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समाजवादी पार्टी की सरकार ने टीईटी व्यवस्था और एनसीटीई के नियमों की अनदेखी कर बड़ी संख्या में शिक्षामित्रों को समायोजित कर सहायक अध्यापक बना दिया था। लेकिन यह मामला अदालती लड़ाई में फंस गया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद वे फिर से मानदेय पर आ गए हैं
सुनील राय
उत्तर प्रदेश में बीते तीन वर्ष में शिक्षामित्र सहायक अध्यापक बने और अब फिर से शिक्षामित्र बन कर स्कूलों में पढ़ाने के लिए लौट गए हैं। इस आश्वासन के साथ कि सरकार उनके साथ पूरी सहानभूति दिखाएगी। पौने दो लाख शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक बनाने के फैसले को पहले इलाहाबाद सर्वोच्च न्यायालय ने गलत ठहराया और अब उच्चतम न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद पूरे प्रदेश में शिक्षामित्र सड़कों पर उतर आए, लेकिन राज्य सरकार ने काफी सोच-विचार के बाद यह तय किया कि वह अब इस मामले को में फिर से शीर्ष अदालत में नहीं ले जाएगी। बेसिक शिक्षा के अपर मुख्य सचिव से वार्ता विफल होने के बाद आंदोलनकारी शिक्षामित्रों की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ बैठक हुई और उन्होंने दो हफ्ते के लिए आंदोलन वापस ले लिया।
सरकार इस मसले को लेकर पूरी तरह संवेदनशील है। इसका समाधान निकाला जाएगा। लेकिन तब तक शिक्षामित्र स्कूलों में शिक्षण कार्य पर ध्यान दें।
—अनुपमा जायसवाल , बेसिक शिक्षा मंत्री
मुख्यमंत्री ने मुलाकात करने पहुंचे शिक्षामित्रों के प्रतिनिधिमंडल से साफ शब्दों में कहा कि अगर शिक्षामित्र, हिंसा और उपद्रव का मार्ग अपनाएंगे तो सरकार की सहानभूति से वंचित हो जाएंगे। सरकार के साथ वार्ता और आंदोलन साथ-साथ नहीं चल सकते। हालांकि मुख्यमंत्री ने उन्हें भरोसा दिलाया कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ध्यान में रखते हुए हर संभव मदद की जाएगी। साथ ही, कहा कि शीर्ष अदालत के फैसले के अनुसार सरकार शिक्षामित्रों को टीईटी (शिक्षक पात्रता परीक्षा) पास करने का मौका देगी। इस दौरान उन्हें हर माह मानदेय भी दिया जाएगा।
नियम के विरुद्ध समायोजन
गौरतलब है कि शिक्षामित्रों को मानदेय पर शिक्षण कार्य के लिए रखा गया था। पूर्ववर्ती समाजवादी पार्टी सरकार ने 2014 में 1.75 लाख शिक्षामित्रों को सहायक शिक्षक के पद पर समायोजित करने का फैसला लिया था, जबकि वे टीईटी उत्तीर्ण नहीं थे। इसके बावजूद इनमें से 1.37 लाख शिक्षामित्रों को समायोजित कर सहायक शिक्षक बना दिया गया। शेष शिक्षामित्रों के समायोजन की प्रक्रिया भी शुरू हो गई थी। इसी बीच, टीईटी पास अभ्यर्थियों ने सरकार के इस फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी और कानूनी लड़ाई शुरू हो गई।
याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने शिक्षामित्रों के समायोजन के सरकार के फैसले को गलत करार दे दिया। उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ समाजवादी पार्टी सरकार उच्चतम न्यायालय चली गई। उस समय तत्कालीन कैबिनेट मंत्री आजम खां का कहना था, ‘‘पौने दो लाख शिक्षामित्र वर्षों से शिक्षण कार्य में लगे हुए हैं, इसलिए उन्हें सहायक अध्यापक के पद पर समायोजित किया गया था। बहुत बड़ी संख्या में लोगो को रोजगार मिला हुआ है, लिहाजा सरकार ने उच्चतम न्यायालय जाने का फैसला लिया।’’
राज्य सरकार की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले पर स्थगनादेश दे दिया। अब मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद शीर्ष अदालत ने भी समायोजन के फैसले को गलत करार दे दिया है। हालांकि, अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने शिक्षामित्रों को थोड़ी राहत भी दी है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि अच्छी शिक्षा के लिए योग्य शिक्षकों की बहुत आवश्यकता है। अगर शिक्षामित्र टीईटी उत्तीर्ण होते हैं तो आने वाली दो चयन प्रक्रियाओं में उन पर विचार किया जाना चाहिए। राज्य सरकार चाहे तो समायोजन के पहले की स्थिति को बरकरार रख सकती है।
वोट बैंक की राजनीति
दरअसल, समाजवादी पार्टी की सरकार ने वोट बैंक के लिए शिक्षामित्रों का इस्तेमाल किया। नियमों को ताक पर रखकर उन्हें समायोजित कर दिया गया। जिस समय शिक्षामित्रों का समायोजन किया गया था, उस समय राज्य में टीईटी व्यवस्था लागू हो चुकी थी। समायोजन के फैसले के पीछे सरकार की यह सोच थी कि इस कदम से लोकप्रियता हासिल की जा सकती है और इसे चुनाव में भी भुनाया जा सकता है। हालांकि वोट बैंक की इस राजनीति से समाजवादी पार्टी की सरकार को कोई फायदा तो नहीं हुआ, लेकिन इसने वर्षों से मानदेय पर पढ़ा रहे शिक्षामित्रों में असंतोष जरूर पैदा कर दिया।
लिहाजा अपनी मांगों को लेकर उन्हें सड़क पर तो उतरना पड़ा ही, अदालतों के भी चक्कर लगाने पड़े। फिर भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। अभी तक शिक्षामित्र अपना मानदेय बढ़ाने की ही मांग किया करते थे। उन्होंने सहायक अध्यापक बनने के बारे में दूर-दूर तक सोचा भी नहीं था। लेकिन समाजवादी सरकार ने उन्हें इस पद तक पहुंचा कर उनकी विधिवत दुर्गति कराई।
फिर से मानदेय पर
उत्तर प्रदेश में 2014 तक शिक्षामित्रों को 3,500 रुपये प्रतिमाह मानदेय दिया जाता था और इनकी नौकरी भी स्थायी नहीं थी। समायोजन के बाद से ये सहायक अध्यापक तो बन गए, लेकिन उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद अब फिर से उसी जगह पहुंच गए, जहां से चले थे। हालांकि शीर्ष अदालत के फैसले के बाद मौजूदा भाजपा सरकार ने आश्वासन दिया है कि ये लोग शिक्षामित्र बने रहेंगे। जिस समय शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक के पद पर समायोजित किया जा रहा था, उस समय भी नियम स्पष्ट था। इसके मुताबिक, प्रशिक्षित शिक्षक ही स्कूलों में पहली से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ा सकता है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् (एनसीटीई) ने शिक्षकों के लिए जो मानक तय किए हैं। उनके अनुसार शिक्षक बनने के लिए प्रशिक्षित स्नातक का टीईटी उत्तीर्ण होना अनिवार्य है। लेकिन इस नियम की अनदेखी कर शिक्षामित्रों को छूट दी गई। इसके तहत दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के तहत उन्हें प्रशिक्षण दिलाया गया और फिर शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक के पद पर समायोजित कर
दिया गया।
सरकार से मांग
सरकार के साथ बातचीत के बाद शिक्षामित्रों ने अपना आंदोलन फिलहाल दो सप्ताह के लिए टाल दिया है। वे सरकार से सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करने की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा, राज्य सरकार उनके समायोजन के लिए विधानसभा में नया अधिनियम पारित कराए और जब तक शिक्षामित्र टीईटी उत्तीर्ण नहीं हो जाते, तब तक उन्हें सहायक अध्यापक के वेतन के बराबर धनराशि मानदेय के तौर पर दिया जाए। साथ ही, उन्होंने धरना-प्रदर्शन के दौरान होने वाले नुकसान के लिए भी सरकार से मुआवजे की मांग की है।
शिक्षामित्रों की मांगों पर विचार करते हुए राज्य की बेसिक शिक्षा मंत्री अनुपमा जायसवाल ने कहा कि सरकार इस मसले को लेकर पूरी तरह संवेदनशील है। इसका समाधान निकाला जाएगा। लेकिन तब तक शिक्षामित्र स्कूलों में शिक्षण कार्य पर ध्यान दें।
बहरहाल न्यायालय के इस फैसले ने उस राजनीति को बेपर्दा जरूर कर दिया जिसने लाखों युवाओं को ‘सपने’ तो जगाए लेकिन प्रतिभा के निष्पक्ष चयन की हिम्मत नहीं जुटा सकी। युवा उस भूल का दंश झेल रहे हैं। यकीनन यह दर्द गहरा है। ल्ल
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