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अपनी अनठी पारिस्थितिकी के कारण काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। ब्रह्मपुत्र नदी से उद्यान के पोखरों-तालाबों को हमेशा पानी मिलता रहता है, लेकिन हर साल आने वाली बाढ़ यहां रहने वाले असंख्य वन्यजीवों के लिए मुसीबतों के साथ मौत भी लेकर आती है
निधि सिंह
ब्रह्मपुत्र उत्तर-पूर्वी भारत की विशाल और सबसे बड़ी नदी है। अरुणाचल के पहाड़ों से जब यह असम के मैदानी इलाकों में उतरती है तो इसके किनारों को एकसाथ देख पाना संभव नहीं रहता। जोरहाट से उतरते ही ब्रह्मपुत्र के दक्षिण में 430 वर्ग किलोमीटर में फैला एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र है, जिसे काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। इसे 1974 में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला और 1985 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर घोषित कर दिया।
इस राष्ट्रीय उद्यान की पहचान एक सींग वाले गैंडे की वजह से है। इस उद्यान में गैंड़ों की संख्या करीब 2400 है। खास बात यह है कि इस उद्यान में दुनिया के 70 फीसदी एशियाई जल भैंसें (वाटर बफैलो) भी पाई जाती हैं। साथ ही, काजीरंगा उद्यान में करीब 1,000 हाथी और हिरणों की संख्या 800 के आसपास है। इसके अलावा, यहां पक्षियों की 450 प्रजातियां हैं जो बील (पोखर-तालाबों का स्थानीय नाम) और घास के मैदानों में पाई जाती हैं। इनमें 18 प्रजातियां ऐसी हैं जो दुनिया में दुर्लभ हैं।
अपनी पारिस्थितिकी के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में वन्यजीवों की संख्या अधिक होने के पीछे मुख्य वजह है यहां की बेहतर संरक्षण योजनाएं। काजीरंगा की एक विशेषता यह भी है कि इस इलाके में बहने वाली ब्रह्मपुत्र की दो सहायक नदियां मोरा धन्सरी और दिफ्लू हर साल इस उद्यान में ब्रह्मपुत्र का पानी लाती हैं। उद्यान में 92 स्थायी और 250 मौसमी पोखरों और तालाबों का जाल है जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मानसून के दौरान सहायक नदियां, जो पानी लाती हैं, उससे इन पोखरों-तालाबों की सफाई भी हो जाती है और इन्हें लबालब भर भी देती हैं। इसलिए यहां पानी की कभी किल्लत नहीं होती। इसके अलावा, उद्यान के उत्तर में बहने वाली ब्रह्मपुत्र हर साल अपने साथ मछलियां भी लाती हैं।
हर साल डूब जाता है दो तिहाई हिस्सा
एक तरफ तो बाढ़ काजीरंगा के लिए वरदान साबित होती है, लेकिन दूसरी तरफ यह अभिशाप भी है। मानसून के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी में जब बाढ़ आती है तो उद्यान का 70-80 फीसदी हिस्सा हर साल डूब जाता है। उद्यान के तीन हिस्सों में 10-12 फीट तक पानी भर जाता है। हालांकि उद्यान में 12 फीट ऊंचे 178 शिविर हैं, जहां से वन विभाग के कर्मचारी सालभर वन्यजीवों की निगरानी करते हैं। लेकिन ज्यादा बारिश होने पर ये शिविर भी डूब जाते हैं या बह जाते हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां साल में दो बार बाढ़ आते हैं। असम में 1998 में जो बाढ़ आई थी, वह बहुत विनाशकारी थी। उस समय काजीरंगा में बड़े पैमाने पर तबाही मची थी, जिसमें 652 जानवरों की मौत हो गई थी। इनमें एक सींग वाले 42 दुर्लभ गैंडे भी थे। इसके बाद 2004 और 2012 में भी ऐसी ही बाढ़ आई। 2012 में एक बार जून-जुलाई में बाढ़ आई और जब तक हालात कुछ संभलते, अगस्त में फिर बाढ़ आ गई। उस समय संजीब बोरा काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के निदेशक थे। बोरा अभी मुख्य वन संरक्षक हैं। वह कहते हैं, ‘‘बाढ़ के दौरान सबसे ज्यादा खतरा छोटे, वृद्ध एवं शारीरिक रूप से कमजोर जानवरों को होता है। ये तेज बहाव का सामना नहीं कर पाते हैं। हालांकि हाथी और गैंडे अच्छे तैराक होते हैं, लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी के तेज बहाव के आगे ये भारी-भरकम जानवर भी नहीं टिक पाते हैं। पिछले साल बाढ़ में एक हाथी बह कर बांग्लादेश चला गया था। काफी कोशिशों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। दोनों ओर के अधिकारियों को इसका दुख था।’’
‘हाईलैंड्स’ की ऊंचाई बढ़ेगी
पश्चिम से पूर्व की ओर ब्रह्मपुत्र के इस उग्र बहाव से बचने के लिए उद्यान प्रशासन ने 111 हाईलैंड बनाएं हैं, जो औसतन 5-6 एकड़ के फैले हुए हैं। कई जगहों पर इन हाईलैंड्स का दायरा 12 हेक्टेयर तक भी है और ऊंचाई 12 फीट है। एक हाईलैंड पर औसतन 50 विशाल जानवर आसानी से रह सकते हैं। लेकिन बदली हुई परिस्थिति में सामान्यतया जलस्तर 12 फीट से अधिक ही रहता है। इस साल बाढ़ की स्थिति को देखते हुए उद्यान प्रशासन ने हाईलैंड्स की ऊंचाई 12 फीट से बढ़ाकर 16 फीट करने का निर्णय लिया है। संजीब बोरा कहते हैं, ‘‘बाढ़ के दौरान इन हाईलैंड्स पर आपको एक साथ कई तरह के जानवर दिख सकते हैं। हाथी, गैंडे, हिरण, सांप, गोह मुश्किल घड़ी में एक साथ रहते हैं।’’
जानवरों पर चौतरफा मार
काजीरंगा में बाढ़ के समय तो जानवरों की मौत होती ही है, इसके दक्षिण में स्थित राष्ट्रीय राजमार्ग भी जानवरों को अपना निवाला बना रहा है। सड़क पार करने के दौरान कई जानवर वाहनों के चपेट में आकर मर रहे हैं। संजीब बोरा के शब्दों में, ‘‘जंगल में तो ‘समर्थ ही बचेगा’ वाला नियम चलता है। इस कारण जानवर अपनी स्मरण शक्ति और ज्ञान से अपना बचाव कर लेते हैं। यह अलग बात है कि बाढ़ के बाद कुछ जानवरों को बीमारियों का भी सामना करना पड़ता है। कई बार बाढ़ से बचने के लिए गोह, सांप जैसे सरीसृप जीव पेड़ों पर चढ़ जाते हैं, जबकि कुछ आबादी का रुख करते हैं और लोगों के घरों में आश्रय लेते हैं। लोग इन्हें देखकर भयभीत हो जाते हैं और इनकी हत्या कर देते हैं।’’ इनसानों और जंगली जानवरों के बीच बढ़ते संघर्ष पर वर्षों से काम कर रहे शिमंतो गोस्वामी का कहना है कि उद्यान के लिए सबसे खतरनाक स्थिति इसके अंदरूनी हिस्से में इनसानों की बसावट है। उद्यान के अंदर बसे गांव जानवरों के लिए हमेशा खतरा बने रहते हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय राजमार्ग 37 तथा पर्यटन को प्रोत्साहन देने के लिए बने गेस्ट हाउस, होटल भी इनके लिए खतरा हैं। पूरे इलाके की बड़ी आबादी इसी राजमार्ग पर आश्रित है। हालांकि बाढ़ के दौरान उद्यान प्रबंधन पुलिस की मदद से इस राजमार्ग पर होने वाली आवाजाही को नियंत्रण में रखती है।
अधिकारियों की बड़ी चुनौती
बाढ़ के दौरान काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के सुरक्षा दायरे से निकल कर जब हजारों वन्यजीव कार्बी आंगलोंग के खुले और असुरक्षित इलाके में पहुंचते हैं तब उद्यन के 1100 अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए हालात नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। प्राकृतिक आपदा से बचने के लिए ऊंची पहाड़ियों पर शरण लेने वाले ये वन्यजीव स्थानीय जनजातीयों के निशाने पर आ जाते हैं। ये जनजातियां खासकर हिरणों का शिकार करते हैं और वन विभाग के कर्मचारी चाह कर भी उन्हें शिकार करने से रोक नहीं पाते।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की खासियत इसके पारिस्थितिक तंत्र के कारण हैं। यहां रहने वाले असंख्य वन्यजीव इसी पर आश्रित हैं। ब्रह्मपुत्र नदी इसके लिए जीवनदायिनी है तो वही इसके लिए काल भी है, जो हर साल अपना विकराल रूप दिखाती है। जब तक इस उद्यान का पारिस्थितिक तंत्र कायम रहेगा, तभी तक यह वन्यजीवों का घर रहेगा। इसलिए जरूरी है कि इस क्षेत्र में इनसानों का दखल नियंत्रित किया जाए। की। ल्ल
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