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खेल दिवस पर ‘खेल रत्न’ पाकर देवेंद्र झाझरिया खुशी से अभिभूत हैं। इसका श्रेय वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देते हैं। 2016 रियो पैरालंपिक से पहले मोदी ने ‘मन की बात’ में देशवासियों से अपील की थी कि शारीरिक रूप से अशक्त को विकलांग नहीं, ‘दिव्यांग’ कहा जाए। उनका कहना है कि उनके इस एक शब्द ने खिलाड़ियों का मनोबल इतना बढ़ाया कि हम पैरालंपिक खेलों में दोगुने-चौगुने उत्साह के साथ उतरे। परिणाम, हमने रियो में इतिहास रचा और अब पहली बार दिव्यांग खिलाड़ी को खेल रत्न से सम्मानित कर सरकार ने इतिहास रचा है। देवेंद्र ने करिअर, सफलताएं और जीवन के तमाम पहलुओं पर प्रवीण सिन्हा से लंबी बात की। प्रस्तुत हैं कुछ प्रमुख अंश :
सबसे पहले आपको खेल रत्न सम्मान पाने की बधाई। क्या आपने कभी सोचा था कि अशक्त खिलाड़ी की श्रेणी में आने वाला देवेंद्र कभी देश का सर्वोच्च खेल सम्मान हासिल कर सकेगा?
धन्यवाद। जहां तक ‘खेल रत्न’ पाने की बात है तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं सर्वोच्च खेल सम्मान हासिल करने वाला देश का पहला दिव्यांग खिलाड़ी बन पाऊंगा। उस समय मैं महज आठ साल का था। पेड़ के बीच से होकर गुजरने वाले हाई वोल्टेज तार से करंट लगने के बाद जब मैं जमीन पर गिरा तो लगा कि अब कभी उठ भी नहीं सकूंगा। ईश्वर की कृपा से मैं बच तो गया, लेकिन डॉक्टरों को बाएं हाथ का आधा से अधिक हिस्सा काटना पड़ा। इस हादसे के बाद एक ही झटके में मेरी जिंदगी आम बच्चों की जिंदगी से अलग हो गई। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैं कमजोर नहीं कहलाना चाहता था। मैं भी अन्य बच्चों की तरह अलग मुकाम हासिल करना चाहता था। इसलिए खूब मेहनत की। इसमें परिवार ने मेरा पूरा साथ दिया और मैं निरंतर मेहनत करते हुए दो बार विश्व रिकॉर्ड सहित पैरालंपिक खेलों का स्वर्ण पदक जीतने वाला देश का पहला खिलाड़ी बना। उसी मेहनत, उसी लगन का नतीजा है कि आज मैं खेल रत्न सम्मान का हकदार बना।
आप पहली बार अपने परिजनों के साथ रहते हुए कोई सम्मान हासिल कर रहे थे। उस समय आप कैसा महसूस कर रहे थे?
मैं अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान हासिल कर रहा था। उस समय मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मेरी बिटिया रिया ने पिछले साल पैरालंपिक खेलों के दौरान अपनी कक्षा में अव्वल आने के बाद मुझसे कहा था, ‘‘पापा मैं फर्स्ट आई, अब आपकी बारी है।’’ मैंने बिटिया से किया वादा पूरा किया। लेकिन उस समय खुशी मनाने के लिए मेरे परिवार का कोई सदस्य वहां मौजूद नहीं था। अपने परिजनों के बीच देश के राष्ट्रपति से सर्वोच्च खेल सम्मान हासिल करने की अनुभूति बेहद खास थी। मेरी सफलताओं को पहचान मिलने या पारितोषिक मिलने का वह अद्भुत क्षण था। मैं इसे कभी नहीं भूल पाऊंगा।
अपने खेल करिअर के बारे में बताएं कि आप किस तरह पैरालंपिक जैसे महामंच पर दो बार भारतीय परचम फहराने में सफल रहे?
सच तो यह है कि बचपन में ही एक हाथ का बड़ा हिस्सा का कट जाना मेरे और परिजनों के लिए बहुत बड़ा झटका था। उस पर भी राजस्थान के गांव में खेलों की कोई विशेष सुविधा नहीं होने के कारण मैंने कभी सोचा ही नहीं कि खिलाड़ी बन सकूंगा। हां, जिंदगी में और बच्चों के बराबर आने के लिए और ताकत हासिल करने के लिए मैं अतिरिक्त प्रयास और मेहनत जरूर करता था। 1999 में मोटा कॉलेज, राजगढ़ (चुरू) में भाला फेंक में सफलता हासिल करने के बाद मुझे लगा कि मैं देश का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हूं। बाद में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम की जीवनी पढ़कर मुझे काफी प्रेरणा मिली। मैं मानने लगा था कि मेहनत करने से सबकुछ हासिल किया जा सकता है। उसके बाद मैंने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया कि पैरालंपिक खेलों में देश का नाम रोशन करना है। 2003 में ब्रिटिश ओपन एथलेटिक्स में मैंने 59.77 मीटर दूरी तक भाला फेंक कर विश्व रिकॉर्ड बनाया तो विश्वास और बढ़ गया। इसके बाद 2004 एथेंस पैरालंपिक खेलों में मुझे भारतीय दल का ध्वजवाहक बनने का मौका मिला। वह पल हौसला बढ़ाने वाला साबित हुआ और मैं एथेंस में 62.15 मीटर का नया विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए एफ 46 भाला फेंक स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहा। हालांकि बीजिंग और लंदन पैरालंपिक खेलों में इस स्पर्धा को शामिल नहीं किया गया, जिसकी वजह से मैं स्वर्णिम सफलता दोहराने में सफल नहीं हो सका। इस बीच, 2004 में अर्जुन पुरस्कार और 2012 में पद्मश्री सम्मान मिला। यह सम्मान भी देश के लिए और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करता रहा। मेरी जीत की ललक खत्म नहीं हुई थी। इसलिए रियो में जैसे ही मौका मिला, एक बार फिर मैं 63.97 मीटर तक भाला फेंक कर नया विश्व रिकॉर्ड बनाने के साथ स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहा। पैरालंपिक खेलों में दो-दो बार तिरंगा फहराया जाना और राष्ट्र धुन बजने का वह क्षण आज भी मुझे रोमांचित करता है। वे बड़े गौरवशाली क्षण थे। मुझे इस बात की खुशी है कि मेरी सफलताओं को बराबर सम्मान मिला।
एथेंस पैरालंपिक खेलों में स्वर्ण जीतने के बाद आपको रियो में दूसरा स्वर्ण पदक जीतने के लिए 12 साल तक इंतजार करना पड़ा। आपने इस दौरान खेल के मैदान पर बेहतर प्रदर्शन करते रहने के लिए खुद को कैसे प्रेरित किया?
मैंने जीवन में हार मानना नहीं सीखा है। मैं खेल को अपना जीवन बना चुका था। 12 वर्ष तक पैरालंपिक खेलों में अपनी बारी आने का इंतजार करना आसान नहीं होता, लेकिन मुझे भरोसा था कि मेरी स्पर्धा को पैरालंपिक खेलों में शामिल जरूर किया जाएगा। मैंने हर दिन दो-चार घंटे तक प्रशिक्षण करना जारी रखा। इस बीच, ‘साई सेंटर’ में मुझे युवाओं को प्रशिक्षण देने का भी मौका मिला जिससे मैं शारीरिक तौर पर खुद को फिट रखने में सफल रहा। ‘साई’ ने मुझे प्रशिक्षण में काफी मदद की। लेकिन देश के लिए ज्यादा से ज्यादा सफलता हासिल करने की मेरी भूख कभी कम नहीं हुई। शायद इसी इच्छाशक्ति के बल पर मैं निरंतर खेलता रहाऔर जब भी मौका मिला, उसे भुनाने में सफल रहा।
क्या आपको लगता है कि देश में पैरालंपिक खेलों की पर्याप्त सुविधाएं मौजूद हैं?
नहीं। मैं नहीं मानता कि देश में पैरालंपिक खेलों के लिए पर्याप्त सुविधाएं मौजूद हैं। रियो पैरालंपिक खेलों से पहले ‘साई’ की मदद से मुझे करीब चार महीने तक फिनलैंड में प्रशिक्षण लेना पड़ा। वहां विशेष तौर पर मैंने प्रतिदिन 6-8 घंटे तक तेज गति से दौड़ते हुए भाला फेंकने और भाला फेंकने के दौरान अपना शारीरिक संतुलन बनाए रखने के प्रशिक्षण लिया। वहां ओलंपिक स्टेडियम जैसी तमाम सुविधाएं मौजूद थीं। विदेशों में जाकर एहसास हुआ कि हमारे देश में अभी भी विशेषकर दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए स्टेडियम की सुविधाओं की कितनी कमी है। अशक्त खिलाड़ियों के लिए अलग मैदान, अलग ट्रैक, व्हील चेयर, प्रशिक्षक और फील्ड के करीब विशेष सुविधाओं से लैस टॉयलेट की व्यवस्था की काफी अहमियत होती है। मुझे लगता है कि देश के हर राज्य में इस तरह के स्टेडियम बनाए जाने चाहिए ताकि देश में पैरालंपिक खेलों को लेकर एक माहौल बन सके। देश में शारीरिक रूप से अशक्त करीब पांच करोड़ अशक्त खिलाड़ी हैं। उन्हें आगे बढ़ाने के लिए सुविधाओं की जरूरत तो पड़ेगी ही।
क्या आपको नहीं लगता है कि आपको खेल रत्न से सम्मानित कर सरकार ने पैरा एथलीटों को प्रोत्साहित करने की दिशा में एक नया कदम बढ़ाया है?
मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं। सरकार द्वारा मुझे सम्मानित करना एक ऐतिहासिक फैसला है। यह एक पैरा एथलीट को सामान्य एथलीटों के समकक्ष खड़ा करने का महान प्रयास है। इससे देश के तमाम पैरा एथलीटों का मनोबल बढ़ेगा और वे सभी अपने क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने को प्रेरित होंगे। लेकिन पैरा खेलों और एथलीटों को बढ़ावा देने के लिए पूरे देश में एक माहौल बनाने की जरूरत है। मुझे पूरा विश्वास है कि सरकार इस दिशा में जरूर सकारात्मक प्रयास करेगी।
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