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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है।
ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा। विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढ़िए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
एक अरसे बाद रायपुर के मठपुरैना स्थित दृष्टि एवं श्रवण बाधित विद्यालय जाना हुआ। पापा नंबर 2, यानी बीएसएफ डीआईजी के बेटे का की-बोर्ड और कुछ अन्य वाद्य यंत्र डेढ़ साल पहले इन बच्चों को देने के लिए लाए थे। लेकिन स्कूल शहर से बाहर होने के कारण वहां जाना नहीं हुआ। अब चूंकि पापा का स्थानांतरण दिल्ली हो गया तो तो उन्हें भिलाई से दिल्ली जाना था। लिहाजा, अटके काम को पूरा करने का मन बनाया और निकल पड़ी रायपुर के लिए। हॉस्टल से छोटी बहन आशा को भी साथ ले लिया। रास्ते भर सोच रही थी कि पता नहीं, वहां बच्चे मिलेंगे भी या नहीं। लेकिन स्कूल के गेट पर पहुंचते ही आशंका दूर हो गई। दृष्टि बाधित बच्चे एक-दूसरे का हाथ थामे खेल रहे थे।
स्कूल के अंदर गई और वहां के अधीक्षक को अपना परिचय दिया। चंद मिनटों के बाद उन्होंने बच्चों को भी बुला लिया। हम सब गोल घेरा बनाकर जमीन पर बैठ गए। मैं चार साल पहले इन बच्चों से मिल चुकी थी। उन्हें अपना नाम बताया तो बच्चे कहने लगे, आप तो पहले भी आई थीं। सभी ने बारी-बारी अपना परिचय दिया। इसके बाद गाने-बजाने का दौर शुरू हो गया। बच्चों के बीच पता नहीं कहां से मुझमें इतनी सकारात्मक ऊर्जा आ गई थी। कितनी अजीब परिस्थिति थी, वे मुझे देख नहीं सकते थे और मैं देखकर भी उनकी दुनिया से अनजान थी। 11वीं कक्षा के एक बालक ने बरबस ही पूछ लिया, ‘‘लोग हमें दया की दृष्टि से क्यों देखते हैं? हमारे साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार क्यों करते हैं? हम भी सामान्य लोगों जैसे हैं। फर्क इतना है कि हम दुनिया को नहीं देख सकते, पर महसूस तो कर सकते हैं। फिर सोच में इतना अंतर कैसे है?’’ मेरे पास जवाब नहीं था।
दो मिनट की खामोशी के बाद मैंने कहा, ‘‘कौन कहता है, आप अलग हो। लोग आपको अलग मान रहे हैं, क्योंकि आप सब आम लोगों से ज्यादा प्रतिभाशाली हो। मुझे ही देखो, आपके जैसा गा नहीं सकती। तरह-तरह के वाद्य यंत्र भी नहीं बजा सकती। लोगों में जागरूकता की कमी है। आप लोग उनसे ज्यादा जागरूक हो। इसलिए इसे सकारात्मक होकर देखो। यह सोचो कि पढ़-लिखकर जीवन में सफल बनकर उनकी सोच बदल सकते हो।’’ जानती थी कि मेरे जवाब से वह संतुष्ट नहीं था, पर बाकी छोटे बच्चे संतुष्ट नजर आए।
आखिर क्यों हम उन्हें दया का पात्र मानते हैं? हमें अपनी सोच बदलनी चाहिए। कहीं पढ़ा था, जब इनसान खुश होता है तो उसकी आंखों में खुशी के आंसू और चमक दिखती है। लेकिन यहां खिले हुए चेहरे जीवन की सच्चाई बयां कर रहे थे। 10वीं के छात्र ने हू-ब-हू गायक अरिजीत सिंह की आवाज में कुछ गाया, जिसे सभी बच्चों ने एक साथ दोहराया-
लो मान लिया है हमने, है प्यार नहीं तुमको
तुम याद नहीं हमको, हम याद नहीं तुमको
बस एक दफा मुड़कर देखो, ऐ यार जरा हमको
लो मान लिया है हमने, है प्यार नहीं तुमको…
इन बच्चों के बारे में एक और बात बताना चाहूंगी। पूरे छत्तीसगढ़ में नेत्रहीन दिव्यांग बालक-बालिकाओं का यह आर्केस्ट्रा गु्रप प्रसिद्ध है। मुख्यमंत्री से लेकर बड़ी-बड़ी हस्तियों के सामने इन बच्चों ने अपने सुरों का जादू बिखेरा है। इनमें से कई बच्चे आईआईटी और नेट की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। रंग-रंगीली दुनिया के रंगों से बेखबर, छोटी-छोटी बातों से चेहरे पर खिलती बेपरवाह मुस्कान, हंसी-ठिठोली, एक-दूसरे के हमराही बने हाथ, मन की आंखों में सजे बड़े-बड़े ख्वाब बयां कर रहे थे- इनसान चाहे तो अपने हौसले से दुनिया जीत सकता है। उसे देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान और बोलने के लिए जुबान की जरूरत नहीं है।
लोग हमेशा पूछते हैं कि मुझे सुकून कैसे मिलता है? किस बात से मिलता है? … मुझे सुकून उन बच्चों के साथ समय व्यतीत करके मिला। उन सभी से अगली बार जल्द मिलने का वादा करके आई हूं। बस एक बात कचोट रही थी, उनके लिए ज्यादा समय नहीं निकाल पाई। मेरे साथ बच्चे कुछ और समय गुजारना चाहते थे।
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