|
जम्मू-कश्मीर में संविधान का अनुच्छेद 370 और 35-ए हमेशा चर्चा में रहे हैं। एक याचिका के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोनों की संवैधानिक स्थिति जांचने को लेकर घाटी में उठे भूचाल ने कुछ ऐसे चेहरों से नकाब उठाई है जो भारत के पैसे पर अलगाववादी एजेंडा चलाकर भारत को ही अपमानित करते आए हैं
आशुतोष
अनुच्छेद 370 एक बार फिर चर्चा में है। साथ ही 35 ए को लेकर भी तीखी बहस उठ खड़ी हुई है। दोनों ही मामले सर्वोच्च न्यायालय में पृथक-पृथक याचिकाओं द्वारा उसके विचारार्थ प्रस्तुत हैं।
अनुच्छेद 370 की वैधता को चुनौती देते हुए याची विजयलक्ष्मी झा ने प्रार्थना की कि संविधान सभा में उक्त अनुच्छेद को प्रस्तुत करते समय तत्कालीन मंत्रिपरिषद सदस्य गोपालस्वामी आयंगार के वक्तव्य के अनुसार इस अनुच्छेद को 1957 में राज्य संविधान सभा के विलय के साथ ही समाप्त हो जाना चाहिये था। याची के अनुसार केशवानंद भारती और उसके बाद के अनेक वादों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णयों के आलोक में अनुच्छेद 370 भी भारतीय संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है, अत: पोषणीय नहीं है।
इसी प्रकार ‘वी द सिटीजन’, ‘वेस्ट पाकिस्तान रिफ्यूजी एक्शन कमेटी’ तथा चारुवली खन्ना द्वारा दायर याचिकाओं में भी क्रमश: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के अधिकार और राज्य संविधान की धारा-6 की भावना के विपरीत बताते हुए 35 ए को चुनौती दी गई है।
35 ए की वैधानिकता की सुनवाई कर रही पीठ ने मामले को 3 सदस्यीय पीठ के पास भेज दिया। यह पीठ विचार करेगी कि क्या यह वाद संविधान पीठ को सौंपा जा सकता है। इससे यह संकेत मिलता है कि वर्तमान पीठ प्रथम दृष्टया 35 ए की संवैधानिक समीक्षा की आवश्यकता से सहमत है। 3 सदस्यीय पीठ के संतुष्ट होने पर 5 या उससे अधिक न्यायाधीशों की संविधान पीठ के गठन का मार्ग खुल जाएगा।
हंगामा है बरपा
मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है और यह समय ही बताएगा कि फैसला क्या आता है। किन्तु जम्मू-कश्मीर की राजनीति में 35 ए की संवैधानिक समीक्षा की संभावना भर से ही तूफान उठ खड़ा हुआ है।
कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा याचिका स्वीकार किये जाने का समाचार पाकर राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की थी। उन्होंने नई दिल्ली में एक कार्यक्रम में कहा था, ‘‘कौन यह कर रहा है। क्यों वे ऐसा कर रहे हैं, 35-ए को चुनौती दे रहे हैं। मेरी पार्टी और अन्य पार्टियां, जो तमाम जोखिमों के बावजूद जम्मू-कश्मीर में राष्ट्र ध्वज हाथों में रखती हैं, मुझे यह कहने में तनिक भी संदेह नहीं है कि अगर इसमें कोई बदलाव किया गया तो कोई भी इस राष्ट्र ध्वज को थामने वाला नहीं होगा।’’ उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को विलय के मौके पर देश की संवैधानिक संरचना के भीतर एक विशेष दर्जा दिया गया और जब कभी इस दर्जे को समाप्त करने का मामला न्यायपालिका के समक्ष आया तो उसने इस विशेष स्थिति को बरकरार रखा। लेकिन अगले ही वाक्य में उन्होंने जोड़ा कि राज्य का संपूर्ण राजनीतिक वर्ग, चाहे वह किसी भी विचारधारा से जुड़ा हो, राज्य की विशेष स्थिति की रक्षा व संरक्षण के लिए एकजुट है।
उधर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने भी धारा पर सरकार को चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि अगर इसके साथ कोई छेड़खानी हुई तो फिर यहां लोग अमरनाथ भूमि विवाद आंदोलन को भूल जाएंगे, यह उससे भी बड़ा जनांदोलन होगा। केंद्र को नहीं मालूम कि 35 ए से खिलवाड़ का मतलब जम्मू-कश्मीर में आग लगाना है। राज्य में सत्तासीन पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार इसमें पूरा सहयोग कर रही है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यवाहक प्रधान और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी सत्ताधारी भाजपा पर 35 ए के मुद्दे पर जम्मू-कश्मीर को बांटने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए कहा कि विशेषाधिकार खत्म होना राज्य के लिए घातक होगा। भाजपा पर अनुच्छेद 370 को खत्म करने के चुनावी एजेंडे को 35 ए की आड़ में पूरा करने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए उमर ने चेतावनी दी कि विशेष दर्जे से छेड़छाड़ हुई तो पहले जैसे हालात हो जाएंगे। हम किसी कीमत पर ऐसा नहीं होने देंगे।
इससे पूर्व 11 अक्तूबर, 2015 को जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के एक फैसले में कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला संविधान का अनुच्छेद 370 स्थायी है, इसलिए इसमें किसी संशोधन या इसे हटाने की गुंजाइश नहीं बनती। इसके साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि 35 ए राज्य में लागू कानूनों को सुरक्षा प्रदान करती है। उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि जम्मू-कश्मीर भारत के अन्य राज्यों की तरह नहीं है। इसे सीमित संप्रभुता प्राप्त है, इसलिए इसे विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है। यह अनुच्छेद राज्य को विशेष दर्जा सुनिश्चित करता है।
जम्मू एवं कश्मीर को कथित विशेष अधिकार देने वाले 35 ए को बचाने के लिए अलगाववादियों की ओर से बंद का आह्वान किया गया। बंद के कारण कश्मीर घाटी के कुछ हिस्सों में सीमित असर दिखा। सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और मोहम्मद यासीन मलिक की अध्यक्षता वाले संयुक्त प्रतिरोधी नेतृत्व (जेआरएफ) द्वारा आहूत बंद के बावजूद श्रीनगर प्रशासन ने 5 अगस्त को शहर में कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। मजेदार बात है कि जो अलगाववादी भारतीय संविधान को नहीं मानते, वे उसकी एक धारा में होने वाले संभावित परिवर्तन से चिंतित हैं!
झूठ का मायाजाल
अनुच्छेद 370 और 35 ए को लेकर घाटी में मचा हंगामा उन कारणों से नहीं है जो प्रत्यक्ष रूप से बताये जा रहे हैं। यह इसलिये भी नहीं है कि 35 ए का क्या होगा। आने वाली पीढ़ियों के भविष्य, उनकी नौकरियों और पढ़ाई की जो बात की जा रही है। वह भी छलावा मात्र है। अगर उतनी ही चिंता होती तो रोज-रोज के बंद और नौजवानों को बंदूक थमाने की साजिश का विरोध किया गया होता। लेकिन ऐसा
नहीं हुआ। जब तक ‘सरफेसी एक्ट’ का मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में था, वे निश्चित थे। उसमें भी मूल प्रश्न का संबंध 35 ए से जोड़ने की कोशिश हुई थी। लेकिन जब वह मामला सर्वोच्च न्यायालय में आया तो सारा राजनैतिक कुचक्र तार-तार हो गया। न्यायमूर्ति जोसफ कुरियन और न्यायमूर्ति रोहिंगटन नरीमन की दो सदस्यीय पीठ न अपने फैसले मेें न केवल जम्मू-कश्मीर उक्त निर्णय को पलट दिया बल्कि उच्च न्यायालय के निर्णय को परेशान करने वाला बताते हुए राज्य की अपनी संप्रभुता, राज्य संविधान के भारतीय संविधान के समानांतर होने जैसी बातों को निराधार बताते हुए उच्च न्यायालय को याद दिलाया कि जम्मू-कश्मीर के निवासी सर्वप्रथम भारतीय नागरिक हैं और राज्य के संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसे बदला नहीं जा सकता।
भय की ग्रंथि
वास्तव में इस विरोध के पीछे भय की ग्रंथि है। कश्मीर में दशकों से जो झूठ का भ्रमजाल रचा गया है, उसमें स्थानीय राजनैतिक दलों से लेकर अलगाववादियों तक, सभी साझीदार हैं। विशेष दर्जे के नाम पर गत दशकों में जो कुछ भी हुआ, उसने जहां मुठ्ठी भर लोगों को मालामाल किया है, शक्ति सम्पन्न किया है, वहीं लाखों लोगों को उन मौलिक अधिकारों और मूल-भूत सुविधाओं से वंचित रखा है जो देश के आम नागरिक को सहज ही उपलब्ध हैं। अनुच्छेद 370 अथवा 35 ए के निरस्त होने का अर्थ है विशेष दर्जे के उस आवरण का हट जाना जिसके पीछे दशकों की अराजकता, भ्रष्टाचार और लूट के सबूत हैं।
इतिहास से आंखें चुराते अलगाववादी
जम्मू-कश्मीर और भारत दो पृथक इकाइयां नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर भारत है। यह ऐतिहासिक सत्य हजारों वर्ष पुराना है। महाभारत, नीलमत पुराण और राजतरंगिणी जैसे ग्रंथ इसके प्रमाण हैं। मुगलकाल हो या सिख राज, जम्मू-कश्मीर का राजनैतिक प्रशासन भारतीय इतिहास के बड़े कालखंड में देश की मुख्य भूमि से ही चला है। प्राचीन इतिहास में ललितादित्य सहित अनेक साम्राज्य ऐसे भी हैं जब कश्मीर साम्राज्य के एक भाग के रूप में भारत का अधिकांश भू-क्षेत्र था।
राजनैतिक प्रशासन से इतर जम्मू-कश्मीर सहित पूरे भारत में एक सांस्कृतिक एकता विद्यमान रही है जो कभी नहीं टूटी। पाकिस्तान प्रेरित अलगाववादी हजारों वर्ष की इस परंपरा से कश्मीर को काटने की निरंतर कोशिश करते आए हैं। वे जानते हैं कि कि जब तक नई पीढ़ी अपने इतिहास और संस्कृति से पूरी तरह कट न जाए, तब तक उसे उसकी राष्ट्रीय पहचान से काटना भी संभव नहीं होता। इस प्रयत्न में ही वे एक ओर भारत-विरोध को अपना हथियार बनाते हैं तो दूसरी ओर विशेष दर्जे जैसी काल्पनिक ढाल को आगे कर समाज को आत्मविस्मृति के लिये विवश करते हैं।
अलगाव, आतंक, आजादी और जिहाद
कश्मीर को भारत से दूर करने की साजिश के चरणबद्ध प्रयास आसानी से देखे जा सकते हैं। गहराई में जाएं तो सामने की कठपुतलियों और उनके पीछे की डोर को थामने वाले हाथों की पहचान कठिन नहीं है। लेकिन पिछले दशकों में हमने दुनिया की ताकतों के समर्थन से षड्यंत्रकारियों की दबंगई और दिल्ली का समर्पण देखा है।
विभाजन के पश्चात कबाइलियों के वेश में पाकिस्तान के आक्रमण की विभीषिका जिन लोगों ने झेली, उनके हितों को ही पाकिस्तान के हाथों बेच दिया गया। तत्कालीन नेतृत्व ने विश्व शक्तियों की कठपुतली बन पहले दशक में ही अपने निजी हितों को राज्य और समाज के हितों के ऊपर तरजीह दी। परिणामस्वरूप, पहले पाकिस्तानी पैसे के दम पर अलगाववाद पनपा, फिर अमेरिकी हथियारों के बल पर आतंकवाद।
सोवियत संघ के पतन के बाद अफगानी हथियारबंद लड़ाकों को पाकिस्तान ने कश्मीर में धकेल दिया। ‘आजादी’ की नकाब ओढ़कर आतंक और हिंसा का व्यापार चल निकला। इसका अपना समाज विज्ञान था और अपना मनोविज्ञान। सबसे ऊपर इस आतंक का अर्थशास्त्र था जिसने देखते ही देखते देश के अनेक हिस्सों को अपनी चपेट में ले लिया। नियंत्रण रेखा पार कर तमाम नौजवान आतंकी प्रशिक्षण लेने गये और किसी अनजाने-अचीन्हे लक्ष्य के लिये जूझते हुए सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए। इसी बीच इस्लाम के नाम पर वैश्विक आतंक का संस्थागत रूप सामने आया और अलकायदा तथा बाद में आईएसआईएस ने दुनिया को दहलाना शुरू किया। यह कल्पनालोक पहले से ज्यादा रोमांचक था जहां केवल मौत ही नहीं बल्कि मौत के बाद भी एक स्वप्निल संसार था। अब कथित आजादी की लड़ाई लड़ने वालों को एक लक्ष्य भी मिल गया था। वह था ‘जिहाद के रास्ते जन्नत’ पाने का लक्ष्य।
हिंसा का दुष्चक्र
तीन प्रत्यक्ष युद्धों में हार का मुंह देखने के बाद पाकिस्तान ने भारत को हजार घाव देने की रणनीति अपनाई। ’80 के दशक में उसने बड़ी संख्या में भाड़े के आतंकियों की कश्मीर में घुसपैठ कराई। घाटी में अपनी कठपुतलियों के माध्यमम से उसने मासूम नौजवानों को आजादी के सपने दिखा और हिंसा की राह पर आगे बढ़ाया। परिणामस्वरूप 1990 आते-आते राज्य में विधि-व्यवस्था चरमरा गई और जम्मू-कश्मीर को अशांत क्षेत्र घोषित करना पड़ा। स्थिति पर नियंत्रण के लिये सेना को
बुलाना पड़ा।
घाटी में अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदू समाज को निशाना बनाया गया। हिंसा, बर्बरता और बलात्कार का भीषण दौर कश्मीरी हिंदुओं के घाटी छोड़ने के बाद भी नहीं रुका। अपने ही देश में सब कुछ खोकर शरणार्थी बनने को विवश कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा को देश ने निकट से देखा। आंकड़ों में बात करें तो 1988 से आज तक हुई लगभग 50,000 घटनाओं में लगभग इतने ही लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। मरने वालों में जहां लगभग 24,000 आतंकवादी हैं वहीं 15,000 निर्दोष नागरिकों की भी जान गई है। 6,000 से अधिक सुरक्षा बलों के जवान अपने कर्तव्य का पालन करते हुए शहीद हुए हैं। घायलों अथवा जीवन भर के लिये दिव्यांग हुए लोगों की संख्या इससे कई गुना अधिक है। तुलना करें तो यह संख्या प्रत्यक्ष युद्धों में बलिदान होने वाले सुरक्षा कर्मियों से कहीं ज्यादा है।
आॅपरेशन आॅलआउट
नरेन्द्र मोदी सरकार के केन्द्र में आने के बाद पाकिस्तान ने सीमा पर संघर्षविराम के उल्लंघन और घुसपैठ के प्रयासों को बढ़ाया। वहीं घाटी में कागजी आतंकवादियों की एक नयी खेप अपने एजेंटों के माध्यम से तैयार की और सोशल मीडिया के माध्यम से उन्हें नौजवानों के आदर्श के रूप में स्थापित करने के प्रयास किए जिसमें वह एक सीमा तक सफल भी रहा। पर नियंत्रणविहीन नयी पीढ़ी अपने ही समाज के लिये विभीषिका बन जाए, इससे पहले ही सरकार को कड़े निर्णय लेने के लिये विवश होना पड़ा। सुरक्षा बलों ने आॅपरेशन आॅलआउट प्रारंभ किया। गत कुछ समय से आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक अभियान जारी है। अनुमानित रूप से अब बमुश्किल डेढ़ सौ आतंकवादी बचे हैं जो जल्द ही गिरफ्त में होंगे या मारे जाएंगे।
विश्वास की बहाली
यह कोई छिपी बात नहीं है कि आतंक के इस कारोबार के पीछे पैसा, हथियार और दिमाग, तीनों पाकिस्तान के हैं। यह जानते हुए भी कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान की राजनीति का अहम तत्व है, वर्तमान सरकार ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नवाज शरीज को बुला कर बड़ी कूटनीतिक पहल की। प्रधानमंत्री आम कश्मीरियों का दिल जीतने के लिये बाढ़ पीड़ितों के साथ दीवाली मनाने घाटी गए। जम्मू-कश्मीर का आम नागरिक इससे जुड़ा भी जिसकी राजनैतिक परिणति राज्य में पहली बार भाजपा के साथ भागीदार सरकार बनने के रूप में सामने आयी। बदलाव की इस बयार को पाकिस्तान के इशारों पर काम करने वाले अलगाववादी-आतंकवादी या तो समझ नहीं सके अथवा कश्मीरी समाज का बड़ा हिस्सा आतंक का साथ छोड़ चुका है, यह अपने आकाओं को समझा नहीं सके।
आज देश में यदि कश्मीर के प्रति कोई क्षोभ है, और जो बातों में, सोशल मीडिया में अथवा कभी-कभी व्यवहार में भी झलक उठता है, उसके पीछे कश्मीरी हिंदू समाज के साथ की गयी वह बर्बरता ही है। जब विश्वास बहाली के उपायों की चर्चा की जाती है तो यह केवल सरकारों का काम नहीं है। यह उन्हें भी करना होगा जिन्होंने इन्हें विस्थापन के लिये विवश किया है। यदि सच्चे मन से किये गये प्रयासों के द्वारा वे इन विस्थापितों को वापस बुलाने में सफल होते हैं तो इसका परिणाम केवल विस्थापितों ही नहीं बल्कि पूरे देश की शुभकामना के रूप में सामने आयेगा।
दंडित हों दोषी
ठीक है कि जम्मू-कश्मीर और देश भी एक बड़ी कीमत चुकाने के बाद स्थिति को सामान्य रूप में लाने की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में जिस समाज ने और नौजवानों की तीन पीढ़ियों ने जिस पीड़ा को भोगा है, उसका भी हिसाब मांगा जाना चाहिये। इसके अपराधियों की पहचान की जाए और उनके कारनामों को जगजाहिर किया जाए, यह जरूरी है।
अलगाववादियों के हवाला संपर्कों के खुलासे से इसकी शुरुआत हुई है। लेकिन जरूरी है कि इसे भी निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया जाए और अपराधियों की नकाब खींचीं जाएं। इन सबके पीछे अपने स्वार्थ पूरे करने और राजनैतिक रोटियां सेकने में लगे रहे राजनेताओं, अलगाववादियों, आतंकवाद के सफेदपोश समर्थकों, मानवाधिकार की चाबुक चलाने वाले स्टूडियो केन्द्रित बुद्धिजीवियों और इसके पीछे के अर्थव्यापार को भी सामने लाने और उनको उचित सजा दिलाने के बाद ही यह अभियान पूरा होगा। ल्ल
अगर 35 ए के साथ कोई छेड़खानी हुई तो फिर यहां लोग अमरनाथ भूमि विवाद आंदोलन को भूल जाएंगे, यह उससे भी बड़ा जनांदोलन होगा।
— फारुक अब्दुल्ला, पूर्व मुख्यमंत्री
राज्य का संपूर्ण राजनीतिक वर्ग, चाहे वह किसी भी विचारधारा से जुड़ा हो, राज्य की विशेष स्थिति की रक्षा व संरक्षण के लिए एकजुट है।
— महबूबा मुफ्ती, मुख्यमंत्री
अनुच्छेद 370: क्या है प्रावधान
17 अक्तूबर 1949 को कश्मीर मामलों को देख रहे मंत्री गोपालस्वामी आयंगार ने भारत की संविधान सभा में अनुच्छेद-306 (ए) (वर्तमान अनुच्छेद-370) को प्रस्तुत किया। संविधान में 21वें अध्याय में यह अनुच्छेद अस्थायी और संक्रमणकालीन उपबंध शीर्षक के अंतर्गत सम्मिलित किया गया। वस्तुत: इसे अतिरिक्त विधायी प्रक्रिया (एडीशनल लेजिस्लेटिव मैकेनिज्म) के रूप में जोड़ा गया था ताकि राज्य के अपने संविधान निर्माण तक प्रतीक्षा न करते हुए आवश्यक वैधानिक प्रावधानों को लागू किया जा सके। इसके अनुसार भारतीय संविधान की केन्द्रीय एवं समवर्ती सूची में से भारतीय संसद –
1. विदेश, संचार, सुरक्षा (आंतरिक सुरक्षा सहित) पर जम्मू-कश्मीर सरकार से सलाह कर कानून बना सकती है।
2. केन्द्रीय एवं समवर्ती सूची के शेष सब विषयों पर संसद द्वारा पारित कानून जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति से लागू किये जा सकेंगे।
संविधान सभा में प्रस्ताव आने पर संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) से संविधान सभा के प्रतिनिधि मौलाना हसरत मोहानी ने प्रश्न पूछा, यह भेदभाव क्यों? आयंगार ने उतर दिया-कश्मीर की कुछ विशिष्ट परिस्थिति है, इसलिये अंतरिम रूप से कुछ विशेष व्यवस्थाओं की आज आवश्यकता है। उन्होंने स्पष्ट किया-
1. जम्मू-कश्मीर राज्य के अंतर्गत कुछ युद्ध चल रहा है। युद्धविराम लागू है, पर अभी सामान्य स्थिति नहीं है। 2. राज्य का कुछ हिस्सा आक्रमणकारियों के कब्जे में है। 3. संयुक्त राष्ट्र संघ में हम अभी उलझे हुए हैं, वहां कश्मीर समस्या का समाधान बाकी है। 4. भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों से वादा किया है कि सामान्य स्थिति होने के पश्चात जनता की इच्छाओं के अनुसार अंतिम निर्णय किया जायेगा। 5. प्रजासभा का अब अस्तित्व नहीं है। हमने स्वीकार किया है कि राज्य की अलग से संविधान सभा द्वारा केंद्रीय संविधान का दायरा एवं राज्य के संविधान का निर्णय किया जाएगा। 6. इन विशेष परिस्थितियों के कारण अस्थायी तौर पर इस अनुच्छेद-370 को संविधान में शामिल करने की आवश्यकता है। अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का अकेला उपबंध है जिसके समाप्त करने की व्यवस्था भी उक्त अनुच्छेद में दी गई है। इसके अनुसार-खण्ड (3) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित ही और ऐसी तारीख से, प्रवर्तन में रहेगा जो वह विनिर्दिष्ट करे, परंतु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले खण्ड (2) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी।
इस अनुच्छेद को निरस्त करने की प्रक्रिया देकर संविधान निमार्ताओं ने इसकी पुष्टि ही की है कि उनकी दृष्टि में यह सर्वथा अस्थायी उपबंध था जिसे समाप्त होना ही था।
राज्य संविधान सभा की सिफारिश की शर्त जोड़ने का आशय केवल इतना ही है कि राष्ट्रपति द्वारा अथवा उसके माध्यम से केन्द्र द्वारा किसी प्रकार की मनमानी पर रोक लगाई जा सके। लेकिन इससे यह कहीं भी नहीं प्रकट होता कि अनुच्छेद 370 को स्थायी किये जाने की किसी संभावना पर भी उन्होंने सोचा था।
यह तथ्य है कि राज्य की संविधान सभा ने अनुच्छेद 370 के निरसन की सिफारिश किये बिना स्वयं के विलय की घोषणा कर दी। संविधान सभा को केवल सिफारिश करनी थी। निर्णय राष्ट्रपति को लेना था जो आज भी मौजूद है।
35 ए के दुष्परिणाम
भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 35 ए के अंतर्गत राज्य की विधानसभा को राज्य के स्थायी निवासी की परिभाषा निर्धारित करने का अधिकार दिया गया। अपने इस अधिकार का प्रयोग करते हुए राज्य विधानसभा ने निश्चित किया कि राज्य के संविधान के लागू होने की तिथि (1954) से 10 वर्ष पूर्व से राज्य में रह रहे नागरिक ही राज्य के स्थायी निवासी माने जायेंगे। संविधान सभा ने यह भी निश्चित किया कि जम्मू-कश्मीर के जिन निवासियों (जो 1944 से पूर्व से यहां रहते थे) के पास स्थायी निवासी प्रमाण पत्र होगा, वे ही राज्य द्वारा प्रदत्त सभी मूल अधिकारों का उपयोग कर सकेंगे। इस कारण शेष भारत के निवासी जम्मू-कश्मीर में न तो सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकते हैं और न ही जमीन खरीद सकते हैं। उनको राज्य के अंतर्गत वोट देने का अधिकार भी नहीं है। उनके बच्चे छात्रवृत्तियां और व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में प्रवेश भी नहीं ले सकते। इस संवैधानिक विभेद के प्रत्यक्ष पीड़ित हैं-
ल्ल 1947 में जम्मू-कश्मीर में पश्चिम पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थी (आज लगभग 2 लाख) अभी भी अपने मूल अधिकारों से वंचित हैं, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने ही खाली पड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए उनको यहां बसाया था। इनमें अधिकतर अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के हैं। इनके बच्चों को न छात्रवृत्ति मिलती है और न ही व्यावसायिक पाठयक्रमों में प्रवेश का अधिकार है। इन्हें सरकारी नौकरी, संपत्ति क्रय-विक्रय तथा स्थानीय निकाय चुनाव में मतदान का भी अधिकार नहीं है।
ल्ल शेष भारत से आकर यहां रहने वाले व कार्य करने वाले प्रशासनिक, पुलिस सेवा अधिकारी भी इन अधिकारों से वंचित हैं। 30-35 वर्ष इस राज्य में सेवा करने के बावजूद उन्हें अपने बच्चों को उच्च शिक्षा हेतु राज्य से बाहर भेजना पड़ता है और सेवानिवृत्ति के बाद वे यहां मकान बनाकर
नहीं रह सकते।
ल्ल 1956 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू शहर में सफाई व्यवस्था में सहयोग करने के लिये अमृतसर (पंजाब) से 70 बाल्मीकि परिवारों को निमंत्रित किया। पर आज तक उन्हें राज्य के अन्य नागरिकों के समान अधिकार नहीं मिले। उनके बच्चे चाहे कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर लें, वे जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार केवल सफाई कर्मचारी की नौकरी के लिये ही पात्र हैं। आज उनके लगभग 600 परिवार हैं लेकिन उनकी आवासीय कॉलोनी को भी अभी तक नियमित नहीं किया गया है।
ल्ल जम्मू-कश्मीर की सेना में अपनी सेवा देने वाले गोरखा आज केवल चौकीदारी ही कर सकते हैं। उनकी भी नयी पीढ़ी बाल्मीकि समाज के अनुसार ही मूल अधिकारों से वंचित है।
ल्ल राज्य की महिलाओं की स्थायी नागरिकता कुछ समय पहले तक उनके विवाह तक ही अनुमान्य थी। राज्य के बाहर अथवा राज्य के भीतर भी गैर स्थायी निवासी के साथ विवाह होने पर उनका स्थायी निवासी का दर्जा और परिणामस्वरूप सभी मूल अधिकार छिन जाते थे। वर्ष 2002 में सुशीला साहनी मामले में आये जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के निर्णय से वहां की महिलाओं को स्थायी निवासियों को मिलने वाली सुविधाएं बहाल हो गई किन्तु उनके द्वारा अर्जित संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार उनकी संतानों को आज भी नहीं है। इससे पूर्व भी बचनलाल कलगोत्रा बनाम जम्मू कश्मीर राज्य मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय टिप्पणी कर चुका है कि-हम नहीं जानते कि हम पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों और उन जैसे लोगों को क्या राहत दे सकते हैं। यही कहा जा सकता है कि याची और उन जैसे तमाम लोगों की स्थिति विधि-विरुद्ध है। इसके बाद भी यह स्थिति आज भी जारी है।
टिप्पणियाँ