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द्वारा भाजपा का दामन थामने के बाद से ही जदयू के वरिष्ठ नेता शरद यादव विद्रोह कर रहे हैं, लेकिन उनकी सभाओं में जदयू के नेता-कार्यकर्ता शामिल नहीं हो रहे। वे अकेले पड़ते जा रहे हैं
अवधेश कुमार
इस बात की आशंका पहले से थी कि नीतीश कुमार अगर महागठबंधन छोड़कर भाजपा के साथ आएंगे तो उनकी पार्टी में कुछ लोगों को यह पसंद नहीं आएगा। ऐसे कुछ लोग पहले से चिन्हित थे जो भाजपा से 17 वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ने के लिए 2012-13 में बयानवीर हो गए थे। इसलिए इस समय नीतीश कुमार के खिलाफ जो कुछ बयानबाजी हो रही है या पार्टी में विद्रोह जैसी स्थिति का आभास दिलाया जा रहा है, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हालांकि इन नेताओं की आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर ही रह जाती यदि पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद यादव सामने नहीं आते। वस्तुत: शरद यादव के खुलेआम विद्रोह से यह मीडिया की सुर्खियां बन रहा है। पार्टी की आपत्ति के बावजूद शरद यादव ने तीन दिन का बिहार दौरा किया जिसमें उन्होंने महागठबंधन के पक्ष में वकालत की। उन्होंने कहा कि लोगोंं ने भाजपा के साथ जाने के लिए जनादेश नहीं दिया था। अब शरद यादव के समर्थकों की ओर से यह दावा किया जा रहा है कि असली जदयू शरद यादव वाला गुट ही है…नीतीश कोई और पार्टी बना लें। संभावना है कि शरद के नेतृत्व में जदयू पर दावा करने की पहल होगी और हो सकता है, इसके लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी जाए। किंतु प्रश्न है कि क्या इससे बिहार की राजनीति में कोई अंतर आएगा? क्या इससे जदयू- भाजपा का गठबंधन प्रभावित होगा?
जब पार्टी से बर्खास्त किए गए पूर्व महासचिव अरुण श्रीवास्तव कहते हैं कि पार्टी के 14 राज्यों के अध्यक्ष उनके साथ हैं तो ऐसा लगता है, जैसे वाकई नीतीश कुमार की पकड़ कमजोर है। किंतु दूसरी ओर सच यही है कि जदयू का बिहार के बाहर ऐसा अस्तित्व है ही नहीं जिसका असर पार्टी के स्वास्थ्य पर पड़े। नाम के लिए पार्टी की इकाई चाहे जितने राज्यों में बना दी जाए, उसकी शक्ति का केन्द्र बिहार ही है। इसलिए विद्रोही गुटों का दावा केवल अपने संतोष के लिए तो हो सकता है, इससे वस्तुस्थिति में कोई अंतर नहीं आएगा। शरद यादव ने 10 से 12 अगस्त के बीच बिहार की जो जनसंवाद यात्रा की, उसमें जदयू के नेताआें की संख्या नगण्य रही। इनमें तीन ऐसे नेता रहे जिनका नाम लिया जा सकता है। ये हैं, पूर्व सांसद अर्जुन राय, पूर्व मंत्री रमई राम एवं पूर्व विधान पार्षद विजय शर्मा। ये तीनों इस समय बिहार की राजनीति में कोई भूमिका निभाने की स्थिति मेंं नहीं हैं। सच कहा जाए तो शरद यादव के साथ ज्यादातर राजद के लोग ही थे।
जदयू के नेता-कार्यकर्ताओं का शरद यादव से दूरी बनाए रखना ही साबित करता है कि उनके विद्रोह से पार्टी बेअसर रहेगी। जिन 21 नेताओं को पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण बर्खास्त किया गया है, उनमें भी रमई राम, अर्जुन राय और राजकिशोर सिन्हा को छोड़कर कोई नेता ऐसा नहीं है जिसे लोग प्रदेश में जानते भी हों। उनमें ज्यादातर स्थानीय स्तर के नेता हैं। ऐसा नहीं है कि शरद यादव एवं उनके साथियों को सच का आभास न हो। बावजूद यदि वे पार्टी तोड़ने की जिद पर अड़े हैं तो इसका कारण समझना जरा कठिन है। शरद स्वभाव से विद्रोही नेता रहे हैं। वे उन नेताओं में शामिल नहीं हैं जो सामने कुछ और बात करें और पीठ पीछे कुछ और। लेकिन इस समय की उनकी राजनीति को सही दिशा की राजनीति नहीं कहा जा सकता। वे कहते हैं कि लोगों ने महागठबंधन को पांच वर्ष के लिए जनादेश दिया था। ठीक बात है। लेकिन यही बात तो भाजपा एवं जदयू के पूर्व गठजोड़ पर भी लागू होती थी। आखिर 2013 में जब नीतीश कुमार ने भाजपा से गठजोड़ तोड़ा तो उस समय जनादेश की दो वर्ष आयु शेष थी। उस समय तो शरद यादव ने यह आवाज उठाकर विद्रोह नहीं किया। आज उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि तब आपका जमीर कहां सोया हुआ था? तब भी आपको विरोध करना चाहिए था। तब तो वे चुप रहे।
पता नहीं, शरद यह कैसे भूल गए कि महागठबंधन को मिला जनादेश अवश्य पांच साल के लिए था, पर यह नीतीश कुमार के नेतृत्व को मिला था। इसमें उनकी भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहिष्णु होने की छवि का भी योगदान था। शरद को इस बात का जवाब आज न कल देना होगा कि सीबीआई अगर उनकी कैबिनेट में दूसरे स्थान के मंत्री के खिलाफ आरंभिक जांच के बाद भ्रष्टाचार के मामले पर प्राथमिकी दर्ज करे, छापा मारे, तो फिर नीतीश कुमार क्या करते? गठबंधन दो ही स्थितियों मेंं बच सकता था। या तो तेजस्वी यादव स्वयं इस्तीफा दे देते या मुख्यमंत्री उनसे इस्तीफा ले लेते या फिर ये जो आरोप हैं, उनका खंडन करते। दोनों मेंं से जब कोई कदम नहीं उठा तो फिर नीतीश कुमार के लिए गठबंधन के साथ बने रहने का अर्थ होता— अपनी छवि का नाश कर देना। इससे उनकी लोकप्रियता घटती तथा भविष्य में इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ता। ऐसा भी नहीं है कि नीतीश ने इस पर लालू यादव से बातचीत नहीं की। दोनों के बीच बात हुई, पर कोई समाधान नहीं निकला। दूसरे, नीतीश ने ही यह कहा है कि उन्हें अनेक बार काम करने से यानी कुछ निर्णय करने से रोका गया। वस्तुत: बिहार में सत्ता के दो केन्द्र हो गए थे। बिना किसी सरकारी पद पर रहे लालू उसके दूसरे केन्द्र थे। इससे नीतीश के लिए काम करने में कठिनाई पैदा हो रही थी। शरद भले इस समय विद्रोही तेवर अपनाए हों, उनके संदर्भ में यह सवाल भी उठता है कि आखिर लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे हैं, उन पर एक वे शब्द क्यों नहीं बोल रहे?
वैसे सच यही है कि 2013 में नीतीश कुमार ने जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाकर गठबंधन पर प्रहार करना आरंभ किया था, शरद यादव इसके पक्ष में नहीं थे। अप्रैल, 2013 में दिल्ली में आयोजित जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी एवं राष्ट्रीय परिषद की बैठक के अंतिम दिन अध्यक्ष के रूप में शरद यादव का भाषण पूरी तरह समन्वयकारी था। उन्होंने कहा था कि लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी नीतीश कुमार का विशेष तौर पर सम्मान करते हैं। उन्होंने उन नेताओं की भी तीखी आलोचना की थी जो अनावश्यक रूप से भाजपा की आलोचना करते रहते थे। साफ था कि वे गठबंधन बनाए रखने के पक्ष में थे, किंतु नीतीश नहीं माने। जब नरेन्द्र मोदी को गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया गया, तो उन्होंने 16 जून, 2013 को भाजपा से अलग होने का ऐलान कर दिया। उस समय शरद राजग के कार्यकारी संयोजक थे। पहले उनसे इस्तीफे का ऐलान करवाया, फिर अपनी घोषणा की। वास्तव मेंं वाजपेयी के बीमार होने के कारण राजग की बैठकों की अध्यक्षता शरद ही करते थे। इस नाते उनका एक रुतबा भी था और नेताओं के साथ बेहतर संवाद एवं संबंध भी थे। किंतु पार्टी नीतीश पर टिकी थी। स्वयं उनका राजनीतिक भविष्य भी नीतीश के हाथों में था। लोकसभा में वे जिस मधेपुरा का प्रतिनिधित्व करते थे, वह बिहार से ही था। इसलिए वे नीतीश के साथ चले गए। इस तरह इसे विडम्बना ही कहना होगा कि जब नीतीश भाजपा से अलग होना चाहते थे तब शरद यादव उसके पक्ष में नहीं थे और आज जब नीतीश ने फिर से भाजपा का हाथ थाम लिया है तो वे इसका विरोध कर रहे हैं।
वैसे शरद यादव की राजनीतिक स्थिति पर कोई खतरा नहीं है। पार्टी ने उन्हें संसदीय दल के नेता पद से भले हटा दिया लेकिन उनका राज्यसभा का कार्यकाल अभी बाकी है। लालू यादव ने जिस ढंग से नीतीश के हटने के बाद मीडिया के माध्यम से अपील की कि शरद सामने आएं और इसका विरोध करें, नेतृत्व करें, उससे ऐसा लगने लगा था कि दोनों के बीच कुछ स्पष्ट बातें हुई हैं। 27 अगस्त को प्रस्तावित लालू यादव की रैली में शरद के भाग लेने की संभावना है। यह रैली पहले केवल मोदी सरकार के खिलाफ थी। साफ है कि अब इसमें नीतीश विरोधी स्वर भी शामिल होगा। उसके बाद शरद क्या घोषणा करते हैं, यह देखने वाली बात होगी। हां, वे किसी भी दृष्टि से नीतीश को कोई राजनीतिक क्षति नहीं पहुंचा सकेंगे, यह बिल्कुल साफ है। आखिर वे संसदीय दल तक में लोगों को अपने साथ नहीं मिला सके। राज्यसभा के 10 सदस्यों में से केवल दो अली अनवर अंसारी और वीरेन्द्र कुमार उनके साथ हैं। लोकसभा के दोनों सदस्य उनके विरोध में हंै। अली अनवर तो पहले दिन से ही भाजपा के विरोध में बोल रहे हैं।
हां, सबसे महत्वपूर्ण बात शरद यादव नहीं समझ पा रहे वह यह कि जदयू के अधिकतर नेताओं की राजनीति लालू विरोध में भाजपा के साथ ही आगे बढ़ी है। जदयू का पूरा अस्तित्व ही लालू विरोध पर विकसित हुआ था। भाजपा से अलग होने तथा लालू के साथ जाने को अनेक नेता पचा नहीं पा रहे थे, लेकिन अपने राजनीतिक कॅरियर को देखते हुए शांत थे। अब भाजपा के साथ आने से उन्हें लगता है कि स्वाभविक गठबंधन में आ गए हैं। यह भाव नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में विद्यमान है। इस भाव को शरद का विद्रोह समाप्त नहीं
कर सकता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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