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इन्होंने असंवैधानिक करार दिया
सर्वोच्च न्यायालय ने मुसलमानों में सदियों से चली आ रही उस तीन तलाक प्रथा पर रोक लगा दी है जो मुस्लिम महिलाओं के लिए कष्ट का कारण बनी हुई थी। तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) पर रोक के मायने हैं कि अब फोन, चिट्ठी, ई-मेल, व्हाट्सएप और एसएमएस जैसे तरीकों से तलाक देने पर रोक लगेगी।
पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल तीन न्यायमूर्ति तीन तलाक को समाप्त किए जाने के पक्ष में थे, जबकि दो का मत था कि सरकार इस पर कानून बनाए। न्यायालय ने कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है। यह ऐसी प्रथा है जो एक महिला को बिना कोई मौका दिए शादी को खत्म कर देती है। न्यायालय ने मुस्लिम देशों में इस प्रथा पर पाबंदी का जिक्र करते हुए पूछा कि भारत इससे क्यों आजाद नहीं हो सकता? संविधान पीठ में हिन्दू, सिख, मुस्लिम, ईसाई और पारसी मत-संप्रदायों से न्यायमूर्ति थे। न्यायमूर्ति जोसफ, न्यायमूर्ति नरीमन और न्यायमूर्ति ललित ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार दिया, जो देश के नागरिकों को समानता का अधिकार देता है।
न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने अपने फैसले में कहा कि तीन तलाक इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इस प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 25 (मौलिक अधिकारों से संबंधित) का संरक्षण हासिल नहीं है। कोई प्रथा इसलिए वैध नहीं हो सकती, क्योंकि वह लंबे समय से चल रही है। तलाक शादी तोड़ने का अंतिम उपाय है। इससे पहले सुलह का हरसंभव प्रयास होना चाहिए जो एक साथ तीन तलाक के मामले में नहीं है। तीन तलाक कुरान के खिलाफ और असंवैधानिक है। मुख्य न्यायाधीश की इस बात से सहमत होना कठिन है कि यह इस्लाम का अंदरूनी मामला है।
न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन ने अपना और न्यायमूर्ति यूयू ललित का फैसला पढ़ा। इसमें उन्होंने कहा कि वे मुख्य न्यायाधीश की राय से सहमत नहीं हैं। तीन तलाक को संविधान के तहत संरक्षण नहीं दिया जा सकता। यह समानता और अन्य मौलिक अधिकारों का हनन है। तीन तलाक को संवैधानिकता की कसौटी पर कसा जाना जरूरी है। जब मुस्लिम देशों ने इस प्रथा को खत्म कर दिया है तो आजाद भारत को इससे छुटकारा क्यों नहीं लेना चाहिए। मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट 1937 की धारा 2 के तहत तीन तलाक को जायज ठहराया जाता है। यह धारा असंवैधानिक है।
न्यायमूर्ति यूयू ललित ने न्यायमूर्ति नरीमन के फैसले से सहमति जताई और कहा कि तीन तलाक सहित हर वह प्रथा अस्वीकार्य है, जो कुरान के मूल तत्व के खिलाफ है।
ये चाहते थे सरकार कानून बनाए
मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने अपना और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर का फैसला पढ़ा। इसमें उन्होंने कहा कि तीन तलाक खत्म करना उचित नहीं है। यह इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है। सरकार और मुस्लिम संगठनों को इस पर फिर से विचार करना चाहिए। यह प्रथा 1400 वर्षों से चली आ रही है। अनुच्छेद 25 में पांथिक स्वतंत्रता की आजादी के तहत न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता। केंद्र सरकार चाहे तो तीन तलाक को खत्म करने के लिए छह माह में कानून बनाए। सरकार अगर छह माह में कानून नहीं बना पाती है तो भी यह रोक जारी रहेगी।
न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर ने अलग से फैसला नहीं सुनाया। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश की राय से सहमति जताई और कहा कि राजनीतिक दल अपने मतभेद परे रखते हुए केंद्र को इस संबंध में कानून बनाने में सहयोग करें। छह माह के अंदर केंद्र सरकार कानून नहीं बनाती है तो तीन तलाक पर अंतरिम रोक जारी रहेगी।
इन्होंने लड़ी हक की लड़ाई
उत्तराखंड के काशीपुर की सायरा बानो स्नातकोत्तर हैं और तीन तलाक के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य याचिकाकर्ता थीं। उनका निकाह 2001 में इलाहाबाद के रिजवान अहमद से हुआ था। पति दहेज के लिए उनके साथ मारपीट करता था। पति ने अप्रैल 2015 में उन्हें मायके भेज दिया और अक्तूबर में चिट्ठी के जरिये तलाक दे दिया। तलाक के बाद दोनों बच्चों की जिम्मेदारी भी सायरा के कंधों पर आ गई। 38 वर्षीया सायरा ने पिछले साल तीन तलाक और निकाह हलाला के चलन की संवैधानिकता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। साथ ही, अपने समुदाय में प्रचलित बहुविवाह प्रथा को भी गलत बताते हुए इसे खत्म करने की मांग की थी।
सायरा बानो
उत्तर प्रदेश के सहारनुपर की आतिया साबरी का निकाह 2012 में हरिद्वार के वाजिद अली से हुआ था। एक साल बाद बेटी हुई तो ससुराल वाले मारपीट करने लगे। दहेज की भी मांग करने लगे। दूसरी बेटी को जन्म देने के बाद सभी उसके खिलाफ हो गए। आरोप है कि ससुराल वालों ने उन्हें जहर देकर मारने की भी कोशिश की। इसके बाद 2015 की एक रात को ससुराल वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया। 2016 में पति ने कागज पर तीन तलाक लिखकर डाक से भेज दिया और उस पर दारूल उलूम से फतवा भी ले लिया, लेकिन आतिया को इसकी खबर तक नहीं थी। आतिया साबरी
उत्तर प्रदेश के रामपुर की रहने वाली गुलशन परवीन का निकाह 2013 में हुआ था। उनका पति नोएडा में काम करता है। गुलशन परवीन का आरोप है कि पति उन्हें बेरहमी से पीटता था। 2016 की बात है। वे अपने माता-पिता के पास रामपुर आई हुई थीं। इसी दौरान पति ने दस रुपये के स्टाम्प पेपर पर तलाकनामा भेज दिया। गुलशन ने तलाक मानने से इनकार किया तो पति पारिवारिक अदालत में चला गया। वहां उसने तलाकनामे के आधार पर निकाह खत्म करने की याचिका दी। लेकिन गुलशन ने हार नहीं मानी। गुलशन का बेटा दो साल का है। गुलशन परवीन
जयपुर की 25 वर्षीया आफरीन रहमान का निकाह 2014 में इंदौर के एक अधिवक्ता से हुआ था। आफरीन भी एमबीए करने के बाद नौकरी कर रही थी। लेकिन निकाह के बाद उसने नौकरी छोड़ दी। निकाह के कुछ महीने बाद ही ससुराल वालों ने दहेज की मांग शुरू कर दी। उनकेसाथ मारपीट की जाती थी। एक साल में ही उन्हें मायके भेज दिया गया। इसके बाद पति ने कोई संपर्क नहीं रखा। बाद में स्पीड पोस्ट के जरिये आफरीन को तलाक दे दिया। आफरीन ने इसे अनुचित बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। आरोप था कि पति और ससुराल पक्ष के लोगों ने दहेज की मांग को लेकर उन्हें बुरी तरह मारा-पीटा और घर से निकाल दिया। आफरीन रहमान
पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले की इशरत जहां का निकाह 2001 में मुर्तजा से हुआ था। आरोप था कि पति और ससुराल वाले उन्हें घर से निकालने की कोशिश कर रहे थे। बाद में पति दुबई चला गया और 2015 में वहीं से फोन पर तलाक दे दिया। इशरत ने तलाक की संवैधानिकता को शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी। याचिका में उन्होंने कहा था कि पति ने दूसरा निकाह कर लिया है। बच्चों को भी जबरन अपने साथ ले गया। उन्होंने बच्चों को वापस दिलाने और अपने लिए पुलिस सुरक्षा की मांग की थी। साथ ही, कहा था कि तीन तलाक गैरकानूनी है और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन है। इशरत जहां
सबसे पहले इंदौर की 62 वर्षीया शाह बानो ने 1978 में तलाक गुजारा भत्ते के लिए कानून की शरण ली थी। पांच बच्चों की मां को पति मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया था। सर्वोच्च न्यायालय में उनका मुकदमा पहुंचने में सात साल लग गए। न्यायालय ने उनके हक में फैसला सुनाते हुए पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। लेकिन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम 1986 पारित कर अदालत के फैसले को पलट दिया। शाह बानो
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