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डोकलाम विवाद पर चीन शोर मचा रहा है कि भारत ने अपने सैनिकों को वापस नहीं बुलाया तो युद्ध हो जाएगा और भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। दूसरी ओर भारत अपने रवैये पर डटा हुआ है और चीन को सबक सिखाने के लिए चीन से होने वाले आयात की समीक्षा कर रहा है। इसे चीनी शोर का शांत उत्तर माना जा रहा है
ज्ञानेन्द्र बरतरिया
दुनिया में मात्र दो देश ऐसे हैं, जिनकी महत्वाकांक्षाएं अपनी स्थापित सीमाओं से आगे हैं। एक पाकिस्तान, जो अफगानिस्तान से लेकर कश्मीर तक अपने सीमा विस्तार के सपनों में खोया हुआ है। दूसरा है चीन, जिसका अपने लगभग प्रत्येक पड़ोसी के साथ सीमा विवाद है। दोनों ही गीदड़ों के ऐसे झुंड की तरह हैं, जो हुआं-हुआं का शोर मचा सकने की ताकत के बूते सीमा विस्तार करना चाहते हैं। दोनों ही देशों को पता है कि हुआं-हुआं के शोर से शिकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन दोनों की ही आंतरिक-बाहरी मजबूरियां ऐसी हैं, जिनमें उन्हें लगता है कि उनके लिए हुआं-हुआं करना बहुत आवश्यक है।
घटनाक्रम रोचक है। पाकिस्तान में निवर्तमान वजीरे आजम मियां नवाज शरीफ को, साफ-सुथरे बहुमत के बावजूद, आईएसआई के चेलेनुमा पाकिस्तानी न्यायमूर्तियों ने चलता करता दिया। चीन ने हुआं-हुआं की- चीन और पाकिस्तान के रिश्ते स्टील से ज्यादा मजबूत हैं। स्टील माने क्या? मियां नवाज शरीफ बड़े व्यापारी भी हैं, स्टील मिलों के मालिक हैं, और इस कारण उनका ‘मैन आॅफ स्टील’ कहकर मजाक उड़ाया जाता रहा है। अब नवाज शरीफ सिर्फ इस बात की खैर मनाने के काबिल बचे हैं कि सेना ने अभी तक उनका भुट्टो नहीं बनाया है, तो पाकिस्तान के ‘आॅल वेदर फ्रैंड’ चीन ने स्पष्ट कर दिया है कि उसका ‘मैन आॅफ स्टील’ उर्फ मियां नवाज शरीफ से कोई लेना-देना नहीं है। यह थोड़ा और अहम है। स्टील से ज्यादा मजबूत होने के पहले तक चीन और पाकिस्तान के रिश्ते हिमालय से ऊंचे और हिन्द महासागर से ज्यादा गहरे हुआ करते थे। जिनका शाब्दिक अर्थ भारत विरोध की साझी नीति था, लेकिन असली अर्थ सिर्फ कश्मीर के उत्तरी क्षेत्रों से निचले और ग्वादर से उथले रिश्तों में निकला था। अब चीन ने स्टील से ज्यादा मजबूत धातु खोज ली है, जो व्यवहार में सिर्फ पाकिस्तानी फौज के बिकाऊ अफसर भर हैं।
बहरहाल, इस समय डोकलाम पर चीनी शोर-शराबा चरम पर है। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक सबसे बड़ी खबर यह है कि भारत चीन से होने वाले इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर क्षेत्र के आयातों की समीक्षा कर रहा है। यह संभवत: चीनी शोर का शांत उत्तर है। इन आयातों का परिमाण 22 अरब डॉलर आंका गया है।
एक क्षेत्र में 22 अरब डॉलर! और चीन ने पाकिस्तान को कुल कथित 56 अरब डॉलर में खरीदा हुआ है। ये तीनों ही तथ्य हैं, तीनों युद्ध-तत्व हैं और इनमें एक भी सैनिक, एक भी बंदूक, एक भी गोली शामिल नहीं है। इसे मनोवैज्ञानिक युद्ध कहा जाता है। भारत के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि चीनी सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने किस तरह लगातार भारत के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ रखा है। और चीन का यह मनोवैज्ञानिक युद्ध नितांत नादानी का कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो साबित हुआ है। ‘ग्लोबल टाइम्स’ में छपे लगभग 20 लेखों में चीनी मीडिया ने सिलसिलेवार ढंग से भारत को 1962 के युद्ध को दोहराने की चेतावनी दे डाली, चीन ने सिक्किम को लेकर अपना रुख बदलने की धमकी दी, भारत-भूटान संबंधों पर सवाल उठाते हुए अन्तरराष्टÑीय मुहिम शुरू करने की धमकी दी, भारत के उत्तर-पूर्व में समस्याएं खड़ी करने की धमकी दी, पाकिस्तान की तरफ से प्रत्यक्ष तौर पर कश्मीर में चीनी सेना भेजने की धमकी दी, चीन में सोशल साइट्स पर 12 जुलाई, 2017 को ‘पीपुल्स डेली’ अखबार में छपी 1962 के युद्ध की एक तस्वीर भी वायरल की गई। चीन ने ‘लंबे समय तक चलने वाले’ से लेकर ‘बहुत जल्द निपटने वाले’ युद्धों की भी धमकी दी।
इस मीडिया प्रलाप को देखें, तो यह समझना कठिन हो जाता है कि चीन चाहता क्या है। एक तथ्य के अनुसार 80 प्रतिशत से ज्यादा चीनी सैनिक, चीन की ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ के युग की पैदाइश होने के नाते, अपने माता-पिताओं की एकमात्र संतान हैं, जो जाहिर तौर पर लड़ने के इच्छुक नहीं हो सकते। लेकिन चीन क्या चाहता है, यह उसकी आदतों में छिपा है। एक कहावत के अनुसार धरती पर जो भी प्राणी चलता है, हिलता है, चाहे वह किसी भी प्रजाति का हो- जिसे चीनियों ने देख लिया हो, चीन में वह आहार माना जाता है। इसी तरह चीन की एक दूसरी सोच यह है कि जहां तक भी एक भी चीनी रहता है, वह इलाका, जिसे चीनियों ने देख लिया, वह इलाका, जिसे चीनियों ने सोच लिया, वह इलाका- सब चीन का हिस्सा हो जाते हैं। पानी को लेकर युद्ध से लेकर अफीम युद्ध तक तमाम ओछे हथकंडे चीन के राष्टÑीय दिवास्वप्न हैं। लेकिन डोकलाम को लेकर चीन का राष्टÑीय स्वप्न काफी जटिल है। अगर आप चीनी हरकतों को एक व्यापक नक्शे पर दीर्घकालिक दृष्टि से देखें, तो वास्तव में छिटपुट नजर आने वाली हर चीनी हरकत के पीछे एक व्यापक दीर्घकालिक लक्ष्य छिपा देखा जा सकता है। पाकिस्तान में पड़ने वाला चीन का ग्वादर बंदरगाह भले ही सूना पड़ा हुआ हो, फिर भी वह सिक्यिांग तक समुद्री नमक की खेप शंघाई की तुलना में जल्दी पहुंचा सकता है। इसी तरह अगर चीन चाइना-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का कोई पूर्वी संस्करण, तिब्बत तक किसी समुद्री तट का रास्ता बनाने के लिए, बनाने की दीर्घकालिक रणनीति पर काम कर रहा हो, तो उसके लिए डोकलाम जैसे विवाद पैदा करके बरसों चलाते रहना आवश्यक हो जाता है। अगर आप नक्शे पर डोकलाम को देखें, तो स्पष्ट देखा जा सकता है कि चीन तिब्बत से बांग्लादेश में घुसने के लिए सबसे छोटे रास्ते की तलाश में है। अगर शीघ्र ही म्यांमार के साथ भी चीन डोकलाम जैसा कोई विवाद पैदा करता है, तो उससे इसी समझ की पुष्टि होगी। पुष्टिकारी दूसरा तथ्य यह है कि चिटगांव बंदरगाह पर पैर जमाने के लिए चीन ने बांग्लादेश सरकार पर ऐड़ी-चोटी का दबाव बना रखा है, और बांग्लादेश सरकार किसी तरह से उस दबाव का प्रतिकार कर रही है। दक्षिण चीन समुद्र पर भी चीन ने इसी तरह एक-एक र्इंट रखकर कब्जा किया था, और काफी लंबे समय तक इस पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की थी।
व्यापार और निवेश भी चीन के मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक हिस्सा साबित हुआ है। एक दशक से ज्यादा पहले, ताजिकिस्तान ने बहुत जोर-शोर के साथ चीनी निवेश का स्वागत किया था। ताजिकिस्तान में चीनियों के आगमन को, चीनी निवेश को उसी तरह ‘गेम चेंजर’ कहा गया था, जैसे पाकिस्तान इन दिनों कह रहा है (आखिर पाकिस्तान पतनशीलता में भी फिसड्डी ही रहा है)। वर्ष 2009 से ताजिकिस्तान को चीनी ऋणों की अदायगी में समस्या आना शुरू हुई। नतीजा यह निकला कि चीन से उस ऋण के ऐवज में ताजिकिस्तान का एक प्रतिशत भू-भाग ले लिया। अब वहां चीनी किसान खेती कर रहे हैं, और तैयार फसल और माल चीन पहुंच रहा है। इसी तरह श्रीलंका की राजपक्षे हुकूमत ने चीन से अरबों डॉलर का ऋण लिया था। हम्बनटोटा बंदरगाह के निर्माण के लिए 30 करोड़ 10 लाख डॉलर का ऋण 6़.3 प्रतिशत वार्षिक की ब्याज दर से लिया गया। अगर यही ऋण किसी अंतरराष्टÑीय संस्थान से लिया गया होता तो उस पर 0़ 25 से लेकर अधिकतम तीन प्रतिशत वार्षिक की ब्याज दर लागू रही होती। अब श्रीलंका ने ऋण अदायगी के ऐवज में उस बंदरगाह को ही 99 वर्ष के लिए चीन को पट्टे पर सौंपने की पेशकश की है। अफ्रीकी देश द्जिबोती पर चीन ने इसी ढंग से अपने सैनिक और नौसैनिक अड्डे कायम कर लिए हैं। यह चीनी रणनीति है, जो बहुत हद तक द्वित्तीय महायुद्ध के दौर की अमेरिकी ‘लैट लीज’ नीति का ही एक निर्लज्ज संस्करण है।
हरेक पड़ोसी के साथ सीमा विवाद में उलझे चीन की भारत से एलर्जी का एक पहलू यह भी है। दरअसल, कई देशों की सत्ताओं के साथ भ्रष्टाचार के बूते मनमानी शर्तों पर लक्ष्य आधारित ‘आर्थिक उदारीकरण’ करवा लेना आसान रहा है। भारत के अधिकांश लोग इस तथ्य को समझते रहे हैं। लेकिन जब भारत को ओबीओआर पर झुका सकना संभव नहीं लगा, तो चीन का झुंझलाना स्वाभाविक था। आखिर ओबीओआर चीन की व्यापक रणनीति की एक बहुत बड़ी परियोजना है। इसी तरह लगभग एकतरफा चल रहे व्यापार को भारत सरकार कभी भी उलटा सकती है, अथवा ‘मेक इन इंडिया’ के जरिए इसका प्रतिकार कर सकती है, यह चीन को अहसास है। लिहाजा चीनी मनोवैज्ञानिक युद्ध में यह तक कहा गया कि भारत-चीन टकराव के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार हैं। दरअसल, दुनिया के किसी भी देश को भारत की एक मजूबत सरकार के साथ काम करने का अभ्यास नहीं है, और यह बेचैनी की एक बड़ी वजह है।
चीनी रणनीति परत-दर-परत काम कर रही है। बेशक इसका तरीका शोर मचाने का ही हो, लेकिन गीदड़ भी निरर्थक शोर नहीं मचाते। सतर्कता तो बरतनी ही होगी, और साथ ही एक व्यापक मोर्चेबंदी भी करनी होगी। ऐसे में भारत के पास, अपनी सैनिक तैयारी परिपूर्ण रखने के अलावा एक बड़े से बड़ा गठबंधन खड़ा करने का ही विकल्प रह जाता है। जापान और अमेरिका इस गठबंधन के स्वाभाविक सदस्य होते हैं।
परत-दर-परत काम करने वाली रणनीति का उत्तर भी परत-दर-परत दिया जा सकता है, जो दिया जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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