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गोरखपुर घटना की जांच के बाद प्रशासन ने आपराधिक लापरवाही से परदा हटाया है। आगे इस तरह की घटना न हो, इसके लिए राज्य सरकार ने कमर कस ली है
हर्ष कुमार
ऊगस्त महीने के दूसरे हफ्ते में एक ही दिन में 23 बच्चों की एक के बाद एक मौत के बाद एक बार फिर सुर्खियों में आए गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज में इन दिनों अजीब किस्म की अफरा-तफरी है। यंू तो हर साल ये मौसम यहां के लिए मौत के सालाना मातम की तरह आता रहा है, मगर इस बार मामला इसलिए और गंभीर और तनावपूर्ण हो गया है क्योंकि इस साल महामारी के कोढ़ में लचर अस्पताल प्रबंधन जैसी खाज भी जुड़ गई है।
ऐसा माना जा रहा है की बीते 10 अगस्त को बड़ी तादाद में हुई बच्चों की मौत की एक वजह नियोनेटल आईसीयू में आॅक्सीजन की बाधित आपूर्ति भी थी। यह अक्षम्य लापरवाही इसलिए आपराधिक किस्म की नजर आती है क्योंकि आॅक्सीजन आपूर्ति करने वाली कम्पनी लगातार कई महीनों से अपने लंबित भुगतान के लिए पत्राचार कर रही थी मगर संदिग्ध कारणों से उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रही था। लिहाजा कम्पनी ने आपूर्ति बाधित कर दी। प्रथमदृष्टया अस्पताल प्रशासन से लेकर राजधानी के बड़े बाबुओं तक की इस बेशर्म कारगुजारी ने न केवल कई मासूम जिंदगियों को एक झटके में लील लिया है बल्कि सरकार को भी हमलों और आरोपों की जद में ला दिया है अपने बच्चों को खो चुके परिजन आक्रोशित हैं, मीडिया हमलावर है और विपक्ष अपने पुराने हिसाब-किताब साफ कर लेने की मुद्रा में। हालांकि इतनी बड़ी घटना पर ऐसा होना अप्रत्याशित नहीं है लेकिन यह सब कुछ जिस तरह से चल रहा है उससे इस निराशाजनक आशंका को बल मिल रहा है कि इस इलाके में पिछले 40 साल से हो रही मासूमों की मौत के असली खलनायकों की तलाश एक बार फिर से राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझ कर रह जाएगी।
इस दुखद घटना के बाद राजनीतिक दलों की सरगर्मी बढ़ गई है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पीड़ित परिवारों को दो-दो लाख रु. के मुआवजे का एलान करते हुए आरोप लगाया है कि उनकी सरकार द्वारा बनवाए गए 500 बिस्तर के बाल रोग विभाग के नए भवन को यह सरकार चला नहीं पा रही है। हादसे के बाद पहुंचे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद भी 100 बिस्तर का इन्सेफेलाइटिस वार्ड बनवाने और संप्रग सरकार के जमाने में आवंटित धनराशि का जिक्र करने से नहीं चूके। अन्य दलों के नेताओं ने भी ऐसे आरोप लगाये हैं, मगर किसी के पास इस लाख टके के सवाल का माकूल जवाब नहीं है की यदि हर किसी ने अपने जमाने में इतनी ही शिद्दत से इस महामारी को दूर करने का काम किया था तो फिर यह बीमारी अब तक खत्म क्यों नही हुई? पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और सीमावर्ती नेपाल के लोगों के लिए इलाज के सबसे बडे केंद्र बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज के लंबे गलियारों में कदम-कदम पर दुख की एक नई कहानी पसरी पड़ी है। ये वे लोग हैं जो वार्ड के बाहर आकर अपनी नींद और थकान से बोझिल देह को कुछ मिनटों का आराम देने आए हैं।
अचानक कहीं से किसी के दहाड़ मार कर रोने की आवाज आती है, पर लोग उस तरफ दौड़ने की बजाए अपने-अपने बच्चों की ओर दौड़ते हैं। उसकी सांसें और धड़कन नापने लगते हैं। थोड़ी देर बाद कोई पिता अपने हाथों में अपने बच्चे की लाश लिए वहां से निकल जाता है और लोग सोचते हैं कि मौत गुजर गई। हालांकि यह उनकी क्षणिक गलतफहमी होती है क्योंकि 40 साल से मौत ने यहां स्थायी बसेरा बना लिया है।
गरीबी और पिछड़ेपन की मार झेलते इस इलाके में जानलेवा दिमागी बुखार यानी इंसेफेलाइटिस ने अब पक्का ठिकाना बना लिया है। हर साल जुलाई से नवंबर तक हर दिन ये गलियारे नौनिहालों की असमय मौत के खामोश गवाह बनते आए हैं। बीते दस साल में यहां इस महामारी से 5505 बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं और इस साल जनवरी से अब तक यहां 147 सांसें थम चुकी हैं। अस्पताल की पर्चियों में कुछ वर्ष पहले तक जापानी इंसेफेलाइटिस यानी जेई, फिर वायरल इंसेफेलाइटिस यानी वीई और इन दिनों एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम यानी ऐईएस के बतौर दर्ज हो रही। इस बीमारी का सबसे क्रूर पहलू ये है कि इसमें मौत से बच जाने वाले 30 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी प्रकार की विकलांगता के शिकार हो जाते हैं और तब वह जिंदगी मौत से भी बदतर
हालात पैदा कर देती है। 1978 से हर साल जुलाई से लेकर नवंबर तक मौत का बरपाने वाला जापानी इन्सेफेलाइटिस (जेई) एक मादा मच्छर 'क्यूलेक्स ट्राइटिनीओरिंकस' के काटने से होता है जिसमें दिमाग के बाहरी आवरण यानी इन्सेफेलान में सूजन आ जाती है। रोगी में तेज बुखार, झटके, कुछ भी निगलने में कठिनाई जैसे लक्षण दिखते हैं और यदि समुचित इलाज न हो सके तो तीन से सात दिन में उसकी मौत हो जाती है। यह अपने आप में एक बहुत निराशाजनक तथ्य है कि जहां जापान या आॅस्ट्रेलिया जैसे देशों और अनेक भारतीय प्रदेशों में इस बीमारी की प्रभावी रोकथाम में कामयाबी हासिल कर ली गई, वहीं इस इलाके में यह पांव पसार कर बैठ गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह इस समस्या के प्रति राजनीतिक संवेदनहीनता है। पिछले 38 वर्ष में हर साल बरसात से लेकर सर्दियां शुरू होने के बीच होने वाली सैकड़ों मौतों के बावजूद इस रोग पर नियंत्रण सरकारों की कार्यसूची में प्रभावी रूप से शामिल नहीं हो सका। मेडिकल कॉलेज के चिकित्सक बताते हैं कि सरकारों ने हमेशा से इसे महामारी मानने की बजाय इस प्रकार की सूचनाओं पर अंकुश लगाने की कोशिश की ताकि उन पर समस्या से आंखें मूदें रखने का आरोप न लग सके। 2005 तक इस बारे में सरकार या स्वास्थ्य संगठनों का रवैया खासी लापरवाही भरा था। लेकिन उस साल मौत का आंकड़ा एक हजार से भी ज्यादा हो जाने और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आई खबरों के चलते सरकार को सक्रियता दिखानी पड़ी थी। 2006 में पहली बार टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ और 2009 में पुणे स्थित नेशनल वायरोलॉजी लैब की एक इकाई गोरखपुर में स्थापित हुई ताकि रोग के जिÞम्मेदार कारणों की सही पहचान की जा सके।
लेकिन जिस टीके को दो बार लगना चाहिए था, उसकी दूसरी खुराक राजनीतिक संवेदनहीनता की भूलभुलैया में खो गयी और वायरोलोजी लैब जल्दी ही बंद कर दी गई। इसी तरह अरसे से विशेषज्ञ इस बीमारी के प्रभाव वाले इलाकों में व्यापक टीकाकरण, फॉगिंग, सूअर बाड़ों को आबादी से दूर करने और स्वच्छ पेय जलापूर्ति जैसे उपायों की जरूरत बताते रहे हैं। लेकिन सूअर बाड़ों को हटाने के प्रस्तावों को ‘छिपी साम्प्रदायिकता’ बताकर तत्कालीन सरकारों ने इसे फायदे के लिए राजनीतिक मुद्दे में बदल दिया। बतौर मुख्यमंत्री आज योगी आदित्यनाथ इस मामले पर भले ही आरोपों की जद में हों मगर उनके विरोधी भी तथ्यपरक ढंग से इसे खारिज नहीं कर पायेंगे की इंसेफेलाइटिस पर सड़क से लेकर संसद तक सबसे प्रभावशाली और मुखर लड़ाई योगी ने ही लड़ी है। इस साल भी उन्होंने टीकाकरण से लेकर स्वच्छता तक की विशेष हिदायतों के साथ 9 अगस्त को मेडिकल कॉलेज में जिम्मेदार अधिकारियों की बैठक ली थी। यह दीगर बात है कि आॅक्सीजन प्रकरण से यह सक्रियता निस्तेज हो गई।
दरअसल मौजूदा राजनीति किस कदर विषाक्त हो चुकी है, उसकी झलक गोरखपुर हादसे से जुड़े डॉ. कफील खान प्रकरण के जरिये देखी जा सकती है। 10 अगस्त को लगातार दौड़भाग कर ‘मसीहा’ के तौर पर सुर्खियां बटोरने वाले डॉ. कफील खान के बारे में जैसे-जैसे ये खबरें आनी शुरू हुर्इं कि वे इन्सेफेलाइटिस वार्ड के प्रभारी होते हुए भी कैसे निजी क्लिीनिक में व्यस्त रहे, ‘परचेज कमेटी’ के सदस्य रहते हुए भी उन्होंने आॅक्सीजन संकट की जानकारी नहीं दी या यह भी कि उन्होंने मेडिकल कॉलेज से कुछ जरूरी उपकरण भी बाहर भिजवाए- इस पूरे मामले को फिर साम्प्रदायिक चश्मे से देखा जाने लगा और सोशल मीडिया पर इसे उत्पीड़क कार्रवाई के तौर पर प्रचारित किया गया।
दरअसल जरूरत इस बात की है कि समग्र तरीके से प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से लेकर बड़े चिकित्सा केन्द्रों तक को इस बीमारी से निबटने के लिए ढंग से प्रशिक्षित किया जाए। अभी बीमारी का सारा बोझ मेडिकल कॉलेज पर है। इंसेफलाइटिस उन्मूलन में लम्बे समय तक योगदान करने वाले न्यूरोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख प्रो.ए.के. ठक्कर भी कहते हैं,‘‘आम जनता में यही भरोसा है कि इसका इलाज केवल मेडिकल कॉलेज में ही संभव है जबकि इसका इलाज प्रशिक्षित चिकित्सकों वाले अस्पताल में भी संभव है।’’
बहरहाल, जब तक समग्र स्तर पर परिवर्तन और समाधान के उपाय नहीं किये जायेंगे, रह-रह कर ऐसी त्रासदियां, और राजनीतिक बयानबाजियां चलती रहेंगी। ल्ल
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