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-मृदुला सिन्हा
मोबाइल की घंटी बजी। मेरे द्वारा उसे उठाने और 'हैलो' करने पर दूसरी छोर से प्रश्न आया, ''आप कब राज्यपाल बनेंगी?'' प्रश्न का उत्तर मेरे मुख में आ गया था, लेकिन मैं चुप रही। डायल करने वाले मेरी मित्र विमला सिन्हा के पति बी़ एऩ सिन्हा ने पुन: प्रतिप्रश्न किया, ''आप चुप क्यों हो गईं? मैं तो इसलिए प्रश्न कर रहा था कि आप दो-तीन सेकेण्ड में ही फोन उठा लेती हैं। जहां तक राज्यपाल की गतिविधियों के बारे में मेरी सुनी-सुनाई जानकारी है, वे स्वयं फोन नहीं उठाते। फोन डायल करने और उठाने के लिए राज्यपाल के कई कर्मचारी और निजी स्टाफ नियुक्त किए जाते हैं।''
मैंने कहा, ''क्या आपने यही पूछने के लिए फोन किया?'' फिर दोनों के बीच काम की बातें होकर संवाद की डोर कट गई।
मुझे राज्यपाल बने तीन वर्ष होने को आए। 31 अगस्त, 2014 को शपथ ग्रहण हुआ था। इसके बाद भी यह प्रश्न करना कि आप कब राज्यपाल बनेंगी, का आशय भी समझ में आ ही गया था। जनता में यह धारणा है कि राज्यपाल का पद किसी भी राज्य में सबसे बड़ा पद है। संविधान की परिभाषा में उस पद की अपनी गरिमा है। अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होना आवश्यक है। राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और केंद्र में राष्ट्रपति की तरह राज्यों में कार्यपालिका की शक्ति उसके अंदर निहित होती है। राज्य की सारी कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के पास होती है और सभी कार्य उन्हीं के नाम से होते हैं।
स्वतंत्रता के उपरांत राज्यपाल को लाट साहब ही कहा जाता रहा है। कहावतें भी समाज में ससरती-पसरती और उपयोग में आती रही हैं- लाट साहब का नाती, लाट साहब बनता है। और भी। समाज में यह धारणा भी रूढ़ हो चुकी है कि जितना बड़ा पद है, उस पर बैठा व्यक्ति उतना ही कम काम करता है। उनके सहायक-सहायिकाएं उनके लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं। मोबाइल उठाना भी। यह सही है कि राज्यपाल अपनी पांचों अंगुलियों के सहयोग से ही भोजन करते हैं। अपने पांव से ही चलते हैं। अपने मस्तिष्क से ही चिंतन करते हैं। अपनी दैनिक क्रियाओं में अवश्य दोनों हाथों का उपयोग करते हैं। यह भी तय है कि राज्यपाल के दोनों हाथ कम से कम काम करते हैं। मेरा तो अनुभव यह है कि प्रधानमंत्री आवास पर फोन लगाने और अपना नाम एवं पद बताने पर दूसरी ओर से आश्चर्य भाव से मुझसे पूछा गया कि आप ही राज्यपाल हैं? आप ही मृदुला सिन्हा हैं? कई बार यह प्रश्न पूछे जाने पर मेरा भी विश्वास डोल गया कि शायद मैं राज्यपाल नहीं हूं। अंतत: फोन उठाने वाले को विश्वास हो गया कि मैं ही राज्यपाल हूं जो कभी-कभी स्वयं मोबाइल डायल करती या घंटी बजने पर फोन उठाती हूं। प्रधानमंत्री से बात करते समय उस सहयोगी का विश्वास दृढ़ हो गया कि मैं ही राज्यपाल हूं। फोन रखने से पहले उसने तीन बार मुझे नमस्कार किया। मैंने भी उसे आशीष दिया। राज्यपाल क्या करता, क्या नहीं करता, उसके बारे में लोगों को बहुत ही कम पता रहता है।
यह सच है कि राज्यपाल का पद संवैधानिक पद है। राज्यपाल से उचित समय पर बोलना, संविधान के अनुसार विचार रखना और जनता के बीच कम जाना, ऐसी अपेक्षा होती है। इन अपेक्षाओं को उपेक्षित भी नहीं होना चाहिए।
गोवा एक पर्यटन का केन्द्र है। सामाजिक और वैवाहिक समारोहों का ठिकाना भी। मेरे पास देशभर से प्रतिदिन लोग मिलने आते हैं। अधिकांश फोटो खिंचवाते हैं। कुछ हाथ मिलाते हैं। आंखों और शब्दों से स्नेह और सम्मान का आदान-प्रदान तो होता ही है। इतना तो सच है कि लोग खुश होकर वापस जाते हैं। हाल ही में एक विवाहित जोड़ी और उनके साथ दो बच्चे भी साथ आए थे। महिला आश्चर्य युक्त नजरों से मुझे देख रही थी। उसके पति मुझसे बातें कर रहे थे। विदा लेते समय आह्लादित होती हुई बोली- ''आप मेरी नानी की तरह लग रही हैं। मैं आपको छू सकती हूं क्या?'' मैंने कहा, ''जब मैं तुम्हारी नानी की तरह लग रही हूं तो आकर गले मिलो, छूना भर क्यों? उसने बड़ी तेजी से दोनों हाथ फैलाकर मेरी कमर को बांध लिया। बहुत जोर से मेरे शरीर से चिपक गई। शायद बहुत देर उसी स्थिति मे रहती यदि उसके पति ने चलने के लिए नहीं कहा होता। उसकी सख्त पकड़ और कोमल स्पर्श मुझे अभी भी याद है।
पिछले तीन वर्ष में इस तरह के बहुत से अनुभव हुए। बिहार की यात्रा पर हमारे एडीसी परेशान हो जाते रहे हैं। कार से उतरते ही महिला और पुरुषों का हुजुम मुझसे चिपक जाता रहा। परेशान एडीसी को मैं इशारा करती हूं। आंखों द्वारा आश्वस्त करती हूं कि चिंता मत करो, सब अपने हैं। मेरी सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं। कार में बैठकर एडीसी को सुझाव देती हूं कि मेरे मायके, ससुराल और मुजफ्फरपुर जाने पर किसी को मुझसे मिलने से रोकना मत। अनुशासन का पालन होना चाहिए। प्रोटोकॉल का भी। लेकिन जिनके बीच मैं पली-बढ़ी हूं वे मुझे छूना चाहते हैं। अंकवार लेना चाहते हैं। छूने दो। मुझे भी सुखद स्पर्श मिलता है। और विश्वास एवं शक्ति भी। वैसे तो पिछले 40 वर्ष से देशभर में घूमते-घूमते घनेरों क्षेत्र मायका की भूमि की ही अनुभूति देते हैं।
मेरे मोबाइल उठाने पर सबको आश्चर्य होता है। हाल ही में राजस्थान सरकार की मंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी ने कहा- ''कभी-कभी मैं सहयोगी कर्मचारी को दीदी का फोन लगाने कहती हूं और घंटी बजते ही मोबाइल अपने हाथ में ले लेती हूं। मुझे विश्वास रहता है कि दीदी दो-तीन सेकेण्ड में ही फोन उठा लेंगी।''
यह सब सुनकर मैं असमंजस में पड़ जाती हूं कि ये राज्यपाल के गुण हैं या अवगुण। पता नहीं। राष्ट्रपति के साथ राज्यपाल सम्मेलन में अपना प्रतिवेदन रखते हुए मैंने कहा था कि हम सभी राज्यपालों को 40-50 वर्ष का जनता से सम्पर्क रहा है। हमने जनता के बीच रहकर उनकी समस्याओं के समाधान के लिए भी उपाय निकाले हैं। चिंतन-मनन किया है। अब हम केवल राजभवन में बैठकर संवैधानिक जिम्मेदारियों और सरकारी दस्तावेजों को नहीं निपटाएंगे, हमें जनता के बीच भी जाना चाहिए। विभिन्न विषयों पर अनेकानेक विभागों द्वारा आयोजित गोष्ठियों, सांस्कृतिक-सामाजिक-साहित्यिक-आध्यात्मिक संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भी भागीदारी हो। हम अपने विचार रखें ताकि जनता उन विचारों पर चिंतन-मनन करे। थोड़ा-थोड़ा सही अपने व्यवहार में उतारे। हमारा संविधान सवार्ेपरि है। संविधान के अनुकूल राज्यपाल का व्यवहार हो, सरकारें चलें, लेकिन जनता भी संविधान का उपयुक्त सम्मान करे। जनतांत्रिक सरकारों के गठन में उनका सक्रिय सहयोग हो। राजभवन से निकलकर समाज के बीच जाकर ये जिम्मेदारियां भी राज्यपालों को निभानी चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि पूर्व के राज्यपालगण और आज भी राजभवनों में स्थापित राज्यपालगण ऐसा व्यवहार करते हैं।
किसी ने मुझे कहा कि गोवा के लोग आपको बहुत प्यार करते हैं, आदर-मान भी देते हैं। गोवा की जनता आपको पाकर खुश है। मैंने कहा, ''यह प्यार का हाथ मैंने बढ़ाया। मैं गोवा के रीति-रिवाज, सांस्कृतिक जीवन, इनका इतिहास, संस्कृति, संगीत-पेंटिंग और विभिन्न कलाओं से प्रेम को देखकर अभिभूत रहती हूं। इनके पांव संस्कृति के अंदर गहरे धंसे हैं। मैं अपना यह अनुभव देश के कोने-कोने में जाकर सुनाती हूं। गोवा का ऐसा ही परिचय देती हूँ। मेरे राजभवन में कोंकणी, मराठी और अंग्रेजी के समाचारपत्र आते हैं। प्रथम तो मैं बहुत झल्लाई थी कि कैसे समाचार पढूंगी। लेकिन मेरे पति ने कहा- अंग्रेजी तो आप पढ़ती ही हैं। लेकिन मराठी और कोंकणी भी पढ़ना शुरू करिए। सदा की तरह उनके सुझाव को अमल कर मराठी और कोंकणी पढ़ने लगी। कई बार ऐसा समय आया जब मैं मराठी और कोंकणी का कोई शब्द पढ़कर चौंक गई- ''अरे यह शब्द तो मेरे गांव में बोला जाता है।'' सुखद भाव था। कोंकणी और मैथिली भाषाओं के बीच भी शब्द मिलते-जुलते हैं।
बी़ एऩ सिन्हा द्वारा पूछे सवाल को मथनी बनाकर मैं अपना मानस मंथन कर रही हूं। यह सच है कि तीन वर्ष पूर्व मैं गोवा की राज्यपाल बन गई। इस मंथन से यह भी सत्य निकला कि मैं सक्रिय राज्यपाल रही हूं। गोवा में लोगों से मिलना, गोष्ठियों का उद्घाटन करना, विवाहोत्सवों में जाना, स्वच्छता अभियान के कार्यक्रमों का आयोजन करना, दीक्षांत समारोहों को सम्बोधित करना, कम तो नहीं। गोवा से बाहर लगभग सभी राज्यों में गोष्ठियों, सांस्कृतिक-सामाजिक-साहित्यिक-आध्यात्मिक संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में जाना। देश के अलग-अलग भागों में स्वच्छता अभियान के कार्यक्रमों का भी आयोजन।
उपरोक्त कार्यक्रमों के कारण भी संभवत: राज्यपाल गतिशील लगती हैं। मात्र राजभवन में शोभायमान नहीं। 1998 से 2003 तक मैं केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष थी। देश-विदेश में निरंतर प्रवास रहता था। एक वर्ष 2001 में 223 दिन दिल्ली से बाहर। एक सज्जन ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी जी से कहा, ''आपने एक व्यक्ति को उनकी रुचि के अनुकूल पद दिया है। मृदुला सिन्हा लगातार गांव-गांव, शहर-शहर प्रवास कर रही हैं।'' अटल जी ने कहा- ''चेयरपर्सन ऑन चक्का।'' चेयरपर्सन चक्के पर है। सुनकर सुखद लगा। देश के कोने-कोने में जाकर समस्याओं का अध्ययन करना और दिल्ली आकर उसकी जानकारी विभिन्न विभागों, योजना आयोग और प्रधानमंत्री को देने से मुझे अपना पद सार्थक लगता था। आज भी ऐसा प्रयास जारी है।
हर व्यक्ति का अपना स्वभाव होता है। लेकिन मुझे अपने पद की गरिमा का एहसास हर पल होना चाहिए। इसलिए तीन वर्ष बीत जाने के बाद भी कभी-कभी अपने को स्मरण दिलाना पड़ता है- ''मैं राज्यपाल हूं।'' तद्नुकूल गरिमापूर्ण व्यवहार करने की कोशिश करती हूं, पर मैं भी इसी जनसाधारण से हूं, अपनों से खुलकर मिलना, मिलने आना चाहने वालों में से किसी को निराश नहीं करना, सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोगों के बीच भेद लगता ही नहीं। मिलने आने वाला व्यक्ति मृदुला सिन्हा (दीदी, चाची, मामी और नानी, दादी) से मिले। बस इतना ही सहज व्यवहार हो जाता है। राज्यपाल तो मैं हूं ही, पर लोगों से मिलते समय दो मनुष्य मिल रहे हैं का भाव आता है। इसलिए हर मिलने वाला/वाली स्वयं तो आनंदित होता/होती ही है, मुझे भी आनंदित कर जाता/जाती है। जीवन ही आनंद है, राज्यपाल हो या एक मजदूर, आनंद सबको चाहिए। राज्यपाल के पद पर तीन वर्ष से आसीन होकर मैं जनता से ही आनंद पाती हूं, उन्हें आनंद देने की कोशिश करती रहती हूं। इसलिए तीन वर्ष बीतने की अनुभूति नहीं होती। लगता है कल ही इस सबसे पुराने सुन्दर, सुखद, मनोहारी राजभवन में निवास के लिए प्रवेश किया है। श्रेय गोवावासियों को जाता है। गोवा है ही ऐसा राज्य। सामाजिक सौहार्द से भरा क्षेत्र। अरब सागर के किनारे बसा राज्य, आपसी मेल-मिलाप में जुआरी और मांडवी नदी के मीठे जल का स्वाद ही जिह्वा पर उतारता है। अन्य राज्यों के निवासियों को भी।
थोड़े से अभिनव कार्यक्रमों का आयोजन। राष्ट्रपति भवन और सभी राजभवनों में 'ऐट होम' कार्यक्रम गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आयोजित किए जाते हैं। उसमें समाज के गणमान्य एवं उपलब्धि प्राप्त लोगों को निमंत्रित किया जाता है। मैंने गोवा राजभवन की सूची को तीन वर्ष पूर्व खंगाला। बहुत पुरानी सूची थी। कुछ दिवंगत पाए गए। कुछ आते ही नहीं। कुछ ने निवास स्थान बदल लिया। आने वालों में एक ही सूची के लोग वषार्ें से थे। मैंने उसे बदला। कुछ लोगों के नाम को हटाकर दिव्यांग, बुजुर्ग और विशेष उपलब्धि प्राप्त लोगों को निमंत्रण दिया। यह कार्यक्रम तदंतर जारी है। वर्ष में तीन बार मनाये जाने वाले 'ऐट होम' कार्यक्रम में उपरोक्त श्रेणियों के लोग बदलते जाते हैं। कार्यक्रम में भाग लेते समय उनकी प्रसन्नता देखकर हम भी आनंदित हो जाते हैं।
पिछले तीन वर्ष से राजभवन परिसर में हर माह की पूर्णिमा को (बादलविहीन आकाश) ''चांद के साथ-साथ'' कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है, जिसका उद्देश्य बिजली की बचत करना तथा एक साथ खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी में बैठकर प्रकृति के साथ जुड़ना है। स्थानीय समस्याओं एवं उसके समाधान की चर्चा भी करनी है।
ऐसे बहुत से कार्य हाथ में लिए जो पहले नहीं होते थे। स्वच्छता अभियान और विभिन्न कार्यक्रमों में 3,000 से अधिक स्त्री-पुरुष समय-समय पर राजभवन में बुलाए गए। उनमें से 2,800 लोग पहली बार राजभवन में आए। उनकी खुशी देखने लायक बनती थी।
उनसे दूरियां कम होने का आनंद मुझे भी मिलता रहा है। कुछ इस तरह बीते हैं तीन वर्ष। राज्यपाल तो मैं तीन वर्ष पूर्व ही बन गई। बी़ एऩ सिन्हा जी का प्रश्न आनंद में सना ही था। उन्हें भी मेरे द्वारा स्वयं मोबाइल उठाना आनंद ही दे रहा था। ल्ल
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