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समाचार लिखते समय यह तो मालूम होता है कि शुरुआत कहां से करनी है, लेकिन पत्र लिखते समय शुरुआत करना सबसे कठिन काम होता है। आज मैं चार दिन पुरानी घटना के बारे में लिख रही हूं। रिपोर्टिंग के लिए शहर से बाहर गई थी। लौटते समय पावर हाउस रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रही थी। ट्रेन आने में देर थी, इसलिए पास ही बाजार में घूमने चली गई। घूमते-घूमते प्यास लगी तो पानी की बोतल खरीदने के लिए एक दुकान के पास रुकी। उसी समय मेरी नजर नट परिवार की एक तीन वर्षीया बेटी पर पड़ी। उसकी मां और भाई-बहन सहित परिवार के अन्य सदस्य भी पास ही बैठे हुए थे। मैंने देखा के बच्ची के सामने एक पॉलीथीन थी, जिसमें भात था। वह पॉलीथीन में से भात का एक-एक दाना निकाल कर खा रही थी। उसके चेहरे पर रंग पुता हुआ था।
खाते समय बच्ची मुझे देख रही थी और मैं उसे। उस मासूम से निगाहें टकराते ही मन व्याकुल हो उठा। सोचने लगी, कैसी अजीब परिस्थिति है? एक ओर प्यास बुझाने के लिए मैं पानी खरीद रही हूं और दूसरी ओर एक परिवार जैसे-तैसे थोड़े से सूखे भात से पेट भर रहा था। मां पॉलीथीन में से थोड़ा-थोेड़ा भात झिल्ली के छोटे टुकड़ों पर बच्चों को परोस रही थी। एक तो सूखा भात और इतनी कम मात्रा देखकर मेरी आंखों में आंसू आ गए। सोचने लगी कि इतने थोड़े भोजन से इनका पेट कैसे भरेगा? इतने में बड़ा बच्चा मां से थोड़ा और भात मांगता है तो वह उसे अपने हिस्से का भात उसे दे देती है। खुद भूखी रहकर मां को बच्चों का पेट भरता देखकर मैं मन ही मन मुस्करा रही थी। सोच रही थी कि मां तो मां ही होती है।
मैं दस मिनट तक उस परिवार को देखती रही। चाह कर भी मैं उनसे निगाहें नहीं हटा पाई। सोच रही थी कि ऐसे लोगों की बेहतरी के लिए क्या किया जा सकता है? सबकुछ सरकार पर तो थोपा नहीं जा सकता। देश का नागरिक होने के नाते हमारा भी कुछ कर्तव्य है। एक ओर एनजीओ के जरिये जरूरतमंदों की सहायता के नाम पर लोग करोड़ों रुपये चंदा इकट्ठा करते हैं और दूसरी ओर इन जैसे लोगों की बेबसी का मजाक भी बना देते हैं। इसलिए मैं दोनों के बीच का रास्ता तलाश करने की कोशिश कर रही हूं। उम्मीद है, जल्दी ही रास्ता मिल जाएगा।
ऐसी ही एक और घटना है। एक दिन दफ्तर से लौटते समय गोलगप्पे खाने की इच्छा हुई। ठेले वाले के पास पहुंची तो देखा कि चार बच्चे गोलगप्पे खा रहे हैं। इनमें तीन थोड़े बड़े थे, जबकि एक बच्ची करीब दो साल की रही होगी। उन्हें देखते ही बचपन याद आ गया। उन्हें देखकर हंसते हुए मैं भी गोलगप्पे खाने लगी। इसी बीच एक बच्चे ने उत्सुकता में गोलगप्पे वाले से धीरे से पूछा- 'कितना बचा है?' उसने कहा- '10 रुपये में इतना ही मिलता है।' कहकर वह हंसने लगा। जवाब सुनकर बच्चा मायूस हो गया। उसने तीनों साथियों को इशारा किया कि अब और नहीं मिलेगा तो उनके चेहरे भी उतर गए। शायद उनकी इच्छा और गोलगप्पे खाने की थी। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने ठेले वाले से धीरे से कहा- 'चारों के लिए प्लेट लगा दो। पैसा मैं दूंगी, उन्हें कुछ मत बताना।' उसने तुरंत बच्चों के सामने प्लेट रख दी। यह देखकर बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। खाते हुए वे आपस में बात कर रहे थे- 'वाह! आज तो मजा आ गया।' यह सब देखकर मेरा मन आनंदित हो उठा, क्योंकि उस पल मैं अपने बचपन को याद कर रही थी।
यकीन मानिए 20 रुपये की गोलगप्पा पार्टी ने बच्चों की मायूसी को खुशी में बदल दिया। खाते-खाते मैं उनसे बात करने लगी। बच्चों ने बताया कि वे 10 रुपये लेकर आए थे। पहले तो गोलगप्पे वाले ने कहा कि अब नहीं मिलेगा, पर अगले ही पल सामने प्लेट में गोलगप्पे देखकर मन एकदम से खुश हो गया। उन्हें तो इस बात की भनक भी नहीं लगी कि 10 रुपये में इतने गोलगप्पे कैसे खाने को मिल गए। इस पूरे वाकये के बाद मैंने बच्चों की एक फोटो ली और उन्हें टाटा बोलकर आगे बढ़ गई। मेरी खुशी अब दोगुनी हो गई थी। स्कूटी चलाते हुए मन ही मन मुस्कुरा रही थी। एक बार फिर एहसास हुआ कि कभी-कभी खुशियां यूं ही राह चलते मिल जाया करती हैं। जरूरत तो बस देखने का नजरिया बदलने की होती है। ल्ल
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