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भारत की कूटनीति के आगे चालाक चीन की चालें लड़खड़ा रही हैं। ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करवाकर भारत ने जता दिया है कि अब चीन की घुड़कियां काम नहीं आने वालीं। उस गलत को सही ठहराने की सोच बदलनी होगी
डॉ़ सतीश कुमार
चीन के शियामिन शहर में ब्रिक्स की नौवीं बैठक में चीन-पाकिस्तान की दोस्ती को गहरा आघात लगा है। बैठक में भारत ने आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करवाने में सफलता प्राप्त की है। यह आसान और मामूली कूटनीतिक विजय नहीं है। सम्मेलन में पहली बार पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तोयबा के अलावा आईएस, अल-कायदा और तालिबान को आतंक का मुख्य घटक माना गया है। 43 पृष्ठ के शियामिन घोषणा पत्र में पांचों सदस्य देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) ने आतंकवाद की एक स्वर से निंदा करते हुए उसका मिलकर मुकाबला करने का संकल्प लिया। यह भी कहा गया कि जो देश इन संगठनों की मदद करेगा, उसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि पिछले ब्रिक्स सम्मेलन में, जो कि गोवा में हुआ था, चीन के विरोध के कारण यह प्रस्ताव नहीं जुड़ पाया था। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग का कहना था कि जैश, लश्कर और हक्कानी नेटवर्क जिस तरीके से क्षेत्र में हिंसा फैला रहे हैं, उसे देखते हुए ही उनका नाम ब्रिक्स घोषणापत्र में लिया गया। उन्होंने यह भी कहा कि इन संगठनों पर संयुक्त राष्टÑ प्रतिबंध लगा चुका है।
बात इतनी आसान नहीं है। चीन-पाकिस्तान दोस्ती का मुख्य आधार भारत विरोध और आतंकवाद की बुनियाद पर टिका हुआ है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ किए जा रहे प्रयासों में इस्लामाबाद अग्रिम मोर्चे पर है और उसने इस कार्य में कई कुर्बानियां भी दी हैं। चीन के इस रुख के बावजूद ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव पारित होना भारत के लिए बड़ी कूटनीतिक जीत है।
माहौल अनुकूल है। इतिहास में तिब्बत के संदर्भ में भारत से जो गलती हुई है, उसे दुरुस्त किया जा सकता है। हालांकि यह काम इतना आसान भी नहीं है। हमें यह कहने की हिम्मत और ‘‘कूटनीतिक दुस्साहस’’ जताना होगा कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग नहीं है। यह एक स्वायत्त क्षेत्र है। जिस पर चीन का नियंत्रित अधिकार था, आधिपत्य नहीं। यह अधिकार भी भारत की गलतियों से हुआ था।
जवाहरलाल नेहरू और उनके विश्वासपात्र के़ एम़ पसीकर ने तिब्बत के संदर्भ में भारत की नीति तय की थी। इस मामले में तत्कालीन राष्टÑपति राजेंद्र प्रसाद, गृह मंत्री सरदार पटेल, डॉ. बी. आर. आंबेडकर और तमाम लोगों के विचारों को नेहरू ने दरकिनार कर दिया था। 1946 से 1951 तक नेहरू ब्रिटिश नीति का अनुपालन करने की कोशिश करते रहे। 1947 में जब एशियन रिलेशन कॉन्फ्रेंस दिल्ली में आयोजित की गई तो तिब्बत को अलग से निमंत्रण दिया गया था। भारत ने उस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारत एंग्लो-तिब्बत संधि का अनुपालन करेगा अर्थात् तिब्बत की स्वायत्तता हर कीमत पर अक्षुण्ण रखी जाएगी। उसमें कोई उलटफेर नहीं होने दिया जाएगा। दो वर्ष बाद भारतीय सेना के अधिकारी को स्थिति का जायजा लेने के लिए तिब्बत भेजा गया। ठीक एक वर्ष बाद चीन ने 1950 में तिब्बत पर हमला कर दिया। भारत ने इसका विरोध किया लेकिन वह महज दिखावा था। नेहरू और कांग्रेस पार्टी ‘बफर जोन और शक्ति संतुलन’ जैसी सामरिक सोच को महज पश्चिमी उपनिवेशवाद का हिस्सा मानती थी। उनकी नजरों में चीन और भारत दोनों देश अपने आकार और प्रकार से पूरी दुनिया की तस्वीर बदले देंगे। कई विशेषज्ञों ने इस बात की चर्चा की थी कि 3,200 किमी. का यह क्षेत्र ‘बफर स्टेट’ की वजह से सुरक्षित है। यह सामरिक और आर्थिक रूप से भी भारत के लिए बेहतरीन स्थिति थी।
1950 के बाद चीन दलाई लामा के ऊपर कानूनी गिरफ्त को सख्त करता गया। नेहरू के दिमाग में पता नहीं कौन-सा प्रेम या डर चल रहा था, जिसके कारण उन्होंने एक टिप्पणी के द्वारा भारतीय सुरक्षा को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया। भारत के यह कहने के बाद ही स्थिति पूरी तरह से बदल गई कि तिब्बत, चीन का अभिन्न हिस्सा है। 1954 के बाद से जो कुछ हुआ, वह उसी भूल का नतीजा है जिसने भारतीय सुरक्षा और छवि को पूरी तरह चीन के हवाले कर दिया। डोकलाम का विवाद हो या उसके पहले की चीनी घुड़कियां, यह यब इसलिए होता रहा कि हमने चीन को अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि जिन दिनों नेहरू ने चीन को गले लगाया था, उस समय चीन की सैन्य स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उसे कोई पूछने वाला नहीं था, उसके नखरों को कोई सहना भी नहीं चाहता था, फिर भी नेहरू ने चीन को गले लगाया। यही नहीं, दूसरे देशों से भी ऐसा करने को कहा।
चीन कैसे बना भारत के लिए खतरा?
तिब्बत को हड़पने के उपरांत चीन ने भारतीय सीमा के भीतर घुसपैठ शुरू कर दी। अक्साईचिन के भीतर तकरीबन 38,000 वर्ग किमी. का क्षेत्र अपने कब्जे में लिए हुए है, जो मुख्यत: लद्दाख का हिस्सा है। 1963 में पाकिस्तान ने पाक अधिक्रांत कश्मीर का 5,180 वर्ग किमी. क्षेत्र चीन को दे दिया। इससे इस क्षेत्र में चीन की सामरिक स्थिति और मजबूत हो गई। अब वह इस क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए सिक्यिांग और तिब्बत के बीच सड़कों का जाल बिछा रहा है। उसने काराकोरम राजमार्ग के जरिए तिब्बत-कश्मीर-सिक्यिांग और पाकिस्तान को एक साथ जोड़ दिया है। दूसरी तरफ उसकी नजर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों पर भी है। तकरीबन 96,000 वर्ग किमी़ क्षेत्र पर चीन अपनी दावेदारी प्रस्तुत करता है। वह संपूर्ण अरुणाचल प्रदेश को चीन का दक्षिणी भूभाग मानता है। कई तिब्बती ग्रंथों में तिब्बत और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के बीच सशक्त सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंधों की चर्चा है। उन्हीं ग्रंथों के आधार पर चीन आज भारतीय क्षेत्र को हड़पने की धमकी देता है।
यह सब कुछ तिब्बत पर भारत की कमजोर नीति की वजह से हुआ है। 72 दिन तक डोकलाम में जो कुछ भी हुआ, वह भी उसी भूल की वजह से हुआ। इस भूल को ठीक करने की जरूरत है। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी सोच बदलनी होगी।
इस सोच की झलक 2014 में प्रधानमंत्री मोदी की भूटान, नेपाल और जापान की यात्राओं में दिखी थी। इसके बाद ही उन्होंने अमेरिका और चीन की यात्रा की थी। इस सोच में परिवर्तन का असर दिख रहा है। पहला, चीन की अर्थव्यवस्था, जो दो दशक से उछाल मार रही थी, अब थकी सी दिख रही है। उसकी अर्थव्यवस्था दो अंकों से फिसलकर 7़ 6 पर आ गई है। दूसरा, डोकलाम में चीन को मुंह की खानी पड़ी है। यह भारतीय कूटनीति का ही कमाल है कि अमेरिका ने चीन के दोस्त पाकिस्तान को धमकाया, पर उसका असर चीन पर हुआ। इसके साथ ही जापान, दक्षिण कोरिया और तमाम चीन विरोधी देश भारत के पक्ष में आ गए। इन सब कारणों से ही चीन के तेवर ढीले पड़े। तीसरा, जिस हाफिज सईद को लेकर चीन मुखर रहता था अब उसे उसने आतंकवादी मान लिया है। चौथा, चीन के उत्पादों का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत आता है। अगर भारत ने उसकी वस्तुओं का बहिष्कार कर दिया तो चीन की आर्थिक रीढ़ टूट सकती है। चीन को इसका भी डर सता रहा है। पांचवां, अंतरराष्टÑीय समीकरण भी भारत के पक्ष में दिख रहे हैं। भारत-अमेरिका संबंध चीन के लिए चिंता का कारण बने हुए हैं। अब स्थिति ऐसी बन गई है कि भारत चीन को और कूटनीतिक झटका दे सकता है। नेहरू की भूल को सुधारा जा सकता है। शायद मोदी के कार्यकाल से पहले इस बात की परिकल्पना भी असंभव थी। तिब्बत एक स्वायत्त क्षेत्र है, ऐसा कहने भर से ही चीन परेशान हो सकता है। हमें आज नहीं तो कल यह हिम्मत दिखानी ही होगी। चीन को परास्त करने के लिए यह सब करना ही होगा।
(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय, हरियाणा में प्रोफेसर हैं)
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