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चीन अपनी अर्थव्यवस्था के बूते पश्चिमी देशों पर अपने यहां के मानवाधिकार हनन के मामलों पर मुंह बंद रखने का दबाव बनाता है। तिब्बत, हांग-कांग और खुद चीन की जनता कम्युनिस्ट शासन का दमन झेलने को मजबूर है, वह मुंह नहीं खोल सकती। लेकिन भारत के राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को वहां जनता पर हो रहे जुल्म के खिलाफ बोलकर चीन पर मानसिक दबाव बनाना चाहिए
शंकर शरण
भारत-चीन संबंधों में गिरावट के लिए दोषी कौन है? यह सवाल चीनी कम्युनिस्टों ने ही उठाया है। हाल में चीनी सत्ता ने भारत पर धौंस-पट्टी की पुरानी तकनीक चलाने की कोशिश की है। यह आरोप उसी क्रम में है कि हिन्दू राष्ट्रवादी लोग सिक्किम सीमा पर चीन के साथ तकरार बढ़ा रहे हैं। इससे पहले चीनी कम्युनिस्टों ने अरुणाचल में दलाई लामा के कार्यक्रम पर आपत्ति और असम में भूपेन हजारिका पुल के उद्घाटन पर व्यंग्य किया था। फिर चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भारत पर ‘पचंशील को कुचलने’ का भी आरोप लगाया। चालू तकरार के लिए हिन्दू राष्ट्रवादियों को दोषी ठहराना परोक्ष रूप से भारत सरकार पर आक्षेप है। साथ ही यहां के कुछ राजनीतिक दलों, गुटों को उकसावा भी। यह काम चीनी कम्युनिस्ट सत्ता पहले भी करती रही है। वह शुरू से ही यहां कम्युनिस्ट पार्टियों और नक्सलियों को छिपे-खुले उकसाती रही है।
चूंकि इस बार चीनी सत्ता को भारत की ओर से कुछ दृढ़ प्रतिकार का संकेत मिला था इसलिए वह सत्ताधारी दल को निशाना बना रही है। हमें इसका स्वागत करना चाहिए, क्योंकि यह हमें अवसर देता है कि चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही को आईना दिखाएं। यह सरलता से किया जा सकता है, क्योंकि भारत-चीन संबंध तभी से खराब होने शुरू हुए, जब कम्युनिस्टों ने चीनी सत्ता पर कब्जा किया। उससे पहले हजारों वर्ष के इतिहास में इन संबंधों में कोई तकरार क्या, मनो-मालिन्य का भी संकेत नहीं मिलता।
जहां तक चीनी कम्युनिस्ट सत्ताधारियों द्वारा यहां के हिन्दू-विरोधी दलों को उकसाने का मामला है, तो यह वे कम से कम पिछले 60-65 वर्ष से करते रहे हैं। भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों को नियमित भौतिक, राजनीतिक सहायता देना तथा नक्सलवादियों को रेडियो पीकिंग द्वारा भड़काने के काम सर्वविदित हैं। भारतीय संसद में इस पर नेहरू के समय ही चर्चा हो चुकी है कि यहां कम्युनिस्ट पार्टिर्यों को विदेशी सत्ताधारी कम्युनिस्टों द्वारा अवैध रूप से धन दिया जाता है।
इस प्रकार, चीनी कम्युनिस्ट सत्ताधीशों द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध अंदरूनी विद्रोह को उकसावा देने का कार्य कोई सद्भावपूर्ण संबंध बनाने का उदाहरण नहीं है। दुर्भाग्यवश, चीनी सत्ता के ऐसे उकसावों का भारत की ओर से समुचित प्रत्युत्तर नहीं दिया जाता रहा। जबकि इस मामले में भारत की स्थिति चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही की तुलना में अधिक मजबूत है।
चीन में जनता को, सामाजिक संगठनों को स्वतंत्रतापूर्वक बोलने, लिखने, प्रचार करने का अधिकार नहीं है। जबकि भारत में है। अत: यहां सरकार के अलावा सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संगठन भी खुलकर चीनी तानाशाहों को उत्तर दे सकते हैं। इस अर्थ में यहां सरकार और जनता, दोनों को चीनी कम्युनिस्ट सत्ता के प्रति अपनी नीति में नयापन लाने की जरूरत है। चीनी जनता और वहां तानाशाह कम्युनिस्ट सत्ता में अंतर रखना चाहिए। इसे रेखांकित करते हुए अपनी नीति चलानी चाहिए। गत 68 वर्षों में चीनी सत्ता द्वारा भारत की जितनी हानि की गई, उसकी जवाबदेही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की है। चीनी जनता तो उसकी तानाशाही में स्वयं पिस रही है। चीन और तिब्बत के हजारों बौद्ध मठों के विध्वंस, कुख्यात ‘सांस्कृतिक क्रांति’ में करोड़ों चीनियों का नरसंहार, थ्येनआन मन चौक पर निहत्थे छात्रों पर टैंक चलाने से लेकर हांग-कांग में लोगों का दमन करने तक कम्युनिस्ट सत्ताधीशों के अत्याचारों से वहां जनता त्रस्त है। अत: चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ही अंदर-बाहर सभी गड़बड़ियों की जिम्मेदार है। हमें चीनी जनता को निरंतर यह संदेश हर तरह से देना चाहिए।
अभी-अभी हांग-कांग में तीन किशोरों जोशुआ वोंग, नाथान लॉ और अलेक्स चाऊ को सात से आठ महीने की जेल की सजा दी गई है, क्योंकि उन्होंने शान्तिपूर्वक एक सभा करके हांग-कांग में नागरिक अधिकारों के दमन की आलोचना की। हांग-कांग जब ब्रिटिश देख-रेख से 1998 में चीनी सत्ता के कब्जे में आया, तो वहां के लोगों के पारंपरिक लोकतांत्रिक नागरिक अधिकारों को यथावत् चलने देने का आश्वासन दिया गया था। लेकिन चीनी सत्ता वादा-खिलाफी करके अपनी तानाशाही लाद रही है। उसी के विरोध में वे किशोर आवाज उठा रहे थे। पहले उन्हें दो-तीन सप्ताह की हल्की सजा मिली थी। किन्तु चीनी कम्युनिस्ट अधिकारियों के प्रत्यक्ष दबाव में हांग-कांग के अपील न्यायाधिकरण ने अब उन्हें आठ महीने की जेल दे दी है।
यह भारत के लोकतांत्रिक दलों, सामाजिक संगठनों, छात्रों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, अखबारों और टीवी चैनलों के लिए खुला मौका है कि वे चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही की कड़ी निंदा करते हुए, उन किशोरों को मुक्त कराने का अभियान चलाएं। देश-विदेश में इस का नोटिस लेने के साथ-साथ स्वयं चीन, हांग-कांग और तिब्बत में नागरिक अधिकारों की आवाज उठाने वालों का उत्साह बढ़ेगा। इससे चीनी कम्युनिस्ट सत्ता पर निश्चित चोट पड़ेगी।
ऐसा करना हमारे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संगठनों के लिए कोई अनुचित या नया काम नहीं है। यहां दक्षिण अफ्रीका, कोरिया, वियतनाम, हंगरी आदि कई देशों की पीड़ित जनता के पक्ष में खड़े होकर आवाज उठाने की परंपरा रही है। यह सारी लोकतांत्रिक दुनिया का चलन है। तो जब तानाशाह अपनी तानाशाही नहीं छोड़ रहे, तो लोकतांत्रिक लोग विरोध जताना क्यों छोड़ें? जैसा गालिब ने कहा था, ‘वो अपनी खू न छोड़ेंगे, हम अपनी वजअ क्यों छोड़ें!’
यह भी याद रखना चाहिए कि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के समय अमेरिका, यूरोप में लोग हमारे लिए आवाज उठाते थे। इसलिए, चीन, हांग-कांग और तिब्बत की जनता पर कम्युनिस्ट उत्पीड़न का विरोध करना हमारा कर्तव्य है। इसके विविध लाभकारी परिणाम भी होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है।
चीनी सत्ता यहां सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संगठनों के ऐसे अभियानों पर हमारी सरकार से प्रतिवाद तक नहीं कर सकेगी। एक तो इसलिए क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार सरकार किसी शान्तिपूर्ण अभियान, विरोध तथा अभिव्यक्ति को रोक नहीं सकती। दूसरे, जब स्वयं चीनी सत्ता यहां कम्युनिस्टों और हिन्दू-विरोधियों को भड़काती रही है, तो वह अपने यहां नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों के लिए भारतीय जन-संगठनों के समर्थन का कैसे विरोध कर सकती है?
फिर, यह दुनिया में सबके देखने की चीज होगी कि जहां चीनी सत्ता अपने नागरिकों का दमन कर रही है, वहीं भारतीय समाज और सरकार नागरिक अधिकारों के पक्ष में है। अत: हमें हांग-कांग, तिब्बत और चीन में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वालों को हर तरह से समर्थन देना चाहिए। उनका नियमित और भरपूर प्रचार करना चाहिए। महत्वपूर्ण जगहों पर उनकी तस्वीरें लगाकर उनका सम्मान करना चाहिए ताकि लोग उन्हें जानें और उन्हें समर्थन दें। उनके पक्ष में देश-विदेश में चीनी दूतावासों को ज्ञापन देना और प्रदर्शन करना चाहिए। इससे उन योद्धाओं का मनोबल बढ़ेगा। ये सब शान्तिपूर्ण और लोकतांत्रिक कार्य हैं। लेकिन ऐसी सामाजिक पहलकदमियां चीनी कम्युनिस्टों के लिए बहुत बड़ी परेशानी बन जाएंगी।
इन सब कार्यों से हम अपनी उस ग्रंथि से भी मुक्त हो सकेंगे, जो नेहरू युग से ही हम पर थोप दी गयी है। दुनिया के सामने हमारी छवि भी बेहतर होगी। हम उतने दुर्बल नहीं हैं जैसा हमें बना दिया गया है। लेकिन हमें यह अपनी कथनी-करनी से प्रदर्शित करना होगा।
इसीलिए, भारत को भी चीन नीति पर जरा ढंग से सोचना चाहिए। राजनीति हर हाल में किसी न किसी प्रकार की शक्ति से चलती है। यदि चीनी कम्युनिस्ट सत्ता के पास तानाशाही और एकाधिकारी प्रचार की ताकत है, तो भारत के पास जनमत को अपनी आवाज किसी भी बात के लिए उठाने देने की ताकत है। अपनी इस ताकत से हम चीनी तानाशाहों को संयमित व्यवहार के लिए झुका सकते हैं। यह निहायत अहिंसक संघर्ष होगा।
पिछले महीने जब नोबेल पुरस्कार से सम्मानित चीनी लेखक ल्यु शाओबो (1955-2017) की चीनी जेल में मृत्यु हुई, तो भारतीय मीडिया और छात्र, युवा संगठनों को उन्हें बढ़-चढ़कर श्रद्धांजलि देनी चाहिए थी। उनकी स्मृति में लेखकों, पत्रकारों को सभा करनी चाहिए थी। पत्र-पत्रिकाओं को ल्यु के विचारों को प्रमुखता से छापना चाहिए था। इससे अन्य संघर्षशील चीनियों को जो शक्ति मिलेगी उसका हमें अनुमान भी नहीं है!
यह स्वयं ल्यु शाओबो के शब्दों में देखें। उन्होंने कहा था-‘हमारे जैसे लोगों के लिए, जो एक कायर तानाशाही के अंदर जी रहे हैं, जो अपनी ही तरह का एक कैदखाना है, कोई मामूली सा सद्भावपूर्ण प्रोत्साहन भी, जो बाहर के लोगों के सहज मानव-स्वभाव से नि:सृत होता है…उससे हम कृतज्ञता और भारी उत्साह महसूस करते हैं।’ Ñइसलिए,यह सद्भावपूर्ण प्रोत्साहन हमें बहुत पहले से चीनी जनता को देना चाहिए था। यदि भारतीय बुद्धिजीवियों, नेताओं ने यह किया होता तो निश्चय जानिए कि चीनी कम्युनिस्ट सत्ताधारियों ने यहां की सरकार के साथ बहुत ज्यादा सम्मानजनक व्यवहार किया होता।
किन्तु दुर्भाग्यवश नेहरू के समय से ही हमारी विदेश नीति और सांस्कृतिक नीति भी घोर अज्ञान और भ्रम पर आधारित रही है। उसके दुष्प्रभाव में यहां राजनीतिक दलों, मीडिया और सामाजिक संगठनों ने भी अपना कर्तव्य नहीं किया। इसीलिए, चीनी सत्ता हमें जब चाहे कुछ भी बोलती रही है और हम सुनते रहे हैं। यह बंद होना चाहिए। इसके लिए हमें सरकार पर ही निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। भारतीय जनता स्वयं यह कर सकती है।
ल्यु शाओबो की मृत्यु की स्थितियां बताती हैं कि चीनी कम्युनिस्ट सत्ता कितनी कमजोर है! कैंसर का अंतिम चरण घोषित हो जाने पर भी ल्यु को इलाज के लिए बाहर न जाने दिया गया। यहां तक कि उन्हें मुत्यु से पहले अपना अंतिम संदेश तक देने नहीं दिया गया। चीनी तानाशाही को सदैव भय रहता है कि किसी के दो शब्द भी उसकी ‘सत्ता के विघटन’ का कारण बन सकते हैं। यही आरोप ल्यु पर लगाकर उन्हें 8 वर्ष पहले जेल में बंद कर दिया गया था। जबकि ल्यु का संपूर्ण प्रयत्न वर्तमान चीनी संविधान के अनुरूप और अहिंसक था। उन्होंने संविधान में दिए अधिकारों को ही लागू करने की मांग भर की थी। उस संविधान में वोट देने और सरकार की आलोचना करने का अधिकार दर्ज है। किन्तु व्यवहार में ऐसे हर कार्य को ‘सत्ता के विघटन’ और ‘शान्ति भंग करने’ का कार्य बताकर दंडित किया जाता है। अभी चीन में किसी अहिंसक विरोधी को भी सदैव निगरानी, परेशान कर, मार-पीट या आपराधिक मामले लगाकर त्रस्त किया जाता है। यह सब चीनी सत्ता का डर ही झलकाता है। उसे अहसास है कि आर्थिक विकास, सेंसरशिप और दमन के बल पर ही चीनी लोग उसे चुपचाप स्वीकार किए हुए हैं। अभी आम चीनी नागरिक जानता भी नहीं कि ल्यु शाओबो कौन था? तब उसे डोकलाम या तिब्बत का सच कैसे मालूम होगा? उसी तरह, आर्थिक लोभ दिखाकर चीनी सत्ता ने दुनिया को भी चुप करवाया हुआ है। चीन से सरोकार रखने वाली पश्चिमी कंपनियों, पत्रकारों, विद्वानों, संस्कृति-कर्मियों आदि सभी को वीसा देने या प्रतिबंधित करने आदि तरीकों से दबाव में रखा जाता है ताकि वे चीनी तानाशाही पर कोई असुविधाजनक बात न बोलें। ऐसे तरीकों से चीन की छवि जबरन बेहतर बना कर रखी गयी है। पश्चिमी सरकारें न चीन में मानवाधिकारों का प्रश्न उठाती हैं, न तिब्बत या हांग-कांग की स्थिति पर कुछ बोलती हैं।
मगर बाहर ऐसी जबरिया चुप्पी या अंदर अपने लोगों की विविश, मौन स्वीकृति कोई स्थाई चीज नहीं है। सोवियत संघ के विघटन और चीन में थ्येनआन मन चौक जैसी घटनाओं से चीनी सत्ता को बखूबी मालूम है कि जनता की स्वीकृति या मौन किसी भी चीज से, अवसर पाते ही टूट सकता है। यदि लोगों को महसूस हो जाए कि तानाशाही सरकार झिझक या दुविधा में है, तो किसी भी समस्या जैसे भ्रष्टाचार, कुव्यवस्था, पर्यावरण नाश, सरकारी कपट या मिथ्याचार आदि पर उसे भड़कने में देर नहीं लगेगी। इसीलिए, ल्यु को पहले अदालत में भी अपनी अंतिम बात कहने का मौका नहीं दिया गया था। फिर, उन्हें नोबेल पुरस्कार लेने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी गई। अंतिम चरण का कैंसर पता चलने के बाद भी जेल से छोड़ा नहीं गया। यह सब इसलिए ताकि लोगों को सत्ता की कठोरता का अंदाजा रहे। मगर यही चीज चीनी सत्ता की कमजोरी भी है। ठीक है कि अभी दुनिया के लोकतांत्रिक देश उस की आर्थिक ताकत से चुप हैं। पर यह स्वाभाविक स्थिति नहीं है। वैसे भी, आज की दुनिया में स्वतंत्रता और तानाशाही का सह-अस्तित्व अधिक समय तक नहीं रह सकता।
चीनी कम्युनिस्टों को यह जताना जरूरी है कि बड़ी-बड़ी तानाशाहियां नहीं रहीं, न कोई रहेगी। बस, समय की बात है। जैसा महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने कहा था-एक अकेली, सच्ची आवाज भी झूठ के विशाल अंबार पर भारी पड़ती है। हमें ल्यु के संघर्ष का सम्मान करना और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। हांग-कांग, तिब्बत और चीन से नियमित रूप से नागरिकों के दमन के समाचार आते रहते हैं। उन सभी अवसरों पर हमें दुनिया को बार-बार यह दिखाना चाहिए कि भारत के राष्ट्रवादी सोच वाले और अन्य लोग भी चीनी जनता के प्रति सद्भाव रखते हैं। साथ ही हम यह भी दिखा सकते हैं कि भारत-चीन संबंधों के बीच सारी गड़बड़ी कम्युनिस्ट साम्राज्यवादी विचारधारा के कारण रही है। यानी, उससे जिससे तिब्बत, हांग-कांग और स्वयं चीनी जनता भी त्रस्त है।
(लेखक प्रख्यात स्तंभकार और राजनीति शास्त्री हैं)
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