बनी रहती है। इसी कारण ये लोग नित नये परिधान और नये आभूषणों में शक्ति पूजा की नौ रातों में यह उत्सव पूरी धूमधाम से मनाते हैं। गुजरात के लोगों का मानना है कि यह नृत्य मां अम्बा को बहुत प्रिय है इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए गरबा का आयोजन किया जाता है।
इस नृत्य के पीछे एक गहन तत्वदर्शन निहित है। नवरात्र के पहले दिन छिद्र युक्त मिट्टी के घड़े को पूजा स्थल पर स्थापित कर उसके भीतर चांदी का एक सिक्का रखकर मिट्टी के दीपक को प्रज्ज्वलित किया जाता है। इसे गर्भदीप कहा जाता है। यह गर्भदीप स्त्री की सृजनशक्ति का प्रतीक है और गरबा इसी दीप गर्भ का अपभ्रंश रूप। इस गर्भदीप की स्थापना के बाद स्त्री-पुरुष रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर मां शक्ति के समक्ष नृत्य कर उन्हें प्रसन्न करते हैं। गरबा नृत्य में महिलाएं ताली, चुटकी, डांडिया और मंजीरों का प्रयोग भी करती हैं। ताल देने के लिए महिलाएं दो या फिर चार के समूह में विभिन्न प्रकार से ताल देती हैं। इस दौरान देवी शक्ति और कृष्ण की रासलीला से संबंधित गीत गाए जाते हैं। भक्तिरस से परिपूर्ण गरबा भी मां अम्बा की भक्ति में तालियों और सुरों से लयबद्ध नृत्य के पीछे भी एक गूढ़ भाव निहित है। महिलाएं समूह बनाकर गरबा खेलती हैं तो वे तीन तालियों का प्रयोग करती हैं। हिन्दू मान्यता है कि पूरा ब्रह्मांड ब्रह्मा, विष्णु व महेश की त्रिमूर्ति के आसपास ही घूमता है। तीन तालियों के माध्यम से इनतीन देवों की कलाओं को एकत्र कर शक्ति का आह्वान किया जाता है।
पौड़ी व कुमाऊं की ऐतिहासिक रामलीला
पौड़ी में होने वाली ऐतिहासिक रामलीला कई मायनों में खास है। 119 साल पुरानी इस रामलीला की लोकप्रियता यूनेस्को तक है। इस रामलीला की शुरुआत 1897 में कंडाई गांव में हुई थी, लेकिन इसे शहर में लाने का श्रेय क्षेत्रीय अखबार ‘वीर’ के सम्पादक कोतवाल सिंह नेगी एवं साहित्यकार तारादत्त गैरोला को जाता है। इनके प्रयासों से इस रामलीला का मंचन 1908 से लगातार होता आ रहा है। खास बात यह है कि इसमें महिला किरदारों की भूमिकाएं महिलाएं ही निभाती हैं।
दूसरी ओर कुमाऊं की रामलीला भीमताल के एक स्थानीय ज्योतिषी पण्डित रामदत्त के लिखे रामचरित मानस के नाटक पर खेली जाती है। इसमें शास्त्रीय संगीत पर आधारित रागों और धुनों से भरी अनूठी संवाद अदायगी एक अलग ही समां बांध देती है।
श्री रामजन्मभूमि की गीत-संगीतमय रामलीला
प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या की गीत- संगीतमय रामलीला पूरे देश में प्रसिद्ध है। अयोध्या की इस रामलीला की खास बात यह है कि यहां एक विशाल मंच बनाकर पात्र संवादों को गीत के माध्यम से बोलते हैं। इतना ही नहीं, कथक के माध्यम से भी कलाकारों की ओर से रामकथा का वर्णन किया जाता है।
श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या में धनाभाव के चलते बीते कुछ सालों से बंद पड़े रामलीला के मंचन को पुन: शुरू कराने के प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के फैसले से संत समाज ही नहीं, रामलीला प्रेमियों में भी भारी हर्ष है। उल्लेखनीय है कि रामलीला का मंचन पिछले दिनों संसाधनों के अभाव में बंद होने के बाद इस मामले को संज्ञान में लेते हुए मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों अयोध्या में 14.77 करोड़ रु. की लागत से निर्मित भजन संध्या स्थल का निर्माण कार्य जून 2018 तक निर्धारित मानक एवं गुणवत्ता के साथ प्रत्येक दशा में पूर्ण करने के निर्देश जारी किये हैं।
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