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कुछ तथाकथित इतिहासकारों ने सदैव कुछ तथ्यों को सामने रखकर महिलाओं की स्थिति पर नजर डाली और भारतीय समाज के सामने एक भ्रामक स्थिति उत्पन्न की। जबकि सनातन काल से भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान सर्वोच्च रहा है
नयना सहस्रबुद्धे
भारतीय परंपरा का विचार यानी गत सात हजार वर्षों का विचार। इतना बड़ा कालखण्ड, भिन्न मत, भिन्न भाषा- अलग भौगोलिक परिस्थितियां, अलग रहन-सहन, खानपान भिन्न, उपासना पद्धति अलग, तो हम कौन- सी परंपरा के बारे में बात करें? यह प्रश्न मेरे मन में आया कि इस भिन्नता के दरम्यान भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक कुछ चीजें समान हैं, ऐसा क्यों हो सका? कौन-सी ऐसी अवधारणाएं हैं, जो हमें एक सूत्र में बांधे हुए हैं? गौर करने पर दो चीजें दिखाई देती हैं। एक, अतिथि देवो भव! की भावना हर जगह दिखेगी। दूसरा, स्त्री का देवी स्वरूप-सम्मान यह हमारा सांस्कृतिक, पारिवारिक, सामाजिक मूल्य है। वह भी महिला की हर स्थिति का सम्मान चाहे वह बालिका या कन्या हो, प्रसव योग्य काल में हो या वृद्धावस्था
में भी।
’ भारतीय संस्कृति की प्राचीनता और कालखण्ड
1. वैदिक, उपनिषदिक काल- ई. पूर्व 4000 से 1000 वर्ष के बीच नारी की स्वतंत्रता और समानता के सन्दर्भ मिलते हैं। उसे विद्यार्जन का, विवाह विषयक निर्णय करने का भी अधिकार था। क्या वह पूर्ण थी? समाज के सभी वर्ग, स्तर पर भी यह समानता उन्हें प्राप्त थी? इसका अध्ययन होना जरूरी है।
2. रामायण और महाभारत काल ई. स. पूर्व 9 से 1000 वर्ष। इन दो कालखंडों में उच्च मूल्यों का साकार रूप दिखा है। तथा मूल्यों में गिरावट और अपवादात्मक स्थिति का चित्रण भी आया है। परन्तु यह सब सामान्य नहीं था।
3. पुराण काल(400-1000 ई.) के कालखंड में स्मृति, श्रुति और पुराण जैसे अनेक ग्रंथों की रचना की गई।
4. मुस्लिम आक्रमण काल- ई. 4 से लेकर 1500 तक का कालखंड दास्यक, संस्कृति के विनाश का रहा। इसमें मंदिरों का विनाश, सामाजिक अध:पतन, मूल्यों में गिरावट, महिलाओं पर अनेक बंधन, कुप्रथाएं, स्वतंत्रता का संकोच बड़ी मात्रा में हुआ। महिलाओं की दास्यता के संदर्भ में यह हानिकारक साबित हुआ। समाज आक्रांताओं के आक्रमणों को झेलते रहा। जोर-जबरदस्ती कन्वर्जन, शिक्षा परम्परा का ध्वस्त होना, मंदिरों के साथ-साथ पुस्तकालय, विश्वविद्यालय, सांकृतिक मान बिंदुओं पर आघात के कारण समाज बहुत ही निराश तथा दुर्बल बना। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, मूल्य, परंपरा सब तहस-नहस की गई।
5. वसाहत काल, प्रारम्भिक (ईसा. 1601 से 1947 तक)- ब्रिटिश, पुर्तगाली भारत में व्यापार के लिए आए। ईसाई मिशनरियों ने यहां की अशिक्षा, अनारोग्य, कुप्रथा, जाति व्यवस्था पर आघात करते-करते ईसाई मत का प्रसार किया। गत 1500 वर्ष की भारतीय सामाजिक अवनति का लाभ ईस्ट इण्डिया कंपनी ने उठाया। उसने केवल देश को लूटा ही नहीं बल्कि संसाधनों की नहीं, इतिहास की, भूगोल की, कला-संस्कृति को अपने मत-मुताबिक ढालने में कामयाब रही। अंग्रेजों ने बड़ी धूर्तता से भारतीय समाज में मानसिक दास्यता का जाल फैलाया। समाज से एकता, बंधुता के भाव को उखाड़कर पश्चिमी विचारधारा थोपकर वैचारिक गुलाम बना दिया। फिर अंग्रेजी शिक्षा, कानूनी परिवर्तन, सती बंदी, महिला स्थिति में सुधारों का प्रारम्भ और रेल, बिजली, खनन, कपड़ा मिल्स, आरोग्य सुविधा जैसी व्यवस्थाएं निर्माण कीं।
’ आधुनिक काल-1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद भी अंग्रेजी शिक्षा की जकड़न बरकरार है। रेल, बिजली, काननू में सुधार जैसे बहुत से क्षेत्र हैं, जहां अभी भी अंग्रेजों के बनाए नियम-कानून कायदे ही चलते हैं। स्वतंत्रता के बाद इसी अंग्रेजी मानसिकता के साथ ही स्वतंत्र भारत का निर्माण किया गया।
6. आधुनिक मानवता के इतिहास में 1991 के बाद का समय चुनौतियों भरा रहा। संपर्क क्रांति के कारण अच्छा-बुरा सब कुछ बड़ी तेजी गति से हुआ। जीने की कसौटी पैसा और सुख उपभोग बनी है, जिसमें सिर्फ आगे जाने की होड़ के सिवाय कुछ न दिखा। चाहे दूसरों को कुचल कर, दबाकर, एक दूसरे का इस्तेमाल करके सामाजिक, सास्कृतिक मूल्य व्यवस्था उखाड़कर। विश्व को बाजार, व्यक्ति को वस्तु और संसधानों को अधिकार मानना। पैसे की ताकत से कोई भी चीज खरीदना, मालिक बनना यह इस कालखंड की विशेषता रही है, जिसमें महिलाओं का वस्तुकरण और नुकसान हुआ। 1975 से विश्व में
चले नारी मुक्ति आंदोलन में और उसके भारतीय स्वरूप में भी पश्चिमी-वामपंथी, मार्क्सवादी विचारधारा मुख्य रही।
’ भारतीय तथा पश्चिमी नारी मुक्ति आन्दोलन में मूल द्वंद्व
1. संकल्पना – शक्ति
2. भारतीय अवधारणा – स्वतंत्र आत्मा, प्रकृति और महिला-पुरुष की संकल्पना। ईसाईयत की अवधारणा- नारी की निर्मिति पुरुष के लिए, पुरुष द्वारा, पुरुष के बाद
3. इस्लाम की अवधारणा-एक ही (अल्लाह) एक ही (पैगम्बर), एक ही मजहबी किताब यानी कुरान इस्लाम और ईसाइयत, दोनों ही मत-पंथ आदम और ईव की कथा बताते हैं। स्त्री मुक्ति की कल्पना मूलत: इन मत-पंथों द्वारा किये जाने वाले अन्याय तथा अत्याचारों से मुक्ति की मांग थी। और अन्याय करने वाले मजहब के नेतृत्वकर्ता बने पुरुष। इसलिए उसका स्वरूप पुरुष विरुद्ध स्त्री ऐसा रहा।
अन्य मत-पंथ पुस्तक आधारित,जबकि प्राचीन धर्म निसर्ग आधारित
पुस्तक आधारित मत-पंथ – निसर्ग आधारित धर्म
एकेश्वरवादी- चराचर सृष्टि में भगवान
पुरुष प्रधान- माता प्रधान
निसर्ग / सृष्टि पूजक
’ इस पृष्ठभूमि पर स्त्री-पुरुष समानता, पुरुष विरोध की बात होनी चाहिए। गत दो हजार वर्ष के प्रभाव में आकर केवल विवेचन करना ठीक नहीं होगा। परन्तु भारत के सन्दर्भ में महिला विमर्श के गत सौ साल, पश्चिमी विचारधारा के आधार पर बनाया गया विमर्श, और एक उन्नत वैचारिक और व्यवहारिक परंपरा होते हुए भी करीब-करीब गत दो हजार वर्ष में आयी कुप्रथाएं, महिलाओं की दास्यता, अवहेलना की घटनाएं, क्रूरता, उनके अधिकारों का दमन के साथ तालमेल कैसे बैठायें?
सत्य क्या था और क्या है?
महिला का स्थान, मान और अधिकार जिस संस्कृति में स्वाभाविक और नैसर्गिक था, वह कहां खो गया? जिस धर्म-संस्कृति ने मानवता का अंतिम सत्य जो मातृत्व है—उसका बड़ा सम्मान किया, स्त्री के शरीर की सुन्दरता को भी मन-बुद्धि-आत्मा की सुन्दरता के साथ संजोया, आत्मा का कोई आकार नहीं, चाहे वह शरीर स्त्री का या पुरुष का हो, पर समान व्यवहार। अनेक भिन्नताएं होने के बावजूद एकत्व का अनुभव दिया। उस समाज और संस्कृति की गिरावट नहीं होती तो विश्व आज कुछ अलग दिखता। दो हजार वर्ष के आक्रमण के कारण जन मन में प्रभावी हो गयी दास्यता कैसे इतनी ताकतवर हो गई?
मातृशक्ति का सम्मान करने वाले समाज में इतना घृणा भाव क्यों पैदा हुआ? करीब सात हजार वर्षों में भारत ने अच्छे और खराब सभी दौर देखे। मातृप्रधान, कृषि प्रधान की समाज रचना बदलकर-पुरुष प्रधान की रचना, बड़े एकत्रित परिवार की जगह छोटे परिवार, धर्म, विशिष्ट जाति के साथ रोटी-बेटी के व्यवहार से आगे चलेें। आज हम जैसे वैश्विक गांव में जी रहे हैं। यह भारतीय संस्कृति का मूल विचार था? आज वैश्विक विमर्श में इस बात पर नजर जानी शुरू हो गई है। महिलाओं का आज का विमर्श भारत के बारे में क्या कहता है? चर्चा वैदिक काल की परम्परओं की नहीं होती है। होती है तो केवल मनु स्मृति की। सीता को श्रीराम ने त्यागा, द्रौपदी का वस्त्र हरण हुआ उसकी। लेकिन गार्गी मैत्रेयी, सावित्री की चर्चा कभी नहीं सुनाई देती। भारत का समाज सदैव से मातृशक्ति को पूजनीय मानता था और मानता है, इसकी चर्चा कथित बौद्धिक तबके द्वारा नहीं की गई। मुगलशासन में महिलाओं पर कितने ही जुल्म हुए उसकी चर्चा कभी क्यों नहीं हुई? लेकिन एक तबके द्वारा समाज का जान-बूझकर ‘ब्रेनवॉश’ किया गया। एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से हम अपनी पीढ़ी तक क्या पहुंचा रहे हैं? कौन सा ज्ञान उन्हें दे रहे हैं? ऐसी स्थिति में महिला विमर्श के बारे में भारतीय परंपरा में महिलाओं की स्थिति का विचार करते समय कुछ मुद्दे हैं, जिनके आधार पर उसमें भ्रान्ति और भ्रामक मुद्दे कौन से और कैसे आएं, यह हम जान सकेंगे।
’ भारत में महिलाओं का योगदान देखें तो चाहे बात ज्ञान, विज्ञान, परिवार, युद्ध, राजनीति का क्षेत्र रहा हो, उनका सम्मान ही हुआ है। इस बात पर हमें गर्व होना चाहिए। परन्तु उसके साथ-साथ, महिला विमर्श को कालानुरूप, कालानुकूल, काल सुसंगत रखने के लिए भारी प्रयासों की जरूरत है। वह केवल, नीति, राजनीति, कानून के आधार पर नहीं हो सकता। स्त्री-पुरुषों का विचार-व्यवहार समानता का हो।
’ महिमा मंडन या लज्जा भाव- भारतीय संस्कृति में उच्च कोटि के मूल्य विराजमान हैं। लेकिन वर्तमान में उस संस्कृति के बताए रास्तों को कथित बौद्धिकों द्वारा नकारा गया। आज कथित बुद्धिजीवी माने जा रहे लोग इतिहास से छेड़छाड़ करके समाज को जाति व्यवस्था-महिला अन्याय, अत्याचार, शूद्र जैसे विषयों में फंसाना चाहते हंै।
’ पश्चिमी विमर्श की कल्पना में पुरुष प्रधानता से मुक्ति की भावना है। पुरुषों से मुक्ति यह गलत अर्थ है। भारत में पुरुषों से मुक्ति का भाव नहीं आ सकता, क्योंकि हमारी संस्कृति पुरुष और प्रकृति, शिव और शक्ति को मानती है, जिसमें पूरकता का भाव है। भारत में महिला विषयक सुधार लाने में पुरुष सुधारकों का योगदान महत्वपूर्ण है।
’ भारतीय संस्कृति और अवधारणा पर आधारित काल सुसंगत महिला विमर्श तैयार करना और उसके अनुसार व्यवहार करना बड़ी चुनौती है। साहित्य, कला, भाषा, रहन-सहन, वस्त्र, खानपान, सिनेमा, दूरदर्शन एवं अनेक क्षेत्रों में उनकी सहभागितता को बढ़ावा देना।
’ महत्वपूर्ण विषय यह है कि हम संविधान की चौखट में है। उसमें दिए हुए अधिकार, रचना और संरचना के अन्दर ही हमारा विमर्श होना चाहिए। भारतीय विचारधारा में ‘धर्म’ का विचार यानी पूजा-पाठ का विचार नहीं, मूल्य विचार है। उसका निर्माण अनेक प्रश्नों का उत्तर हो सकता है। विशेषकर महिला संबंधित उत्पीड़न के प्रश्न।
’ भारतीय संस्कृति कोई एक पुस्तक, किसी एक व्यक्ति पर आधारित नहीं हैं। सत्य की खोज का एक चिरंतन प्रयास है। महिला संबंधित विमर्श के लिए भी सत्य की कसौटी रखना आवश्यक और अपरिहार्य भी है।
’ नयी चुनौतियां- बाजारवाद, पूंजीवाद, उपभोक्तावाद-जिसमें व्यक्ति को वस्तु के रूप में देखा जा रहा है। इसमें सबसे बड़ी हानि महिलाओं की हो रही है। नयी भ्रांतिया निर्मित हो रही हैं। उदाहरण के लिए, सरोगेसी-मातृत्व का बाजारू उपयोग, गरीब माताओं का शोषण । स्त्री शरीर को साधन मानकर, उसका प्रदर्शन यानी स्वतंत्रता। फैशन- पहनावा यानी स्वतंत्रता, ‘मेरा शरीर-मेरा अधिकार’-मैं कुछ भी करूंगी।
(लेखिका भारतीय स्त्री शक्ति की उपाध्यक्षा हैं)
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