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भारतीय संस्कृति और पुराणों में भगवान विश्वकर्मा को यंत्रों का अधिष्ठाता माना गया है। उनके द्वारा रचित वैमानिकीय विद्या, यंत्र निर्माण विद्या या फिर मंदिरों का वास्तु-शिल्प, सभी बेजोड़ हैं। ये सभी न केवल उन्नत वास्तुकला से परिपूर्ण हैं बल्कि स्थापत्य कला व बारीक नक्काशी का सजीव दर्शन कराते हैं। प्राचीन काल में निर्मित भारत का शिल्प इतना उन्नत था कि उसके रहस्यों को आधुनिक विज्ञान आज तक समझ नहीं पाया है। तमिलनाडु का बृह्देश्वर मंदिर, ओडिशा स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर, आंध्र प्रदेश का लेपाक्षी मंदिर, मदुरै का मीनाक्षी मंदिर, मध्य प्रदेश में स्थित सांची का स्तूप, इनकी कारीगरी कमाल हैं। मुंबई का बांद्रा-वर्ली सेतु और दिल्ली की मेट्रो भी आज के विश्वकर्माओं का कमाल ही तो हैं! विश्वकर्मा जयंती पर प्रस्तुत हैं अलग-अलग कालखंड में भारतीय शिल्प एवं अभियांत्रिकी के नए-पुराने विलक्षण उदाहरण। प्रस्तुति : अमित त्यागी
बृह्देश्वर मंदिर
वास्तुकला का बेजोड़ नमूना
तमिलनाडु के तंजौर जिले में स्थित बृह्देश्वर मंदिर अपने नाम के अनुरूप बेहद विशाल है। यह एक शिव मंदिर है जिसे चोल शासकों ने ग्यारहवीं सदी के आरंभ में बनवाया था। शैव पंथ के अनुयायी इसे बेहद पवित्र मानते हैं और इसकी उपासना करते हैं। मंदिर की विशिष्टता इसका निर्माण एवं शिल्प है, जो आज के आधुनिक विज्ञान को चुनौती देता है। यह अपनी भव्यता, वास्तुशिल्प और केंद्रीय गुंबद से लोगों को आकर्षित करता है। यह विश्व में अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है जो ग्रेनाइट से बना है। जबकि इसके आस-पास के इलाकों में दूर-दूर तक ग्रेनाइट पत्थर की खानें नहीं हैं। ग्रेनाइट यहां किस तरह लाया गया, यह बात आज भी रहस्य है। चूंकि उस दौर में परिवहन के साधन इतने सुगम नहीं थे, इसलिए इसका महत्व और बढ़ जाता है। यह मंदिर एक फैले हुए प्रकार में बना है। इसकी लंबाई 240.90 मीटर (पूर्व-पश्चिम) एवं चौड़ाई 122 मीटर(उत्तर-दक्षिण) है। इसकी पूर्व दिशा में गोपुरम के साथ अन्य तीन साधारण तोरण प्रवेश द्वार प्रत्येक पार्श्व पर और तीसरा पिछले सिरे पर है। मंदिर की निर्माणकला की विशेषता यह है कि इसके गुबंद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती। मंदिर चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण, ताम्र पर शिल्पांकन की उत्कृष्ट कला का बेजोड़ नमूना है। इन सब विशेषताओं के चलते यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया है। मंदिर में प्रवेश करने पर एक चौकोर मंडप आता है, जहां चबूतरे पर नंदी की विशाल मूर्ति स्थापित है। भारत में एक ही पत्थर से निर्मित नंदी की यह दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।
मंदिर की विशेषताएं
यह मंदिर अपनी वास्तुकला एवं शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ है। इसका विशाल गुंबद अष्टभुजाकार है। यह ग्रेनाइट के जिस शिलाखंड पर रखा हुआ है, उसका वजन 80 टन है। उस काल में जब क्रेन आदि का आविष्कार नहीं हुआ था, तब इतने भारी पत्थर को इतनी ऊंचाई पर पहुंचाना असंभव ही नजर आता है। इस शिला के ऊपर स्वर्ण कलश रखा हुआ है।
मंदिर की निर्माण कला की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि इसके गुंबद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती जो वैज्ञानिकों के लिए एक बड़ा प्रश्न है। दोपहर के समय मंदिर के हर हिस्से की परछाई जमीन पर नजर आती है लेकिन गुंबद की परछाई गायब हो जाती है।
बृह्देश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित एक भवन है। इसका निर्माण 1,30,000 टन ग्रेनाइट से किया गया है। मंदिर के 100 किलोमीटर दूर तक ग्रेनाइट की खदान नहीं है। इसलिए मंदिर देखने के भी बाद हर किसी के मन में सवाल उठता है कि यहां इतनी बड़ी मात्रा में ग्रेनाइट आया कहां से? हैरानी की बात यह है कि ग्रेनाइट पर नक्काशी करना बहुत कठिन होता है। फिर भी चोल राजाओं ने ग्रेनाइट पत्थरों पर बारीक नक्काशी का कार्य बड़ी खूबसूरती से कराया।
मंदिर की दीवारों पर पवित्र कार्यों, मंदिर से जुड़ी संगठनात्मक घटनाओं एवं उत्कृष्ट कला का चित्रात्मक वर्णन है। अंदर के मार्ग में दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, वीरभद्र, भिक्षाटन, नटेश, अर्धनारीश्वर, आलिंगन रूप में शिव के विभिन्न स्वरूपों को चित्रित किया गया है। मंदिर के गर्भ गृह में स्थित शिवलिंग की ऊंचाई 8.7 मीटर है, जो इसकी भव्यता को और निखारता है।
मंदिर के निर्माण में (1004 ई.-1009 ई. ) करीब 5 वर्ष का समय लगा। चोलशासक राजराज प्रथम ने इसका निर्माण कराया।
वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला के कारण यह विश्व में ख्यात है। इसके शिलालेख संस्कृत और तमिल भाषा में अंकित हैं। मंदिर के चारों ओर शिलालेखों की एक लंबी शृंखला विराजमान है। तंजौर के किसी भी कोने से इस मंदिर के शिखर को देखा जा सकता है। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में भगवान के गणसवारी नंदी की एक बहुत बड़ी मूर्ति स्थापित है।
मंदिर का तेरह मंजिला भवन सभी को अचंभित करता है। क्योंकि सनातन अधि स्थापनाओं में मंजिलों की संख्या सम होती है। लेकिन यहां पर ऐसा नहीं है।
कोणार्क का सूर्य मंदिर
सौर-सा समृद्ध
कोणार्क का विख्यात सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी किनारे पर समुद्र तट के करीब स्थित है। कोणार्क शब्द, ‘कोण’ और ‘अर्क’ शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ सूर्य होता है तो कोण का अर्थ कोने से है। यह मंदिर कलिंग शैली का प्रतीक है। ओडिशा में इस शैली के कई अन्य मंदिर मौजूद हैं। इस शैली के मंदिरों में एक कोणीय अट्टालिका होती है जिसे मीनार भी कहते हैं। यह मंदिर के ऊपर एक मण्डप की छतरी की तरह ढकी होती है। कोणार्क स्थित सूर्य मंदिर कलिंग शैली के मंदिरों में सबसे विशाल है। इसका मुख्य गर्भगृह 229 फुट ऊंचा है। वहां एक नाट्यशाला भी है, जो इसके साथ ही बनी है। इस नाट्यशाला की ऊंचाई 128 फुट है। इन दोनों का बेजोड़ संगम ही मंदिर के शिल्प की खूबसूरती है। मुख्य गर्भगृह जिसमें पहले प्रधान देवता का वास माना जाता था, अब ध्वस्त हो चुका है। लेकिन नाट्यशाला अभी भी मौजूद है और उसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। मंदिर के सामने एक विशाल प्रांगण है, जो इसकी खूबसूरती को और निखारता है।
यह मंदिर भारत के बेहद प्राचीन मंदिरों में है और इसे 1236-1264 ईसा पूर्व गंग वंश के राजा नृसिंह देव ने बनवाया था। जिस तरह से पत्थरों पर नक्काशी करके इस मंदिर को बनाया गया, वह इस बात का प्रमाण है कि हजारों साल पहले भी भारत की शिल्प कला कितनी उन्नत थी। भारत की धार्मिक आस्था कितनी प्रबल थी और भारत का विज्ञान सूर्य आदि को अपने इष्ट देव के रूप में स्वीकार कर चुका था, इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि संपूर्ण परिसर में बारह जोड़ी चक्रों वाले एवं सात घोड़ों से खींचे जाने वाले सूर्यदेव का रथ निर्मित है। यहां सूर्य को बिरंचि नारायण के नाम से पुकारा जाता है। मंदिर में मिथुन मूर्तियां भी मौजूद रही हैं। इनमें से अधिकतर अब ध्वस्त हो चुकी हैं। भारत में मुगल आक्रांताओं ने देश के अनेक मंदिरों को न केवल तोड़ा बल्कि कई का नामोनिशान तक मिटा दिया। यह मंदिर भी उस ध्वंस का शिकार रहा है।
मुख्य बिन्दु
मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक मुद्रा में दिखाए गए हैं। 28 टन वजन की 8.4 फुट लंबी एवं 4.9 फुट चौड़ी यह प्रतिमा लगभग 9 फुट ऊंची है। इसके वास्तु शिल्प की खास बात यह है कि यह एक ही पत्थर की बनी है और इसमें कोई जोड़ नहीं है।
मंदिर के दक्षिणी हिस्से में दो सुसज्जित तुरंग बने हैं। यह आकृति ओडिशा का राजचिन्ह है। मुख्य मंदिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मंडप अब ढह चुके हैं। तीसरे मंडप में जहां प्रतिमा विराजमान थी, उसे अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत व पत्थर भरवा कर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बंद करवा दिया था। इसके कारण शेष मंदिर क्षतिग्रस्त होने से बच गया। मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं:
बाल्यावस्था (उदित सूर्य) – लंबाई लगभग 8 फुट।
युवावस्था (मध्याह्न सूर्य) – लंबाई लगभग साढ़े 9 फुट।
प्रौढ़ावस्था (अस्त सूर्य) – लंबाई लगभग साढ़े तीन फुट।
कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य
सन् 1028 में राजा नृसिंहदेव ने कोणार्क के सभी मंदिरों की नाप-जोख का आदेश दिया था। मापन के समय, सूर्य मंदिर अपनी अमलक शिला तक अस्तित्व में था। कालापहाड़ ने न केवल उसके कलश, बल्कि पद्म-ध्वजा, कमल-किरीट और ऊपरी भाग भी ध्वस्त कर दिए थे। यह भी बताया जाता है, कि नट मंदिर के सभी भाग, सबसे लम्बे काल तक, अपनी मूल अवस्था में रहे हैं। सन् 1779 में महाराष्ट्र के एक संत ने कोणार्क के अरुण स्तंभ को हटा कर पुरी के सिंहद्वार के सामने स्थापित करवा दिया। 18वीं शताब्दी के अन्त तक कोणार्क ने अपना, समस्त वैभव खो दिया।
मंदिर की विशेषताएं
13वीं सदी का मुख्य सूर्य मंदिर, एक महान रथ रूप में बना है, जिसके बारह जोड़ी सुसज्जित पहिये हैं, जिन्हें सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है।
हजारों शिल्प आकृतियां जिनमें भगवान, देवता, गंधर्व,मानव, वाद्यक, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच-बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हजार हाथी, केवल मुख्य मंदिर के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और पेचीदा बेल-बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। ओडिया शिल्पकला की गुणवत्ता परिसर में विशिष्ट रूप से दिखाई देती है।
लेपाक्षी मंदिर
हवा में झूलता खंभा है आकर्षण
आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में एक छोटा-सा गांव है लेपाक्षी। यदि किसी बड़े शहर से इसकी दूरी की बात करें तो यह स्थान बेंगलुरू से लगभग 120 किलोमीटर की दूरी पर है। ऐसी मान्यता है कि इस गांव का नाम श्रीराम के आगमन पर पड़ा था। राम, लक्ष्मण यहां रहे थे और बाद में सीताहरण के दौरान गिद्धराज जटायु यहां घायलावस्था में मिले थे।
श्रीराम ने घायल जटायु को देखकर लेपाक्षी कहा था। लेपाक्षी एक तेलुगु शब्द है, जिसका अर्थ है ‘उठो पक्षी।’ आज यह गांव अपने कलात्मक मंदिरों के लिए जाना जाता है जिनका निर्माण 16वीं शताब्दी में हुआ था। लेपाक्षी मंदिर विजयनगर शैली के मंदिरों का विलक्षण उदाहरण है।
यहां विराजित भगवान् गणेश की मूर्ति शिल्प का बेजोड़ नमूना है। इस मंदिर की वास्तुकला की एक खास बात यह है कि इसमें सिर्फ भगवान के मंदिर नहीं हैं बल्कि यहां नृत्य कला और संगीतकारों का भी चित्रण मिलता है। मजबूत पत्थरों को काटकर उन पर की गई नक्काशी न सिर्फ लुभावनी है बल्कि स्थायित्व लिये हुए है।
मंदिर की विशेषताएं
इसमें कुल 72 खंभे हैं, जिन पर मंदिर टिका हुआ है। वास्तुकला के अनुपम विज्ञान को समेटे हुए इनमें एक खंभा ऐसा है, जो हवा में झूलता हुआ दिखाई देता है। जमीन पर जिस स्थान पर इस खंभे और भूमि का मिलन होता है, वहां पर खाली स्थान है। इसके बीच से कोई भी कपड़ा आसानी से निकल जाता है। इन खंभों की लंबाई 27 एवं चौड़ाई 15 फुट के आसपास है।
मंदिर कछुए के खोल की आकृति की पहाड़ी पर स्थित है। इसको ‘कूर्म सैला’ भी कहा जाता है। इस मंदिर के विशाल परिसर में भगवान् शिव, विष्णु एवं वीरभद्र के तीन मंदिर हैं। भगवान् शिव नायक शासकों के कुलदेवता थे।
लेपाक्षी मंदिर का निर्माण विजयनगर के वीरूपन्ना और वीरन्ना ने सन् 1583 में करवाया था। मंदिर निर्माण के संदर्भ में एक मान्यता यह भी है कि इसका निर्माण महर्षि अगस्तय ने करवाया था।
हवा में झूलते खंभे की तकनीक को जानने को लेकर अंग्रेजों की ओर से कई बार प्रयास किए गए जो नाकाम रहे। यहां तक कि इस बेहतरीन शिल्प की कारीगरी को तोड़ने का भी प्रयास किया गया। अंग्रेजों ने इस मंदिर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करने के भी प्रयास किया, पर वे कामयाब नहीं हो सके।
मीनाक्षी मंदिर
भव्यता की अनूठी मिसाल
अपने पवित्र मंदिरों और स्थापत्य कला के बेजोड़ उदाहरणों से समृद्ध तमिलनाडु को दक्षिण भारत में धार्मिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। यहां के लोग मदुरै को भगवान् शिव और महाबलीपुरम को भगवान् विष्णु के वामन अवतार की कृपाभूमि मानते हैं। दक्षिण की काशी के रूप में मशहूर कांचीपुरम को मोक्ष का सातवां द्वार भी कहा जाता है। यहां सबसे ज्यादा आकर्षण के केंद्र मीनाक्षी मन्दिर के हजार स्तम्भ वाले मंडपम हैं। इनमें खास बात यह है कि प्रत्येक स्तंभ को थाप देने से भिन्न-भिन्न स्वर निकलते हैं। इस रहस्य को सुलझाने में आज का विज्ञान विफल रहा है। किस तरह से किस विज्ञान द्वारा इन स्तंभों का निर्माण किया गया है, यह उस काल की उन्नत शिल्प कला को दर्शाता है। मीनाक्षी अम्मन मंदिर के मुख्य गर्भगृह को लगभग 3,500 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है।
मंदिर की खूबसूरती सिर्फ इसके शिल्प में निहित नहीं है बल्कि यह भारत के सबसे वैभवशाली मंदिरों में से है। भारत की समृद्ध और धन-धान्य से भरपूर परंपरा की कहानी इस मंदिर के द्वारा परिलक्षित होती है। वास्तु और स्थापत्य कला से समृद्ध यह मंदिर देखने वालों को आश्चर्यचकित कर देता है।
मंदिर की विशेषताएं
मंदिर में 12 गोपुरम हैं, जिन पर महीन चित्रकारी है, जो अपने आप में विलक्षण है।
इस विशाल भव्य मंदिर का स्थापत्य एवं वास्तु काफी रोचक है। इसकी बाहरी दीवारें और अन्य बाहरी निर्माण को लगभग दो सहस्राब्दी से भी पुराना माना जाता है।
वर्तमान में जो मंदिर है उसे 17वीं शताब्दी में बनवाया गया था। मंदिर में आठ खंभों पर लक्ष्मी जी की आठ मूर्तियां अंकित हैं। इन पर भगवान शंकर की पौराणिक कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है। यह मंदिर मीनाक्षी या मछली के आकार की आंख वाली देवी को समर्पित है।
मीनाक्षी मन्दिर का निर्माण दक्षिण भारतीय वास्तुकला के आधार पर किया गया है। मंदिर परिसर का क्षेत्रफल 65,000 वर्ग मीटर है। कई मंदिरों की शृंखला में दक्षिण में स्थित इमारत की ऊंचाई 160 फुट है।
मीनाक्षी मन्दिर के विशाल गर्भगृह में अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं। जबकि केन्द्र में मीनाक्षी देवी की मूर्ति है और उससे थोड़ी ही दूर भगवान् गणेश की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है। यहां की प्रतिमाओं की खास बात यह है कि ये खंडित पत्थर की नहीं हैं। ये एक ही पत्थर को काट कर बनाई गई हैं।
मंदिर में प्रतिदिन देश-विदेश के 25,000 से ज्यादा दर्शनार्थी आते हैं और इसके अनूठे स्वरूप को देखकर चकित रह जाते हैं।
सांची स्तूप
शांति का प्रतीक
सांची के स्तूप भारत के शिल्प की पुरातन परंपरा की कहानी कहते हैं। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित एक गांव का नाम सांची है। इस गांव के नाम पर इन स्तूपों को सांची के स्तूप कहा जाता है। बेतवा नदी के तट पर बहुत से बौद्ध स्मारक मौजूद हैं। इन स्मारकों का निर्माण काल ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी एवं 12वीं शताब्दी के बीच माना जाता है। सांची का मुख्य स्तूप मूलत: सम्राट अशोक ने बनवाया था। यहां छोटे-बड़े अनेक स्तूप हंै। गुप्तकालीन पाषाण स्तम्भ है। यहां केंद्र में एक अर्ध गोलाकार ढांचा विराजमान है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष मौजूद हैं।
एक ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर पहले ज्ञात इतिहासकार थे जिन्होंने 1818 में सांची के स्तूप का अस्तित्व दर्ज किया। शौकिया पुरातत्ववेत्ताओं और खजाना लूटने वालों ने इस स्थल का खूब ध्वंस किया, जब तक 1818 में उचित जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ नहीं हुआ। इसके बाद 1912 एवं 1919 के बीच इसे संरक्षित किया गया। इस कार्य को किया था जॉन मार्शल ने। यहां आज भी लगभग पचास के आस-पास स्मारक स्थल मौजूद हैं। साथ ही यहां कई मंदिर भी हैं हैं और तीन प्रमुख स्तूप हैं। 1989 में यूनेस्को द्वारा इस स्थान को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया जा चुका है।
स्तूपों का ऐतिहासिक महत्व
यहां के प्रमुख स्तूप में एक स्थान पर दूसरी शताब्दी ई.पू. में तोड़फोड़ की गई थी। इस घटना को शुंग सम्राट पुष्यमित्र शुंग के उत्थान से जोड़कर देखा जाता है। माना जाता है कि पुष्यमित्र ने इस स्तूप का ध्वंस किया होगा और बाद में, उसके पुत्र अग्निमित्र ने इसे पुन: निर्मित करवाया होगा। शुंग वंश के अंतिम वर्षों में, स्तूप के मूल रूप का पाषाण शिलाओं से लगभग दोगुना विस्तार किया गया था। इसके गुंबद को ऊपर से चपटा करके, इसके ऊपर तीन छतरियां, एक के ऊपर दूसरी करके बनवाई गई थीं। ये छतरियां एक वर्गाकार मुंडेर के भीतर बनी थीं। अपनी कई मंजिलों सहित, इसके शिखर पर धर्म का प्रतीक, विधि का चक्र लगा था। यह गुंबद ऊंचे गोलाकार ढोल रूपी निर्माण के ऊपर लगा था। इसके ऊपर एक दो-मंजिला जीने से पहुंचा जा सकता था। भूमि स्तर पर बना दूसरी पाषाण परिक्रमा, एक घेरे से घिरी थी। इसके बीच प्रधान दिशाओं की ओर कई तोरण बने थे। द्वितीय और तृतीय स्तूप की इमारतें शुंग काल में निर्मित प्रतीत होती हैं, परन्तु वहां मिले शिलालेख के
अनुसार उच्च स्तर के अलंकृत तोरण शुंग काल के नहीं थे, इन्हें बाद के सातवाहन वंश द्वारा बनवाया गया था। इसके साथ ही भूमि स्तर की पाषाण परिक्रमा और महान स्तूप की
पाषाण आधारशिला भी
उसी काल का निर्माण हैं।
स्तूप की विशेषताएं
एक चपटी छत के वर्गाकार गर्भगृह में द्वार मंडप और चार स्तंभ हैं। आगे का भाग और स्तंभ विशेष अलंकृत गुंबद और नक्काशीकृत हंै, जिनसे मंदिर को एक परंपरागत छवि मिलती है।
सांची का स्तूप बड़े पैमाने पर एक बड़े पत्थर द्वारा बना ढांचा है जिसमें चार द्वार हैं।
प्रवेश द्वार पर नर और मादा पेड़ पर खुदे भित्ति चित्र के रूप में ढाले गए हैं। पत्थरों पर तराशे गए ये चित्र शिल्प की कारीगरी और वास्तुकला की ऐसी मिसाल है जिन्हें देखकर आज भी आश्चर्य होता है। आंखों को चौंका देने वाली यह वास्तुकला मानव की भावनाओं और मानसिक स्थिति को चित्रित करती हैं।
पाषाण नक्काशी में बुद्ध को मानव आकृति में नहीं दर्शाया गया है। उन्हें कहीं घोड़ा, जिस पर वे अपने पिता के घर का त्याग कर के गये थे, तो कहीं पदचिन्ह, कहीं बोधि वृक्ष के नीचे का चबूतरा (जहां उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी) के रूप में दर्शाया गया है।
सांची की दीवारों पर बने चित्रों में यूनानी पहनावा दर्शनीय है। इसमें यूनानी वस्त्र, मुद्रा और वाद्ययंत्र प्रदर्शित किए गए हैं जो कि स्तूप के अलंकरण रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
बांद्रा-वर्ली सेतु
आधुनिक कारीगरी का कमाल
आधुनिक दौर के इस निर्माण के संदर्भ में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस विशालकाय सेतु को बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी और इससे क्या फायदा हुआ? इस सेतु से पहले बांद्रा से वर्ली जाने के लिये लगभग एक घंटे का समय लगता था, जो अब घटकर 8-10 मिनट रह गया है। हर दिन लाखों वाहनों के गुजरने के दौरान ईधन की जो खपत होती थी, वह बड़ी मात्रा में बची है। समय की बचत तो मुंबई जैसे तेज रफ्तार शहर में वरदान की तरह है। इस सेतु को आगामी कई दशकों तक मुंबई के टैÑफिक की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इसमें आने-जाने के लिये चार- चार लेन (आठ लेन) की सड़क है। किसी पुल पर आठ लेन की सड़क होना एक बड़ी उपलब्धि है। इसका निर्माण करने वाली कंपनी का नाम हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी है, जिसने महाराष्ट्र राज्य सड़क विकास निगम की इस परियोजना को पूर्ण करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतन्त्रता के बाद भारत में जो कुछ महत्वपूर्ण निर्माणकार्य हुए हैं, उनमें यह अनूठा है। इसी तरह गंगा नदी पर बना पटना से हाजीपुर को जोड़ने वाला और 1982 में निर्मित महात्मा गांधी सेतु भी आधुनिक विश्वकर्मा की कुशलता की कहानी है। लगभग पौने छह किमी. लंबा यह सेतु विज्ञान इंजीनियरों की कारीगरी ही है।
सेतु की विशेषताएं
आधुनिक युग और 21वीं शताब्दी के प्रमुख निर्माणों में शुमार यह सेतु समृद्ध वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। इस सेतु का आधिकारिक नाम राजीव गांधी सागर सेतु है। इसे 1 जुलाई, 2009 की मध्यरात्रि से इसे जनता के लिये खोल दिया गया था। इस सेतु की लंबाई साढ़े पांच किलोमीटर से ज्यादा है।
मुंबई के दो उपनगरीय इलाकों बांद्रा और वर्ली को जोड़ने वाले इस हैरतअंगेज अजूबे को बनाने की परिकल्पना अस्सी के दशक में प्रारम्भ हुई थी और इसे बनाने में तीन दशक का समय लगा। इस पुल के निर्माण में लगे सामान और उसकी संख्या से इसके विराट स्वरूप का भान होता है।
सेतु में 38,000 किमी. रस्सियां और 5,75,000 टन कंक्रीट लगा है। इसको बनाने में छह हजार श्रमिकों ने जीतोड़ मेहनत की। सेतु में लगे स्टील के तार खास तौर पर चीन से मंगाए गए थे और उन्हें जंग प्रतिरोधक बनाने के लिये विशेष तरह के पेंट का लेप लगाया गया है। इस पेंट के ऊपर इन तारों पर प्लास्टिक का एक विशेष सुरक्षा कवच चढ़ाया गया है, ताकि स्टील के तारों की उम्र लंबी हो।
आधुनिक दौर की इस ऐतिहासिक धरोहर को बनाने पर 16.50 अरब रु. का खर्च आया। इसमें एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि पुल में प्रकाश व्यवस्था पर ही 9 करोड़ खर्च हुए।
दिल्ली की जीवनरेखा
मेट्रो की नायाब कारीगरी के महत्व को समझ
ने के लिये पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन या चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन की मिसाल ले सकते हैं, जहां जमीन के अंदर तीन मंजिला मेट्रो स्टेशन बना है। यह दिल्ली का बेहद भीड़भाड़ वाला इलाका है, जहां पैदल यात्रियों का निकलना तक दूभर था।
दिल्ली में चलने वाली सिटी बसों से उड़ते काले धुएं एवं जाम की समस्या के बीच दिल्ली उलझी हुई थी। 1996 में मेट्रो की परियोजना बनी और 1998 में इस पर काम शुरू हुआ। शुरुआत में लोगों को इस महत्वाकांक्षी परियोजना के समय पर पूरा होने में संदेह था क्योंकि जिस देश में एक छोटे से सेतु को बनाने में ही चार-पांच साल लग जाते हों, वहां मेट्रो एक बड़ा स्वप्न था। किन्तु लोगों की कल्पनाओं के विपरीत 1998-2002 के बीच तेजी से काम हुआ और केंद्र-राज्य सरकारों के परस्पर समन्वय से दिल्ली की पहली मेट्रो 2002 में दौड़ने लगी।
इसके बाद 2006 में जब मेट्रो के दूसरे चरण की तैयारी शुरू हुई तो राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान भारत की परिवहन व्यवस्था की साख भी दांव पर थी। इस दौरान आधुनिक विश्वकर्माओं ने अपने हुनर से पूरे विश्व को दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर दिया। शुरुआती दौर में सात साल में 65 किमी. बनी मेट्रो तेजी के साथ साढ़े चार साल में 124 किमी. और ज्यादा बड़ी हो गयी। समय और अभियांत्रिकी के हिसाब से यह बड़ी उपलब्धि रही। ल्ल
मेट्रो की विशेषताएं
विश्व में अब तक जापान, कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर, जर्मनी तथा फ्रांस में ही मेट्रो रेल परिचालित है। इस संदर्भ में भारत का नाम अग्रणी विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है।
ल्ल दिल्ली में अनुमानित 35 लाख वाहन वालों यात्री मेट्रो द्वारा सफर करते हैं। भीड़ भाड़ वाले इलाकों में जहां वाहनों की औसत गति पन्द्रह किलोमीटर प्रति घंटा है, वहां दिल्ली मेट्रो समय और धन दोनों की बचत कर रही है। साथ ही अपनी नवीनतम तकनीक के साथ जन-परिवहन का एक अनूठा उदाहरण है।
भारत की राजधानी दिल्ली में लगभग दो करोड़ लोग निवास करते हैं। इन लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये आवागमन एवं व्यापारिक परिवहन की दिशा में दिल्ली मेट्रो का महत्व समझ आता है। दिल्ली मेट्रो के शिल्प और वास्तु में इस बात का भी महत्व है कि दिल्ली के भीड़भाड़ वाले इलाकों में जहां पैदल निकलना तक मुश्किल है, वहां कहीं जमीन के अंदर तो कहीं खुले आकाश में मेट्रो दौड़ रही है।
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