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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा।
विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढ़िए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
अपनों की नाराजगी बेहद पीड़ादायक होती है जो इनसान को काफी हद तक कमजोर कर देती है। कई दिनों से लिखने की कोशिश कर रही थी, आखिरकार आज सफलता मिल ही गई। आज सुबह-सुबह सोच रही थी कि लोग किसी काम को करने से पहले इतना डराते क्यों हैं? फिर फिल्म ‘दंगल’ की याद आ गई। इसका एक डायलॉग है- ‘‘जहां डर है, वहीं जीत है।’’ सिनेमा के पात्र असल जीवन से प्रेरित होते हैं, यह बात सभी जानते हैं। लेकिन कई बार ये पात्र हमें असलियत से भी रू-ब-रू करवा देते हैं। इस फिल्म का एक दृश्य जो मेरे जेहन में बैठ गया, मैं उसे ही साझा कर रही हूं।
बचपन से जिस पिता की तालीम और प्रशिक्षण के भरोसे कहानी की मुख्य किरदार पहलवान गीता नेशनल चैंपियन बनती है, वही नए इंस्टीट्यूट में जाकर पिता की ‘ट्रिक’ पर सवाल खड़े कर देती है। इतना ही नहीं, उन्हें गलत साबित करने के लिए वह दंगल में उतरती है और पिता को पटखनी देकर मुकाबला भी जीत लेती है। बूढ़े हो चुके पहलवान पिता दंगल के उस मुकाबले के दौरान कितनी तकलीफ में होते हैं, उसे बाजू में खड़ी उसकी छोटी बहन देखती और महसूस करती है। इस घटना के बाद पिता और बेटी के बीच दूरियां बढ़ती चली जाती हैं। लेकिन जिस छोटी बहन ने यह सब देखा और महसूस किया, वह बड़ी बहन से कहती है— ‘‘तुमने ठीक नहीं किया दीदी।’’ उसके बाद बड़ी बहन हर मुकाबले में हारती है, जब तक कि उसे पिता का सान्निध्य नहीं मिलता।
मेरा भी हाल कुछ ऐसा ही है। जिस पिता ने तालीम दी, इतना भरोसा किया, आज उन्हीं से लड़ बैठी। मैं उन्हें हर पल चोट पहुंचा रही हूं। यह भी नहीं जानती कि क्यों लड़ी? किस मंजिल को पाने के लिए उनसे लड़ी? कभी-कभी खुद को बहुत समझदार दिखाने की कोशिश करती हूं, पर सही मायने में एकदम मूर्ख हूं। आज तक यह तय नहीं कर पाई कि आखिर किस दिशा में आगे बढ़ना है। जीवन का लक्ष्य क्या है? मैं सबसे लड़कर क्या हासिल करना चाहती हूं? किस सुकून की तलाश में इतने वर्षों से भटक रही हूं? कब तक अपने आप से भागती रहूंगी?
कल लोकेश ने भी झल्लाते हुए मुझसे पूछा- ‘‘आखिर ये सब क्यों कर रही हो? क्या हासिल करना चाहती हो?’’ मेरे पास जवाब नहीं था। केवल इतना ही बोल सकी, ‘‘मेरा फैसला है। बाकी कुछ नहीं जानती।’’ वाकई दिशाहीन पथिक जीवन भर भटकता रहता है। मैं भी सही मायने में दिशाहीन हो गई हूं। जब खुद नहीं समझ पा रही तो लोगों को क्या और क्यों समझाना चाहती हूं?
मेरे साथ फिल्म देखने दोनों छोटी बहनें आशा और यशोदा भी गई थीं। फिल्म देखकर जब हम घर लौटे तो आशा ने कहा, ‘‘फिल्म का वह दृश्य याद है न! तुम भी पापा के साथ ऐसा ही कर रही हो। देखना, तुम रोते हुए फिर वापस आओगी, लेकिन तब तक देर न हो जाए।’’ उसके शब्द वाकई चुभते चले गए। एक पल के लिए लगा कि छोटी होकर भी वह सबकुछ समझ रही है, फिर मैं क्यों नहीं समझ पा रही हूं? लोकेश ने मुझसे बात करने के बाद फोन काटते समय एक और बात कही थी। वह स्नेह से मुझे रानू बुलाता है। उसने मुझसे कहा, ‘‘रानू, तुम अपने जीवन में केवल एक काम ईमानदारी से करती हो, वह है तुम्हारा पेशेवर काम। बाकी हर जगह तुम बेईमान हो। तुम्हारी बेईमानी अब नजर आ रही है। तुमने उन सभी लोगों को गलत साबित कर दिया जो तुम पर भरोसा करते हैं, तुमसे प्यार करते हैं। तुम आज बिल्कुल अकेली हो और जीवन भर अकेली रहोगी।’’ अफसोस! इसके आगे शब्द ही नहीं बचे लिखने के लिए। ल्ल
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