|
सामयिक विषयों पर फिल्म बनाने वाले चर्चित निर्माता मधुर भंडारकर आपातकाल पर केन्द्रित अपनी ताजा फिल्म में उस कालखंड को तो काफी हद तक पर्दे पर उतारने में सफल रहे किन्तु दर्शकों को उनसे इससे ज्यादा मुखरता की उम्मीद थी
विशाल ठाकुर
क्या हमारे देश में किसी सत्य घटनाक्रम पर वाकई ईमानदारी से कोई फिल्म बन सकेगी? या फिल्मकार खोखले वादे कर दर्शकों को यूं ही छलते रहेंगे? क्या इतिहास के पन्नों में दबे तथ्यों पर बिना किसी दबाव और तथ्यों को बिना तोड़-मरोड़ किए फिल्म बनाने के लिए जादुई शक्ति चाहिए? अपने तेज-तर्रार अंदाज के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार मधुर भंडारकर की ताजातरीन फिल्म ‘इंदु सरकार’, को देख कर मन में ऐसे ही विचार आते हैं।
देश में 1975 के आपातकाल के कालखंड को दर्शाती यह फिल्म बहुत कुछ कह सकती थी, बहुत कुछ दिखा सकती थी, थोड़ी और कोशिश होती तो हालांकि फिल्म समीक्षकों और फिल्म बिरादरी के साथ-साथ फिल्म को दर्शकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली है। कई समीक्षकों ने जमकर तारीफ भी की है, तो कुछेक ने इसके माहौल, अंदाज और पात्रों के अभिनय की तारीफ की है। मधुर थोड़ा और जोर लगाते तो शायद आज जो लोग उनकी थोड़ी-बहुत तारीफ कर रहे हैं, उनके इस कार्य की सराहना कर रहे हैं, शायद उन्हें कंधों पर बिठा लेते। इस फिल्म के जरिये आप उस दौर में जो कुछ हुआ, उसे समझने की कोशिश करेंगे, तो बहुत कुछ समझ जाएंगे। जिन लोगों ने इमरजेंसी देखी है और जिनके जेहन में आज भी उस दमनकारी दौर की यादें ताजा हैं, वे इस फिल्म के पात्रों के जरिए उस वक्त का अंदाजा लगाने में सफल रहे हैं। हालांकि भंडारकर की साफगोई इससे भी झलकती है कि उन्होंने फिल्म की रिलीज से पहले यह समझाने की पूरी कोशिश की, कि यह फिल्म 19 महीने (1975 से 1977) के आपातकात के कालखंड को दर्शाती तो है, लेकिन इसमें कहानी का 70 फीसदी हिस्सा काल्पनिक है और केवल 30 फीसदी असल। अच्छा रहता वह यह बात फिल्म बनाने की शुरुआत के समय बताते। कुछ और बातें करने से पहले जरा एक नजर फिल्म की कहानी, माहौल और विषय-वस्तु पर डाली जाए।
फिल्म की कहानी इंदु (कीर्ति कुल्हारी) नामक एक युवती के इर्द-गिर्द घूमती है। इंदु कमजोर नहीं है, लेकिन थोड़ी ही देर में उससे सहानुभूति होने लगती है। वह हिचक कर बोलती है। थोड़ा हकलाती भी है। उसे कविताएं लिखने का शौक है और वह अनाथ है। किसी फिल्म में मुख्य किरदार और उसके आस-पास का माहौल ऐसा हो तो जिज्ञासा बढ़ने लगती है।
एक दिन इंदु के जीवन में नवीन सरकार (तोता राय चौधरी) नामक व्यक्ति आता है। नवीन महत्वाकांक्षी है, चाटुकार है। जी हुजूरी उसकी रग-रग में बसी है। राजनीति में उसे कुछ बड़ा करना है, उसे बड़ा बनना है, पॉवर पाने की चाह है उसमें। घटनाक्रम ऐसे करवट लेता है कि इधर इंदु और नवीन की शादी होती है, उधर आपातकाल की घोषणा हो जाती है।
नेताओं की गिरफ्तारी से लेकर नेताओं का भूमिगत होना और इस दौरान नसबंदी से लेकर बुलडोजर कांड तक बहुत कुछ का चित्रण आंखों के सामने आने लगता है। छिटपुट असल घटनाओं के चित्रण के साथ कहानी का ज्यादातर हिस्सा काल्पनिक घटनाओं और राजनेताओं के छद्म नामों के साथ आगे बढ़ने लगता है। यहां दो विचारधाराएं सामने आती हैं। एक विचारधारा इंदु की और दूसरी नवीन की। आपातकाल के तुरंत बाद नवीन सरकार बड़े और ताकतवर नेताओं की हां में हां और जी-हुजूरी में लग जाता है, लेकिन इंदु नैतिकता का साथ देती है। उसकी राह और सोच नवीन से बिलकुल अलग है। जाहिर है कि अलग रास्ता चुनने की उसे कीमत भी चुकानी पड़ती है। उसकी खुिशयों भरी जिंदगी स्याह बादलों से ढक जाती है। वह नानाजी (अनुपम खेर) के साथ मिल कर आपातकाल की जंग लड़ती है, जो भूमिगत रह कर इस दौर से दो-दो हाथ कर रहे हैं। दरअसल, भंडारकर कहना और दिखाना तो बहुत कुछ चाहते थे, लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी वह इमरजेंसी पर खुलकर नहीं दिख पाए।
दूसरी बात यह कि बीते काफी समय से एक फिल्मकार के रूप में मधुर की रचनात्मकता ऐसा कुछ पेश नहीं कर पा रही है, जिसके लिए उन्हें बधाई दी जाए। एक निर्देशक के रूप में उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार अब से दस साल पहले फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ के लिए मिला था। इससे पहले साल 2005 में उन्हें फिल्म ‘पेज थ्री’ और साल 2001 में फिल्म ‘चांदनी बार’ के लिए राष्टÑीय पुरस्कार से नवाजा गया था।
एक अच्छी कोशिश और अलग मिजाज की दृष्टि से फिल्म ‘फैशन’ में उनका कार्य उत्कृष्ट था, जो 2008 में आयी थी। 2015 सबसे ज्यादा निराशा हुई, जो केवल फूहड़ता और जिस्म की नुमाइश करती दिखी है। बीते 17-18 सालों के फिल्म करियर में यह फिल्म मधुर भंडारकर के नाम पर धब्बा सा लगती है और शायद इसी धब्बे से हट कर उन्होंने इंदु सरकार के जरिये कुछ प्रभावशाली करना चाहा तो ढंग से केन्द्रित नहीं हो पाए। इसके अलावा आप थोड़ा और पीछे जाएंगे तो पाएंगे कि ‘इंदु सरकार’ की घोषणा से पहले मधुर भंडारकर सुर्खियों में भी रहे। कई मुद्दों पर वे मौजूदा सरकार के पक्ष में खड़े हुए। इस मामले में उन्हें अनुपम खेर का अच्छा साथ भी मिला। संभवत: इसी दौरान उन्हें इस फिल्म का विचार भी आया। अगर बात केवल माहौल की है, तो आपातकाल पर एक मारक फिल्म बनाने का उनके पास इससे अच्छा तो कोई मौका ही नहीं था। फिर वे क्यों चूक गये?
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने मौलिक अधिकारों के हनन से लेकर विपक्षी दलों के नेताओं के दमन तक क्या कुछ नहीं किया। इस एक पंक्ति को फिल्म के रूप में बयां करने के लिए आज के समय में ‘इनपुट’ जुटाना कौन-सी बड़ी बात है। उस कालखंड की सही और सच्ची कहानी बयां करने के लिए तमाम लोग आज भी जिंदा हैं। तमाम दल और राजनेता मौजूद हैं, जो बताएंगे कि कब क्या हुआ। किताबी तथ्यों की भी कमी नहीं है। हां, कुछ लोग हैं जो आपातकाल की बात करने से आज भी कतराते हैं, लेकिन अगर साहस दिखाकर उनका पक्ष भी रखा जाता तो और अच्छा होता। एक सत्य घटना के संदंर्भ में और छद्म नामों के साथ उसके नाटकीय रूपांतरण के रूप में यहां शुजीत सरकार के निर्देशन में बनी 2013 में आयी फिल्म ‘मद्रास कैफे’ एक सनसनीखेज राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाती फिल्म थी। यहां उसका उल्लेख करना थोड़ा जरूरी लग रहा है। यह फिल्म तब आयी थी जब शुजीत सरकार और ‘मद्रास कैफे’ के निर्माता अभिनेता जॉन अब्राहम अपनी पिछली फिल्म ‘विक्की डोनर’ की सफतला की खुशियां मना रहे थे और उनके कई प्रोजेक्ट घोषित हो चुके थे। बावजूद इसके उन्होंने तेज तर्रार अंदाज में ‘मद्रास कैफे’ का निर्माण किया। इन दोनों फिल्मकारों के पास ऐसी फिल्म को प्रकाश में न लाने के दस कारण थे।
‘मद्रास कैफे’ 1980 से 1990 के कालखंड पर थी, जिस दौर में श्रीलंका गृह युद्घ से जूझ रहा था और जिसकी काली छाया भारत पर भी पड़ रही थी, या कहिये कि भारत के रातनीतिक और आंतरिक परिदृश्य को भी प्रभावित कर रही थी। इस फिल्म में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के प्रसंग को भी बखूबी दिखाया गया था। यह सब बेबाक अंदाज में न होते हुए भी काफी प्रभावशाली ढंग से पेश किया गया था, जिससे दर्शक न केवल बंधा रहता है, बल्कि अपने घर एक अच्छी और सच्ची पालिटिकल थ्रिलर फिल्म की यादों के साथ जाता है। ‘मद्रास कैफे’ ने न केवल फिल्म समीक्षकों से वाहवाही लूटी, बल्कि भारतीय बाक्स आॅफिस पर 70 करोड़ रुपये से भी अधिक की कमाई की। अन्य स्रोतों से हुई कमाई से भी फिल्म को फायदा पहुंचा। मोटे तौर पर दर्शकों ने फिल्म को इसकी प्रस्तुति, माहौल, कहानी, अंदाज और बेबाकी के लिए सराहा। सत्य घटनाक्रमों पर आधारित यह फिल्म एक सुखद याद के रूप में याद रखी जानी चाहिये।
इसमें दो राय नहीं कि मधुर भंडारकर में क्षमता है। वह ‘पेज थ्री’ और ‘चांदनी बार’ जैसी फिल्म में बना चुके हैं। वे जानते हैं कि मौजूदा विषयों को कैसे एक मनोरंजक कहानी का रूप दिया जा सकता है और उसे दर्शकों के बीच प्रसिद्ध भी किया जा सकता है। मुद्दों को उठाने और ढंग से पेश करने से ही उनकी आज यह पहचान बनी है। लेकिन अगर ‘इंदु सरकार’ के साथ वह और न्याय कर पाते तो ये पीढ़ी उन्हें आगे याद रखती, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी आपातकाल के उस दौर के बारे में सुनती तो बहुत कुछ है, लेकिन बड़े परदे पर उसे देखना भी चाहती है। पता नहीं अब अगली बार उस दौर पर कोई सच्ची फिल्म बनाने का बीड़ा कौन उठाएगा? ल्ल
टिप्पणियाँ