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शत्रु के लिए सबसे बड़ी सुविधा अज्ञानता और देशभक्ति का अभाव होती है। यह कितनी बार, कितनों को समझना होगा?
तरुण विजय
इतिहास साक्षी है कि जब-जब भारत ने प्रगति के नए सोपान तय किए, जब-जब भारतीय दहलीज पर समृद्धि और सुरक्षा ने दस्तक दी, तब-तब अचानक, अकारण शत्रुओं ने हमला किया, हमारी प्रगति गाथा रोकने की कोशिश की।
राजा दाहिर ने कब किस पर हमला किया था कि मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया? धन-धान्य से परिपूर्ण, सर्वत्र सुख और समृद्धि का विस्तार पाए हुए प्रभास पाटण और सोमनाथ के प्रहरी शासक परमार राजाओं ने किस पर हमला किया था कि गजनी ने आक्रमण किया?
आज जब देश एक नया प्रयाण गीत रच रहा है, आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक युद्ध है, देश की संस्कृति और सभ्यता के वाहक पहली बार स्वतंत्रता अनुभव कर रहे हैं, ईमानदारी का व्याप बढ़ा है, घोटाले बंद हुए हैं, घर-घर में बिजली और सौर ऊर्जा पहुंच रही है, दुनिया में भारतीय नेतृत्व का प्रभाव फैला है तो अचानक, अकारण भारत की सीमाओं पर जो तनातनी बढ़ी है, उसको इसी निगाह से देखना होगा। डोकलाम सीमा पर खड़े भारतीय जवान हमारे, आपके ही रक्तबंधु हैं। उनको जब इस बार राखियां भेजने का अभियान हुआ तो आश्चर्यजनक रूप से तमिलनाडु से पन्द्रह हजार राखियां आयीं। यह भारत के नेतृत्व का कमाल है कि पहली बार देश चीन के सामने हिम्मत से खड़ा हुआ, दृढ़ता दिखायी।
सवाल उठता है, ऐसा कब तक चलता रहेगा? भारत को न केवल गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और आंतरिक सुरक्षा के प्रश्नों को सुलझाना है बल्कि विदेशी हमलों की अनवरत चली आ रही शृंखला भी तोड़नी है। जो लोग व्यक्तिगत सुख-दुख, तरक्की और आमदनी के लोभ में ईर्ष्या, विद्वेष, कलुष हृदय में समेटे राजनीति करते हैं, अफसरशाही के कुचक्र चलाते हैं, न्याय व्यवस्था से मजाक करते हैं, पुलिस प्रशासन को लाभ-हानि के तराजू से तौलते हैं, वे क्या कभी सोचते हैं कि उनका भारत की सामूहिक सुरक्षा और समृद्धि के लिए क्या योगदान है? पशु भी जंग में अपना चारा ढूंढ कर अपनी खोह, कंदरा या किनारे पर मस्त रहता है और मर जाता है। उनमें और इन नर-पशुओं में क्या अंतर है, जिनकी आंखों में देश नहीं केवल अपना और अपनों का हित ही जीवन की सर्वोच्च आराधना है?
दुश्मन को हमारे घरेलू झगड़े और इतिहास का अज्ञान नियंत्रित करता है। इतिहास जानना नहीं, इतिहास समझना नहीं, क्योंकि नौकरी पाने के लिए उसकी कोई जरूरत ही नहीं होती। इतिहास के प्रति अज्ञान चीनी, पाकिस्तानी या किसी भी उस देश में कोई फर्क ही नहीं महसूस करता जिसके सामने हमारे घर के भाई, बेटे, बेटियां- सीमा पर तैनात खड़े रहते हैं। कुछ जानकारी हो, तब तो सीने में जलन या तपन होगी, कुछ उबाल उठेगा। यहां तो देशभक्ति का भाव पैदा करने के लिए भी अपीलें करनी पड़ती हैं। अभियान चलाए जाते हैं, मन्नतें करनी पड़ती हैं, चैनल वालों में कहा जाता है कि भाई, इस मुद्दे पर कुछ तो कहो, बोलो, दिखाओ। खुद भी कुछ करना है, बिना किसी के कहे, हमें अपने स्तर पर जो संभव हो करना है, यह तो कभी महसूस ही नहीं होता। इसका नतीजा सिर्फ सीमा पर नहीं, बल्कि अपेक्षित संख्या में वांछित सैनिकों की कमी, घटिया स्तर के उत्पादन को महंगी पैकिंग में महंगा बेचने की कोशिशों, विमुद्रीकरण और जीएसटी के अंध विरोध तथा देश को आगे बढ़ाने की हर कोशिश के विरोध में दिखता है।
देश केवल विदेशी हमलावरों से आहत नहीं होता। घर के भीतर आलसी, निकम्मे, विदेशी दास मानसिकता से ग्रस्त तत्वों के कारण भी आहत होता है। देशभक्ति का अर्थ केवल जोशीले गीत गाना नहीं होता। आप जो भी कार्य कर रहे हैं उसे श्रेष्ठतम तरीके से करना भी देशभक्ति है। पढ़ना, पढ़ाना, राजनीति से परे, विद्या के विश्वस्तरीय मानक स्पर्श करना, सेवा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं को सबसे अच्छा बनाना भी देशभक्ति है। सरकारी अस्पतालों में, मरीजों की संख्या के अनुपात में सुविधाएं देना, और सेवा भावना से समर्पित हो चिकित्सा उपलब्ध कराना भी देशभक्ति है। देश के लिए सोचना ही पर्याप्त नहीं। विद्या और श्रम के क्षेत्र में उच्चतम स्तर हासिल करना, कार्यालय में स्वच्छता और सड़क पर अनुशासन दिखाना भी
देशभक्ति है।
हम भूल जाते हैं कि काबुल, रावलपिंडी, कराची, ढाका और रंगून में सैकड़ों हिन्दू मंदिर थे। कहां गए? सारे भागवत कथाकार वापस लौट आए। हरिद्वार, ऋषिकेश जाकर देख लीजिए। धर्म के साथ देश जोड़ा तो कुछ ही संतों ने। बाकी के लिए तो बस कीर्तन-कथा का ही सारा मामला है। वे कराची में भी थे। पर कभी सोचते नहीं, वहां क्या हुआ? देशभक्ति और धर्म साथ-साथ जुड़े हैं। भगवान ही सब कुछ होता तो विवेकानंद शिकागो न जाते, उत्तराखंड में बसते, कीर्तन करते और मोक्ष पाते।
शत्रु के लिए सबसे बड़ी सुविधा अज्ञानता और देशभक्ति का अभाव होती है। यह कितनी बार, कितनों को समझना होगा?
(लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद हैं)
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