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इतिहास के पन्नों से
पाञ्चजन्य
वर्ष: 1४ अंक: 7
22 अगस्त ,1960
असम के भाषिक दंगों के पीछे सुव्यवस्थित पाकिस्तानी षड्यंत्र काम कर रहा है
सरकार और जनता इसके असली स्वरूप को समझे — मधुकर एम.एस.सी.
भारत का पूर्वाञ्चल प्रहरी असम प्रदेश गत दिनों द्वेष, घृणा और अहिंसा की भीषण लहरों में धू-धू कर जल रहा है। इन गगन चुम्बी लपटों को कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला सम्पूर्ण जनसमाज हतप्रभ होकर देखता रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि आखिर यह चिन्गारी लगाई किसने? सम्पूर्ण असम के जन-जीवन को ध्वस्त करने में किसका स्वार्थ काम कर रहा है। एक ही रक्त मांस के बने हुए बंगाली और असमी किस षड्यंत्र के शिकार होकर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। असम की घटनाएं समूचे भारत की राष्ट्रीय शक्तियों को एक चुनौती दे रही हैं। आइए जरा हम उन घटनाओं की गहराई में जाकर वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास करें।
असम की राजनीति ने गत 3-4 वर्षों में अनेक बार करवट बदली। सन् 57 में श्री विष्णुराम मेधी मद्रास के गर्वनर होकर चले गए और जब अन्य कोई उपयुक्त व्यक्ति मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वसम्मति से न चुना जा सका तो चुनाव में हारे हुए श्री चालिहा को मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया गया। श्री चालिहा एक चरित्र वाले व्यक्ति हैं पर शासकीय गुणों का उनमें सर्वदा अभाव है। श्री चाहिला को पुन: किसी सीट से विधानसभा के लिए जिताना आवश्यक था। पर दुर्भाग्य से एक भी कांग्रेसी त्याग-पत्र देकर उनके लिए स्थान रिक्त करने के लिए तैयार नहीं था।
विभाजन के समय से ही इस प्रदेश के मुसलमान अपना राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने की ताकत में थे। उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाया। बदरपुर की मुस्लिम आबादी वाली सीट उन्हें दी गयी और मुसलमानों के बल पर वे विजयी हुए। इस विजय के लिए उन्हें मुसलमानों को कौन सी कीमत चुकानी पड़ी, यह किसी को पता नहीं। पर इतना सभी जानते हैं कि उनके मुख्यमंत्री बनते ही श्री फखरुद्दीन अहमद को वित्त मंत्री और श्री मोइनुलहक चौधरी को कृषि मंत्री बनाया गया। यह स्मरणीय है कि श्री मोइनुल हक, मुहम्मद अली जिन्ना के प्राइवेट सेक्रेट्री रह चुके हैं, किसी समय वे मुस्लिम लीग के बड़े जोशीले नेता माने जाते थे। इन नियुक्तियों के पश्चात जितने भी सरकारी निर्णय हुए वे सब इन्हीं दोनों महानुभावों की सलाह पर हुए। गत तीन वर्षों में हिंदुओं की लड़कियों को भगाने की घटनाएं अधिक संख्या में बढ़ने के बाद भी ऐसी सभी घटनाओं पर पर्दा डाल दिया गया, फलत: मुस्लिम गुण्डों के हौंसले और भी बढ़ गए।
सन् 59 के अप्रैल में नवगांव में असम साहित्य सभा के अधिवेशन में असमी को राज्य भाषा बनाने की मांग करने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन करने का निश्चय किया किया। निश्चय के अनुसार प्रदेश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर बंगालियों ने भी आंदोलन में भाग लिया। यह एक ऐसा अवसर था जब असम की राजभाषा असमिया बना दी जाती तो आज यह खून-खराबा न होता। पर अपने विश्वस्त मुस्लिम मंत्रियों के इशारे पर श्री चालिहा ने घोषणा की कि जब तक अल्पमत के लोग निर्विरोध रूप से असमिया को स्वीकार नहीं करते तब तक असमिया को राजभाषा का स्थान नहीं दिया जा सकता।
''शेख अब्दुल्ला को छुड़ाने के लिए पाकिस्तानी एजेन्ट सक्रिय''
-रामस्वरूप मिश्र
''नेहरू के पास जाओ और उनसे पूछो कि मैं कौन हूं।''रोष भरे शब्दों में कश्मीर षड्यंत्र के प्रधान अभियुक्त शेख अब्दुल्ला ने मुकदमे की पेशी के पश्चात् पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा। इसके पूर्व मजिट्रेट के सामने अपनी निर्दोषिता सिद्ध करते हुए उसने कहा, 'कातिल और फिरकापरस्त लोग हमें पाकिस्तानी एजेण्ट कहने की जुर्रत करें। क्या ऐसा कहते हुए आपको शर्म नहीं महसूस होती है।'
—फुफकार किसके बल पर-
इन शब्दों में आज भी वह तीखापन कायम है जो सन् 53 में दिखाई देता था। कश्मीर आंदोलन के समय जब लोकसभा में शेख के षड्यंत्रकारी कार्यों की कोई निंदा करता तो शेख उस समय कश्मीर से गरज उठते थे, 'ये फिरकापरस्त मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते।' और सचमुच ही उस समय उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता था क्योंकि वे भारतीय प्रधानमंत्री के मित्र थे—निजी मित्र, जिनके विश्वास पर देशरत्न डॉ. मुखर्जी बलिदान किए जा सकते थे, मेलाराम गोली से भूने जा सकते थे और कश्मीर को बेचने का षड्यंत्र भी किया जा सकता था, पर भारत के मुकुटमणि को भारत मां के सिर से छीनने का प्रयास करने वाला यह सर्प आज किसके बल पर फुफकार रहा है? कौन-सी शक्तियां इसके पीछे काम कर रही हैं। षड्यंत्र का सूत्रधार कौन
इस बात को समझने के लिए हमें बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। जरा गत सप्ताह के पाकिस्तानी अखबारों को उठा लीजिए। लंबे-लंबे लेख, मोटे शीर्षक और शेख के वक्तव्य के प्रमुखता से प्रकाशन इस प्रश्न का बहुत कुछ उत्तर दे देगा। पर क्या केवल पाकिस्तान और यहां के पत्रों का ही संबल है उसे? नहीं विदेशी षड्यंत्र के साथ-साथ भारत में भी एक षड्यंत्र कार्य कर रहा है जो अतुल धनराशि द्वारा एक प्रचार की आंधी बहाकर शेख को निर्दोष सिद्ध करने के लिए दिन-रात संलग्न है। कौन है इस षड्यंत्र का सूत्रधार? किसी समय की पं. नेहरू की अत्यंत विश्वास प्राप्त मित्र और शेख के षड्यंत्रों को प्रारंभ से ही बल देने वाली कुख्यात भूतपूर्व कांग्रेस मंत्राणी कु. मृदुला सारा भाई। एक वर्ष पूर्व उनकी हरकतों से परेशान होकर सरकार ने उन्हें नजरबंद कर दिया था। अब नजरबंदी से निकलते ही वे पुन: उसी षड्यंत्र में संलग्न हो गई हैं।
दिशाबोध
किसी के साथ भेदभाव नहीं कर सकता धर्मराज्य
भारतीय राज्य का आदर्श 'धर्मराज्य' रहा है। यह एक असांप्रदायिक राज्य है। सभी पंथों और उपासना-पद्धतियों के प्रति सहिष्णुता एवं समादर का भाव भारतीय राज्य का आवश्यक गुण है। अपनी श्रद्धा और अंत:करण की प्रवृत्ति के अनुसार प्रत्येक नागरिक का उपासना का अधिकार अक्षुण्ण है तथा राज्य के संचालन अथवा नीति-निर्देशन में किसी भी व्यक्ति के साथ मत या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं हो सकता। धर्मराज्य 'थियोक्रेसी' अथवा मजहबी राज्य नहीं है। 'धर्मराज्य' किसी व्यक्ति अथवा संस्था की सर्वसत्ता संपन्न नहीं मानता। सभी नियमों और कर्तव्यों से बंधे हुए हैं। कार्यपालिका, विधायिका और जनता, सबके अधिकार धर्माधीन है। स्वैराचरण कहीं भी अनुमत नहीं। 'फ४'ी ङ्मा छं६' धर्मराज्य की कल्पना को व्यक्त करने वाला निकटतम शब्द है।
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 61)
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