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दो दिन, अदालत के दो फैसले—समाज और राजनीति की दो भिन्न प्रकार की मुद्राएं। ले.कर्नल श्रीकांत पुरोहित की जमानत और एक झटके में तीन तलाक की बर्बर व्यवस्था पर अदालती चोट ने अरसे से खदबदाते कई प्रश्नों को सतह पर ला दिया। क्या अदालत ही आखिरी उपाय है! और यदि समाज साहस दिखाएगा तो भी क्या तुष्टीकारक, विभाजक राजनीति अपनी राह नहीं बदलेगी?
यह सवाल इसलिए जरूरी है क्योंकि न्यायालय ने एक ऐसी दिशा में विधिसम्मत और साहसपूर्ण दस्तक दी है जिसकी ओर ताकते हुए भी तुष्टीकरण की माला फेरने वाली राजनीति की ‘रूह’ कांपती थी।
मालेगांव धमाके मामले में आरोपित किए गए कर्नल पुरोहित की जमानत इसलिए बड़ी घटना है कि इस मामले में जांच एजेंसियों की कार्यशैली पर भी सवाल उठे। महाराष्टÑ आतंकवाद निरोधक दस्ते के दावे न्यायालय में ढह गए। लेकिन कर्नल पुरोहित पर जांच के दौरान अत्याचार की जो कहानियां छनकर आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दौरान जांच एजेंसियों पर कैसा दबाव रहा होगा।
सेना में कार्यरत एक वरिष्ठ अधिकारी जो अपनी सूचनाओं और कार्यकलापों के बारे में सतर्कतापूर्वक वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित करता रहा, उसे कुत्सित राजनीतिक मंशा रखने वालों ने नौ वर्ष तक जेल में रगड़ ही तो दिया!
सलाखों के पीछे अत्याचारों का दौर चला और बाहर ‘भगवा’ आतंकवाद की झूठी नफीरी बजाई जाती रही! यह शब्द किसने गढ़ा! और क्यों सोनिया गांधी के सामने पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह बिना तथ्यों के यह बात उड़ाते रहे! क्यों राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत से कहा कि उन्हें ‘हिंदू’ आतंकवाद से डर लगता है!
यह कौन-सा डर था? यह डर एक छलावा था! एक हौवा खड़ा कर उससे बाकी समाज को डराने का पैंतरा। तुष्टीकरण की राजनीति के पाले में जनता को भेड़-बकरियों की तरह बांधे रखने की चाल। लेकिन सूचना, ज्ञान और तकनीक के दौर में यह चाल चली नहीं। बाजी पलट गई। अदालत के ताजा फैसलों से पहले ही, इस जनता ने झूठ और साजिश पर टिकी राजनीति की बाजी पलट ही तो दी!
कहां है ‘भगवा’ आतंकवाद जो मुसलमानों को पीसने जा रहा था! और कहां है उन्मादी भीड़ जिसका डर दिखाकर मुस्लिम समाज को अंधेरे और घुटन की बेड़ियों में जकड़े रखा गया! कहां है यह सब! कहां हैं समाज को लड़ाने और महिलाओं का हक
दबाने वाले?
जाहिर है, राजनीति का पैदा किया डर अब नहीं चलेगा! क्या मुस्लिम, भारतीय नहीं? इस समाज का हिस्सा नहीं? क्या मुस्लिम महिलाओं को ‘तीन तलाक’ के कहे-अनकहे संत्रास से मुक्ति नहीं मिलनी चाहिए?
इन फैसलों को भले आगे लंबा रास्ता तय करना हो लेकिन इससे इतना तो साफ हो ही गया कि सेकुलर राजनीति का डंका पीटने वालों के लिए भले यह समाज, ये लोग, इनके मुद्दे ‘मोहरे’ से ज्यादा महत्व न रखते हों, न्यायपालिका के लिए अपने नागरिकों के अधिकार और उनके मध्य समानता का व्यवहार अत्यंत महत्व रखता है। केंद्र सरकार की भी प्रशंसा करनी होगी जिसने तीन तलाक के मुद्दे पर मजबूती से जनभावनाओं को न्यायालय के समक्ष रखा।
वैसे, अदालत ने तो पहले भी यही रुख दिखाया था। 32 बरस पहले शाहबानो ने भरपूर हिम्मत दिखाई थी! न्यायालय तब भी उस बुजुर्ग महिला के साथ खड़ा था किन्तु तब तुष्टीकरण की भुरभुरी-बदबूदार सियासत आड़े आ गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी आड़े आ गए।
आज फैसले के बाद शाहबानो के 67 साल के बेटे, जमील अहमद, जब बताते हैं कि उनके परिवार से 15 मिनट की भेंट में राजीव गांधी का कहना यह था कि वे ‘गुजारा भत्ता’ लेने से इनकार कर दें, तो उस गिलगिली ‘सेकुलर राजनीति’ से परदा हट जाता है जो दशकों तक कांग्रेस की अगुआई और वामपंथी मिलीभगत के बूते चलती रही। तब की बात छोड़िए, आज भी राजनीति के जो चमकीले चेहरे महिलाओं के साथ उनके अधिकार और नागरिक समानता की लड़ाई में खड़े नहीं हो सकते, ऐसे पिलपिले नेताओं की जगह मजहबी पालेबंदियों में हो तो होती रहे, समतामूलक राजनीति और कड़े प्रशासनिक फैसलों की संकल्पभूमि में उनके लिए कोई जगह क्यों होनी चाहिए? दरअसल, यह ऐसी बात है जो राजनैतिक प्रक्रिया के माध्यम से लोकतंत्र में अभिव्यक्त भी हो रही है। जनता ने झूठे नंबरदारों के सामने सिर नवाना बंद कर दिया है। जहां राजनीति सकुचाती है, वहां इस देश की न्यायपालिका मुखर होकर सामने आती है। विधायिका के विचलन को न्यायपालिका संतुलित कर सकती है, यह बात एक बार फिर स्थापित हो गई। यही तो संविधान बनाते वक्त हमारे पुरखों की साध रही होगी।
बहरहाल, इंदौर में जमील अहमद की आंखें खुशी से नम हैं और पुणे में शनि शीला गणेश मंडल अपनी कॉलोनी के कर्नल पुरोहित के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाए तैयार है।
आइए, इस उत्सवी उल्लास में, मुस्लिम महिलाओं के जीवन में खिलते उजास में हम सभी शामिल हों।
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