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घड़ा भर चुका है। यह कूटनीति नहीं, कूटनीतिक विफलता है जिसके कारण चीन डोकलाम में पैर फंसाने के बाद असमंजस में है और राजनयिक गलियारों में भारी सुगबुगाहट के बाद भी विश्व फलक पर चीनी राजनयिकों के होंठ सिले हुए हैं। यह घबराहट होनी भी चाहिए क्योंकि डोकलाम छोटी जगह है और दांव कुछ ज्यादा ही बड़ा है। (पाञ्चजन्य, 27 अगस्त)
यही हुआ, क्योंकि यही होना था। डोकलाम विवाद के बारे में पाञ्चजन्य की सधी टिप्पणी के उल्लेख का अर्थ अपने सही होने को इंगित करना नहीं बल्कि इस बात को रेखांकित करना है कि चीन के मामले में भारत को आगे का रास्ता भी इसी तरह के कदमों से पूरा करना होगा।
भारत सही साबित हुआ। चीन को बुनियादी ढांचे के निर्माण की आड़ में पलते विस्तारवादी सपने को ‘फिलहाल’ त्यागना पड़ा। यह बड़ी बात है लेकिन इतनी भी बड़ी नहीं कि तात्कालिक उत्साह दीर्घकालिक समझदारी पर हावी हो जाए। अगले माह चीन में ब्रिक्स सम्मेलन प्रस्तावित है। फिर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का महासम्मेलन, जिसमें शी जिनपिंग की भावी ताकत आंकी जानी है। इसीलिए असुविधाजनक स्थितियों में फंसने, विवाद के घिसटने और ताकत गंवाने का दांव खेलने की फिलहाल कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए चीन को हटना पड़ा।
वैसे, एक छोटी किन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि चीन द्वारा गलत स्थान और मौके के चयन और इसके सामने भारत की चपलता, सतर्कता, और प्रभावी कूटनीति से मिली स्पष्ट जीत के बावजूद विश्लेषक और टिप्पणीकारों की एक जमात इस पूरे घटनाक्रम को किन्तु-परंतु के बाट लगाकर तौलते दिखी!
क्या इस पूरे प्रकरण में किसी किन्तु-परंतु या धुंधलेपन की कोई गुंजाइश है? यथास्थिति चीन ने तोड़ी थी। अब वह वहां सड़क नहीं बनाएगा, यह चीन ने ही माना है।
वह डोकलाम से नहीं हटेगा, यह घोषणा चीन ने ही तो की थी! वह अपनी सीमा में गश्त करता था, डोकलाम से हटकर अपनी सीमा के भीतर गश्त करता रहे, किसे आपत्ति हो सकती है। फिर पीछे कौन हटा?
खिसियाकर कदम खींचते ड्रेगन का कद बनाए रखने की कशमकश ग्लोबल टाइम्स की मजबूरी हो सकती है किन्तु भारत में सच से ऐसी अपच! क्या चीनी पक्ष में झुके ऐसे किसी भी भ्रामक विश्लेषण के रणनीतिक आयाम हो सकते हैं? सधे कदमों से चलने की बात का एक पहलू यह भी है कि भारत जैसे मुखर लोकतंत्र में विपरीत या भ्रामक विचार/प्रचार का असर नापना सोशल मीडिया जैसे आक्रामक माध्यम का वजन परखने का पैंतरा भी हो सकता है। हालांकि साइबर युद्ध नहीं छिड़ा किन्तु चीन का सरकारी मीडिया तो बुरी तरह आक्रामक दिख ही रहा था! ऐसे में ड्रेगन द्वारा हमारे कमजोर तकनीकी पक्षों और घातक सूचनाओं के हरकारों (ूं११्री१) की ताकत नहीं तौली गई होगी, कौन कह
सकता है!
सीमाओं की चौकसी साज-समान और सैन्य साहस से हो सकती है, किन्तु इंटरनेट के आदी नागरिकों की निर्भयता और निश्चिंतता भविष्य के युद्धों का नया मोर्चा होगी इसलिए यहां भी अपुष्ट/भ्रामक सूचनाओं की छंटाई और उपलब्ध कानूनों के तहत मुस्तैद कार्रवाई भविष्य की जरूरत लगती है।
हालांकि डोकलाम विवाद ठंडा पड़ गया है, किन्तु चीन की सुलगती विस्तारवादी इच्छाएं भी शांत हो गई हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं। भले चीन ‘वन बेल्ट वन रोड’ को ‘दुनिया के हित में कदम बताए किन्तु दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर विश्व बिरादरी के रुख को ठेंगा दिखाना और तिब्बत की पहचान को निगलते जाने का क्रम बताता है कि भिन्न भूगोल और पहचानों के दमन और अतिक्रमण की चीनी इच्छा घटी नहीं बल्कि आदत में बदलते हुए बढ़ी ही है। वैसे, चीन अगर पाकिस्तान को बगलबच्चा बनाकर और छोटे देशों को भारी निवेश के प्रस्तावों से लुभा रहा है तो इस बीच भारत ने विभिन्न देशों से सम्मान और बराबरी का तर्कपूर्ण समीकरण रचा है।
जापान, अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम के साथ भारत की समुद्री भागीदारी एक ऐसी चीज है जिसमें विश्व राजनीति में नई लहर पैदा करने की ताकत है। हाल का यह घटनाक्रम ऐसा है जिसने चीन की नींद उड़ा दी है। और संभवत यही कारण है कि डोकलाम से कदम खींचकर भी उत्तर कोरिया के माध्यम से ड्रेगन जापान पर फुंफकार रहा है!
विश्व राजनीति का नया दौर उस मोड़ पर है जहां नए ध्रुव तैयार हो रहे हैं। क्षणिक उत्साहों को थामते हुए, पूरी मुस्तैदी के साथ बदलाव के इस मोर्चे पर भारत को ‘अटल’ रहना होगा, ध्रुव की तरह, जैसे हमने डोकलाम में पांव जमाए थे। यकीनन यह 1962
नहीं है।
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