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जम्मू-कश्मीर में धारा 35-ए पर अदालत की पहल पर शुरू हुई बहस से देश में एक आशा जगी है कि इस धारा के बहाने कश्मीर को शेष भारत से संबंध न रखने देने के अलगाववादी मंसूबों पर लगाम लगेगी
विजय क्रान्ति
पिछले कई महीनों से कश्मीर घाटी में चल रहे पत्थरों और गोली के दौर में ज्यादातर कश्मीरी नेता अर्थहीन होकर रह गए हैं। कश्मीरी अशांति के 70 साल लंबे दौर में यह पहला मौका है जब कश्मीरी नेता अपने लिए कोई भूमिका नहीं खोज पा रहे। नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेसी नेताओं के हाथ में आज न तो राज्य में कुछ करने के लिए है और न केंद्र में।
बाकी भारत में कश्मीर के चिनार की आग पर रोटियां सेंकने वाली बिरादरी का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। नई दिल्ली के मोमबत्ती छाप एनजीओ और जेएनयू ब्रांड बातूनी बिरादरी भी नरेन्द्र मोदी सरकार के कड़े रवैये के कारण कश्मीर में अपने लिए किसी तरह की कोई भूमिका नहीं ढूंढ़ पा रही। बची-खुची कसर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) और आर्थिक अपराधों की जांच करने वाले प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने पिछले दिनों हुर्रियत के कई बड़बोले नेताओं के काले धंधों को बेपरदा करके पूरी कर दी। इससे पहले इन सब ताकतों को आपस में जोड़ने वाला इकलौता रिश्ता था— केंद्र सरकार से हर साल जम्मू-कश्मीर को मिलने वाली हजारों करोड़ रुपए की राशि की लूट।
किस्सा शायद इसी अंदाज में चलता रहता लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे एक वाद ने कश्मीरी नेताओं को अपने आपको अर्थवान साबित करने का एक नया मौका दे दिया है। अचानक ही वे सब एक सुर में राग कश्मीरी अलापने लगे हैं। अदालत ने 3 जजों वाली एक पीठ को यह तय करने का काम दिया है कि 1954 में राष्ट्रपति के आदेश के आधार पर संविधान में जोड़ा गया 35-ए कानून-सम्मत है या नहीं? 35-ए की खासियत यह है कि यह जम्मू-कश्मीर विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह राज्य में अपने ‘स्थायी’ निवासी के विशेषाधिकारों और भारत के दूसरे हिस्सों के नागरिकों के वहां रहने के अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए कोई भी कानून बना सकती है। कानून की जानकारी रखने वाले अधिकांश विशेषज्ञों को लगता है कि इसे रद्द किए जाने और संविधान से निकाले जाने की संभावनाएं ज्यादा हैं। ऐसा होते ही जम्मू-कश्मीर को अब तक मिली तथाकथित ‘स्वायत्तता’ पर भी सवालिया निशान लग जाएगा। राज्य को मिलने वाली बहुत सारी सुविधाएं और विशेषाधिकार भी खत्म हो सकते हैं। बस यही वह मुद्दा है जिसने कश्मीर के ज्यादातर नेताओं को फिर से संजीवनी दे दी है और उन्हें एक मंच पर ला बिठाया है।
राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती सईद को भले ही भाजपा के साथ हाथ मिलाने से राज्य की मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है लेकिन अपने स्वर्गीय पिता की तरह वे भी अच्छी तरह जानती हैं कि उनका राजनीतिक अस्तित्व भारत विरोधी और पाकिस्तान के प्रति आस्था रखने वाली कश्मीरी बिरादरी के समर्थन के बिना सुरक्षित नहीं रह सकता। यही कारण था कि 35-ए पर हवा का रुख पढ़ते ही उन्होंने बयान दे डाला कि अगर अदालत ने 35-ए को हटाने का फैसला दिया तो भारतीय तिरंगे को कश्मीर में ‘कंधा देने वाले’ भी नहीं मिलेंगे।
तीन पीढ़ियों से कश्मीर घाटी में मौके के अनुसार, कभी भारत-विरोध और कभी भारत-समर्थन के पत्तों पर अपना राजनीतिक खेल खेलने वाले फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने भी खुली धमकी दे डाली कि अगर 35-ए को हटाया गया तो कश्मीर में ऐसा जलजला आएगा कि लोग जम्मू के अमरनाथ आंदोलन को भी भूल जाएंगे। हुर्रियत के नेताओं ने भी दावा किया है कि ऐसी हालत में खून की नदियां बह जाएंगी। कश्मीरी नेताओं की इस पूरी बिरादरी को अब अचानक जम्मू और लद्दाख के लोग भी याद आने लगे हैं, जिनके साथ उनका अब तक का रिश्ता किसी उपनिवेशवादी शासक जैसा रहा है। इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि अभी तक जम्मू या लेह या कारगिल से उनके समर्थन में कोई बयान नहीं आया है। राज्य के इन दोनों क्षेत्रों की हमेशा शिकायत रही है कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35-ए का इस्तेमाल केवल कश्मीर घाटी के नेताओं, प्रशासकों, अलगाववादियों और दूसरी बड़बोली जमातों को फायदा पहुंचाने और गैर-कश्मीरी नागरिकों की आवाज को दबाए रखने के लिए किया जाता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के सामने 35-ए की समीक्षा का सवाल तब उठा जब जम्मू-कश्मीर की एक महिला नागरिक चारू वली खन्ना ने जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान की धारा-6 को चुनौती देते हुए प्रदेश में अपने और अपने बच्चे के नागरिकता अधिकारों को बहाल करने की मांग की। राज्य की विधानसभा द्वारा पारित इस कानून में यह प्रावधान रखा गया है कि अगर राज्य की कोई महिला राज्य से बाहर के किसी पुरुष से शादी करती है तो राज्य में नौकरी करने के अधिकार समेत उसके कई अन्य अधिकार भी समाप्त हो जाएंगे। इस कानून के कारण न केवल ऐसी महिला के पति को जम्मू-कश्मीर की नागरिकता पाने का अधिकार नहीं मिलेगा बल्कि उनके बच्चे भी अपने ननिहाल परिवार की संपत्ति से बेदखल कर दिए जाएंगे।
चारू ने अदालत में दलील दी है कि एक भारतीय नागरिक होने के नाते उसे भारतीय संविधान की धारा-14 ने समानता का जो मूलभूत अधिकार दिया है, उस अधिकार को उससे या उसके बच्चों से कोई भी राज्य सरकार छीन नहीं सकती। लिहाजा जम्मू-कश्मीर संविधान की धारा-6 को रद्द किया जाना चाहिए।
क्योंकि चारू की इस मांग का सीधा संबंध 35-ए की संवैधानिकता और इस धारा के तहत राज्य सरकार के विशेषाधिकारों से है इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को उन्हीं 3 जजों वाली पीठ को सौंप दिया, जो दिल्ली के एक स्वयंसेवी संगठन ‘वी द सिटिजंस’ का विषय पहले से देख रही थी। उक्त संगठन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की हुई थी जिसमें 35-ए की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए इसे रद्द करने की मांग की गई थी। संभवत: सितंबर के पहले हफ्ते में 3 जजों की पीठ इस विषय की संवैधानिकता तय करेगी और अगर मामला सुनवाई लायक माना जाएगा तब फिर 5 जजों की संविधान पीठ इस विषय को देखेगी।
‘वी द सिटिजंस’ ने अपनी अपील में मुख्य दलील यह दी है कि 1954 में 35-ए को संविधान में एक अतिरिक्त धारा के रूप में राष्ट्रपति के एक आदेश के तहत शामिल किया गया था। हालांकि राष्ट्रपति को इस तरह का आदेश जारी करने का अधिकार है। लेकिन ऐसे आदेश को संविधान का हिस्सा केवल तभी बनाया जा सकता है जब देश की संसद इसे संविधान में नए संशोधन के रूप में मत विभाजन से अपनी स्वीकृति दे दे। संगठन का कहना है कि 63 साल बीतने के बाद भी इस आदेश को संसद ने कभी अपनी सहमति नहीं दी। इसलिए इस आदेश को संविधान के एक आर्टिकल के तौर पर शामिल किया जाना गैर-कानूनी है।
संगठन ने इस बात पर भी गहरी आपत्ति जताई कि 35-ए को संविधान का हिस्सा घोषित करके इसके आधार पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा को तो कई तरह के कानून बनाने के अधिकार दे दिए गए लेकिन इसे संसद से पास करा कर मूल संविधान में जोड़ने के बजाए भारतीय संविधान के एक ‘एनेक्सचर’ के रूप में अलग से जोड़ दिया गया। जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों और भारतीय संविधान के समर्थक कई नेताओं और संगठनों ने इसे एक ‘संवैधानिक बेईमानी’ की संज्ञा दी है। उनका कहना है कि इस ‘कानून’ और जम्मू-कश्मीर की तथाकथित स्वायत्तता के नाम पर राज्य की महिलाओं समेत राज्य में रहने वाले कई वर्गों के मूलभूत मानवाधिकार छीने जा चुके हैं।
उदाहरण के लिए 35-ए, अनुच्छेद-370 और प्र्रदेश के संविधान की धारा-6 की आड़ में जम्मू-कश्मीर के ‘विशेष दर्जे’ का इस्तेमाल करके राज्य सरकार ने ऐसे लाखों नागरिकों को ‘स्टेट सब्जेक्ट’ के अधिकार नहीं लेने दिए। इनमें पीओके से आकर जम्मू-कश्मीर से बाहर भेजे गए शरणार्थियों, पश्चिमी पाकिस्तान के निकटवर्ती इलाकों से आकर जम्मू में बसे शरणार्थियों, पंजाब से लाकर यहां बसाए गए वाल्मीकि समाज और महाराजा की सेना के गोरखा परिवारों का समाज भी शामिल है। इनमें सबसे बड़ा वर्ग पीओके से आए शरणार्थियों का है जिनमें से ज्यादातर लोग राज्य से बाहर रहने पर मजबूर हैं। उनकी शिकायत है कि 111 सदस्यों वाली असेंबली में उनके नाम पर 24 सीटें खाली छोड़कर और घाटी की 46 सीटों के बहुमत के दम पर कश्मीरी नेता राज्य के संविधान का दुरुपयोग करते आए हैं।
इन सभी वर्गों की शिकायत है कि 1947 के बाद जम्मू-कश्मीर में जन्मे इन समाज की चार पीढ़ियों को राज्य में न तो विधानसभा में वोट देने का अधिकार है, न उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश पाने का और न सरकारी नौकरी पाने का। जबकि चीनी कब्जे के कारण तिब्बत और सिंक्यांग से आकर कश्मीर में बसे मुस्लिम शरणार्थियों को राज्य सरकार ने ‘स्टेट सब्जेक्ट’ बनाकर उन्हें पूरे अधिकार दे दिए हैं।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय में चल रही समीक्षा ने कश्मीरी नेताओं के पूरे खेल को पलट दिया है। वे खुद को असहाय पाकर अनाप-शनाप बयान देने लगे हैं। लेकिन प्रदेश की कश्मीर घाटी की दादागीरी से परेशान पूरे भारत को अब उम्मीद बंध चली है कि 70 साल तक देश के गले में फंसी हड्डी का अब कानूनी हल निकलने जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के अध्यक्ष हैं)
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