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सामयिक मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें ख्ांगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहकर योगदान करते हैं और इसके बदले उन्हें किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
छद्म सेकुलरवाद से पैदा होने वाली एक बीमारी अब फिल्मों से होते हुए मीडिया में भी पहुंच गई है
चौथा स्तम्भ/नारद
बॉलीवुड में ऐसी सैकड़ों फिल्में मिलेंगी, जिनमें मंदिर के पुजारी को लालची और दुष्ट, जबकि मस्जिद के मौलवी को ज्यादातर नेकदिल और सच्चा मुसलमान दिखाया जाता है। पुराने दौर से लेकर फिल्म ‘दंगल’ और ‘बेगम जान’ तक में यह चलन दिखता है। छद्म सेकुलरवाद से पैदा यह बीमारी अब फिल्मों से होते हुए मीडिया में भी पहुंच गई है। गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत ने पूरे देश को झकझोर दिया। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह पीड़ा देने वाला समाचार था। लेकिन सेकुलर मीडिया के लिए यह मौका था एक ‘मुसलमान हीरो’ तलाशने का। घटना के कुछ घंटों के अंदर ही मीडिया ने उस डॉक्टर को ‘फरिश्ता’ घोषित कर दिया, जिस पर उन बच्चों और वार्ड की देखरेख की प्राथमिक जिम्मेदारी थी। इसी तरह अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले के वक्त भी आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर मुसलमान ड्राइवर को फरिश्ता बना दिया था।
तमाम छोटे-बड़े अखबार, चैनल और वेबसाइट गोरखपुर के इस कथित फरिश्ते की तारीफों से पाट दिए गए। शुक्र है सोशल मीडिया के जरिये ‘फरिश्ते’ का असली चेहरा सामने आ गया। पर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों, कर्मचारियों से लेकर वहां इलाज करा चुके मरीजों ने मुख्यधारा मीडिया के फुलाए गुब्बारे की हवा निकाल दी। सैकड़ों लोगों ने फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों से बताया कि हादसे के असली दोषी कौन हैं। कई लोगों ने यह भी बताया कि जिसे ‘फरिश्ता’ बताया जा रहा है, वह आॅक्सीजन सिलेंडर चोरी करके अपने निजी अस्पताल में रखता है। जो काम पत्रकारों को करना चाहिए था, उसे आम लोगों ने किया। शुरुआती दो-तीन दिन मीडिया के ज्यादातर दावे असत्य या अर्धसत्य साबित हुए। ऐसे मामलों में मीडिया अगर ज्यादा तैयारी व जिम्मेदारी से रिपोर्टिंग करे तो उसकी भी विश्वसनीयता सुरक्षित रहेगी और सरकारों को जवाबदेही तय करना भी आसान होगा।
उधर, कई चैनलों पर राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान को लेकर विवाद छाया रहा। देश की कथित प्रगतिशील राजनीति और मीडिया का मिला-जुला योगदान है कि अब ऐसे तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों के बारे में बात करना भी विवादित विषय लगने लगा है। इसी का नतीजा है कि केरल में वामपंथी सरकार की इतनी हिम्मत हो जाती है कि वह एक स्कूल में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के झंडा फहराने पर पाबंदी लगा देती है। मीडिया ने इसे सामान्य घटना की तरह दिखाया और कहीं पर भी केरल सरकार और सीपीएम के संदिग्ध रवैये पर प्रश्न नहीं दिखा।
लगभग सभी चैनलों और अखबारों ने खबर दी कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 15 अगस्त को मदरसों में वंदेमातरम् गाना और सबूत के तौर पर उसकी वीडियोग्राफी करवाना अनिवार्य घोषित किया है। इस ‘विवादित विषय’ पर न जाने कितने लेख लिखे गए, कितनी टीवी बहसें हुर्इं, लेकिन किसी पत्रकार ने उस सरकारी आदेश को एक बार ढंग से पढ़ने की जरूरत नहीं समझी, जिस पर हंगामा मचाया जा रहा है। दरअसल, यह आदेश 2015 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के तहत था जिसमें राज्य सरकार से सभी मदरसों में राष्ट्रीय ध्वज फहराना और राष्ट्रीय गीत गाना सुनिश्चित करने को कहा गया था। पिछली सरकार के वक्त भी ऐसा आदेश जारी हुआ था। फर्क यह है कि अब भाजपा की सरकार है। मीडिया का बड़ा वर्ग एक ऐसे मानसिक उन्माद का शिकार है जो सामान्य सरकारी कामकाज को भी संदेह की दृष्टि से देखता है।
हम जब अपने राष्ट्रीय प्रतीकों को ही विवादित मानने लगते हैं तो गलतियां होती हैं जो किसी भी संप्रभु देश में अक्षम्य मानी जाती हैं। सीएनएन न्यूज18 चैनल ने देश का गलत नक्शा सोशल मीडिया पर प्रकाशित किया। हालांकि उसने गलती सुधार ली, लेकिन मीडिया में बार-बार होने वाली ऐसी गलतियां बड़े सवाल छोड़ जाती हैं। हैदराबाद विवि के छात्र रोहित वेमुला को लेकर गठित न्यायिक आयोग की रिपोर्ट बीते दिनों आई। ज्यादातर अखबारों ने इसे अंदर के पन्नों पर छापा। कुछ अंग्रेजी चैनलों को छोड़ ज्यादातर ने इसकी अनदेखी की। यह रिपोर्ट इस बात पर मुहर लगाती है कि हिंदू समाज को जातियों में बांटने और सामाजिक वैमनस्य फैलाने के षड्यंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं। जिस खबर को मुख्यधारा मीडिया ने इतना तूल दिया, उसी की सच्चाई सामने आने पर मौन मीडिया की भूमिका पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। सवाल यह है कि क्या वे पत्रकार और समाचार संस्थान अपने दर्शकों से माफी मांगेंगे, जो एक छात्र की दुखद मृत्यु पर राजनीति की रोटियां सेंक रहे थे।
लव जिहाद मुद्दे पर भी मुख्यधारा मीडिया को बड़ा सबक मिला है। जिस समस्या को बरसों तक ‘हिंदुत्ववादी संगठनों का दुष्प्रचार’ कहकर खारिज किया जाता रहा, उसे केरल उच्च न्यायालय के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है। अब मीडिया के संपादकों को यह बताना चाहिए कि क्या कारण था कि वे इतने साल तक हिंदू, सिख, ईसाई और जैन लड़कियों के खिलाफ चल रहे इस संगठित अपराध पर चुप रहे।
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