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‘तीन लोक से न्यारी काशी’ में बाबा विश्वनाथ और पतित पावनी गंगा से ऊर्जित नगरी में आज ऐसे कई उद्योग अपने नए रूप में फल-फूल रहे हैं जिनकी जड़ें सैकड़ों वर्ष पुरानी हैं। वक्त के साथ इन उद्योगों ने अपने यंत्र और तंत्र भले बदल लिए हों, लेकिन इनकी खास पहचान आज भी कायम है
अश्वनी मिश्र,वाराणसी से लौटकर
समय रहा होगा सुबह के 7 बजकर 30 मिनट। हम वरुणा और असी नदियों के बीच गंगा किनारे बसे उस वाराणसी शहर में थे, जिसके बारे में मान्यता है कि वह विश्व की प्राचीनतम नगरियों में से एक है। अर्ध चंद्राकार रूप में बसा यह शहर उल्लास से सराबोर रहता है। मां अन्नपूर्णा और बाबा विश्वनाथ यहां साक्षात् विराजमान हैं। इसी काशी में बुद्ध की उपदेश स्थली है तो कई तीर्थंकरों की जन्मस्थली भी। धर्मग्रंथों में वाराणसी के तीन अन्य नामों का उल्लेख मिलता है—अविमुक्त, आनंद-कानन और महाश्मशान। बौद्ध धर्म से जुड़ी जातक कथाओं में काशी का जिक्र समृद्ध राज्य के तौर पर आता है। वाराणसी सदैव से विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। महात्मा बुद्ध से लेकर आदि शंकराचार्य के अलावा रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, संत रैदास इसी काशी में रहे हैं। तो वहीं प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे बड़े-बड़े साहित्यकारों ने भी यहां रहकर साहित्य की गंगा बहाई है। यह वही काशी है जहां महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके देश ही नहीं, विश्व में भारतीयता का ध्वज फहराया। तो इसी काशी का नाम बनारसी वस्त्र उद्योग व अन्य परंपरागत उद्योगों के लिए के लिये भी सदियों से जाना जाता रहा है। बनारस में वस्त्रोद्योग का उल्लेख 600 ई़ पू़ से मिलता है। यह शहर अपने किमखाब यानी रेशमी वस्त्रों की बुनाई और सिल्क के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध रहा। इसके अलावा यह हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का केन्द्र भी है। यह शहर रेशम, सोने व चांदी के तारों वाले जरी के काम, कांच की चूड़ियों, हाथी दांत और पीतल के काम के लिए भी प्रसिद्ध है। इसके अलावा यहां के लकड़ी के खिलौने दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जातक कथाओं में तो वाराणसी में गजदंत यानी हाथी दांत की कलाकृतियां भी बनाने और बेचने का उल्लेख मिलता है।
साड़ी उद्योग
1,500 करोड़ रु.
सालाना कारोबार
वाराणसी में आज करीब 29,000 हथकरघे कार्यरत हैं जहां से बनी साड़ियों को आज किसी ब्रांड या पहचान की जरूरत नहीं है। देश ही नहीं, विदेशों तक में इसकी मांग रहती है। भारत में आज भी विवाह के समय दुलहन के वस्त्रों में बनारसी साड़ी शगुन के रूप में शुभ मानी जाती है। समय दर समय उद्योग में उतार-चढ़ाव भी आए पर बनारसी साड़ियों की साख जस की तस रही। 2009 में बनारसी साड़ियों का जी.आई. (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) पंजीकरण हुआ, जिसके बाद से इस कारोबार में अनूठा बदलाव आया। आज 1,500 करोड़ रु. के सालाना कारोबार वाले इस उद्योग से करीब 6-7 लाख लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। भदोही, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, मिर्जापुर और संत रविदास नगर जिले की सीमाओं से जुड़े काशी में इस उद्योग से जुड़े ऐसे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे जिनकी कई-कई पीढ़ियां इसे अपना जीवन समर्पित करके आगे बढ़ा रही हैं। बीच-बीच में कठिन दौर भी आए लेकिन इन्होंने अपनी परंपरा को नहीं छोड़ा और अनवरत इसमें जुटे हुए हैं और आज बाजार में न केवल उनकी साख है बल्कि उनका करोड़ों का कारोबार है।
90 वर्षीय जगन्नाथ प्रसाद ऐसे ही लोगों में गिने जाते हैं। अगर आप बनारस में साड़ी के किसी जानकार से पूछे कि एकदम गुणवत्तापूर्ण बनारसी साड़ी कहां मिलती है तो उसके मुंह से सबसे पहले रामनगर के जगन्नाथ प्रसाद का नाम उभर कर सामने आता है। अपनी विश्वसीनयता और 100 फीसद गुणवत्ता की बदौलत काशी क्षेत्र के लोग उन्हें ‘हैंडलूम का भीष्म पितामह’ पुकारते हैं। महज 12 वर्ष की अवस्था से बुनकरी के काम को करने वाले जगन्नाथ की छठवीं पीढ़ी इस कारोबार से जुड़ी है। उन्होंने अपनी लगन और विश्वसनीयता के दम पर न केवल बाजार में साख स्थापित की है बल्कि उनका 3 से 4 करोड़ रु. का कारोबार है। वे आज भी ताना-बाना खरीदने से लेकर साड़ी बनने तक एक शिक्षक की भांति पूरी निगरानी रखते हैं। अपनी गद्दी पर सुबह 7 बजे पहुंच जाना उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा है। अपनी आंखों के सामने वे साड़ी को बनते हुए न केवल देखते हैं बल्कि कोई कारीगर डिजाइन में कुछ गलत करता है तो उसे खुद बनाकर सिखाते हैं। बड़ी बात यह है कि वे अपनी फर्म—आदर्श शिल्क बुनकर सहकारी समिति लिमिटेड के जरिये करीब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 400 लोगों को रोजगार देने का काम कर रहे हैं। आज जब बुनकरी का काम अधिकांशत: मशीनों से हो रहा है, ऐसे में जगन्नाथ प्रसाद आज भी अपने कारखाने में हाथों से ही साड़ियों को बनवाते हैं।
भले ही वयोवृद्ध जगन्नाथ प्रसाद की सुनने की शक्ति कमजोर हो गई है लेकिन इससे न उनके उत्साह पर कोई असर पड़ा है, न ही उनके काम पर। वे साड़ी उद्योग के बारे में बताते हैं, ‘‘मैं बचपन से ही बुनकरी के काम से जुड़ा हूं। तो मुझे साड़ी से जुड़ी हर छोटी से छोटी चीज पता हैं। इसलिए मैं खुद बाजार से अभी भी धागा लेने जाता हूं और उसके बाद साड़ी बनने तक पूरी नजर रखता हूं। क्योंकि मुझे लगता है कि जो भी हो, उम्दा हो और ग्राहक को बिल्कुल शिकायत का मौका न मिले।’’
वे बनारसी साड़ियों की खूबी बताते हुए कहते हैं, ‘‘हां, आज मशीनी युग में भी मैं हथकरघे से ही साड़ियां बनाता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि हाथ की बनी साड़ी और मशीन की बनी साड़ी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। हाथ की बनी साड़ी की बात ही कुछ और है। यहां जो कढ़ाई का काम होता है, वह काशी के अलावा आपको भारत में और कहीं नहीं मिलेगा। यही वजह रही कि महारानी बड़ौदा व अन्य रियासतों की रानियों की साड़ियां मेरे यहां से बनकर जाती थीं। आज भी बिरला जी के परिवार, औद्योगिक घरानों, राजनीतिक दलों, फिल्म से जुड़े लोगों के परिवारों के लिए हम साड़ियां बनाकर देते हैं और उन्हें पसंद आती हैं।’’ साड़ी उद्योग की तरक्की के बारे में वे सलाह देते हुए कहते हैं कि बुनकरों के लिए अधिक से अधिक सेवा केन्द्र खोले जाएं, जहां उन्हें हर छोटी-बड़ी चीज की जानकारी मिले। साथ ही इस क्षेत्र में शोध की भी आवश्यकता है। कारीगरों को सुविधाएं मिलें, ताना-बाना सस्ता मिले। उनके छह बेटे हैं और सभी इस उद्योग में लगकर अपनी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। उनके दूसरे बेटे विजय कुमार बताते हैं, ‘‘कुछ लोग कहते रहते हैं कि बनारस की साड़ियों का उद्योग मंदा हो रहा है। मैं इस बात को बिलकुल नहीं मानता। मैं भी बचपन से इस क्षेत्र से जुड़ा हूं। इसलिए मुझे लगता है कि जो लोग इस तरह की बातें करते हैं, वे गलत है। दरअसल अगर माल गुणवत्तापूर्ण है तो आपकी पूछ सदा रहेगी। मैं 10,000 से लेकर 1 लाख रु. तक की साड़ियां को बेचता हूं। बाजार के लोग जानते हैं कि उत्कृष्ट बनारसी साड़ी कहां मिलेगी, वे हमारे ही पास आते हैं। जैसे फूलों की सुगंध स्वत: फैलती है, उसे फैलाना नहीं पड़ता वैसे ही अपने माल की अच्छाई बतानी नहीं पड़ती, वह खुद पता चल जाती है। यही कारण है कि हम अपने परिवार के साथ करीब 400 लोगों को रोजगार दे पा रहे हैं। यह तभी संभव है जब उद्योग चल रहा है, अगर न चलता होता तो हम बुनकरों को क्या देते?’’
गौरतलब है कि बुनकरों द्वारा एक उत्कृष्ट साड़ी बनाने में 1 से 3 महीने का समय लगता है, जिसमें 2 कारीगर लगते हैं। इनके द्वारा सिल्क, कॉटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तन्छुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीताबंरी, श्वेताम्बरी और रक्ताम्बरी साड़ियां बनाने का काम किया जाता है, जो यहां की पहचान हैं।
सारनाथ के पास छार्इं गांव के रहने वाले 56 वर्षीय बच्चा लाल मौर्या पेशे से बुनकर हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए 3 अंग वस्त्र तैयार किए, जिन्हें काशी में विभिन्न कार्यक्रमों में भेंट किया जा चुका है। जिन पर कबीर का भजन—झीनी-झीनी बीनी चदरिया, महात्मा गांधी का भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ और ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि’ की कढ़ाई का काम था। मास्टर बुनकर बच्चा लाल आॅल इंडिया हैंडलूम बोर्ड के सदस्य भी हैं और उनकी चौथी पीढ़ी इस कार्य को कर रही है। वे कहते हैं,‘‘प्रधानमंत्री मोदी के कारण अब यहां के कपड़ा उद्योग और बुनकरों के दिन बदलने लगे हैं। आने वाले दिनों में और तेजी के साथ इसमें बदलाव आएगा। हम लोग बड़ा सपना देख रहे हैं।’’ वे कहते हैं,‘‘अगर साड़ी की गुणवत्ता ठीक है तो इस धंधे में कभी भी मंदी नहीं आने वाली। अब अगर आप गुणवत्ता से समझौता कर लेंगे तो मंदी को कौन रोक सकता है। आप बनारसी साड़ियों के नाम पर नकली साड़ियों को देकर ग्राहकों को धोखा देंगे तो उससे पूरे उद्योग पर प्रभाव पड़ता है और ग्राहक के साथ यह विश्वासघात होता है। जब से केन्द्र में मोदी सरकार आई है तब से इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव आया है। उन्होंने हैंडलूम को जिंदा कर दिया है। क्योंकि उनका सपना इसे जमीन से आसमान पर ले जाने का है।’’ ’’
हजारों परिवारों का पुश्तैनी धंधा
रामनगर, मदनपुरा, बजरडीहा, रेवड़ीतालाब, सोनारपुरा, शिवाला, पीलीकोठी, सरैया, लोहता, बड़ी बाजार जैसे इलाके साड़ी की बुनकरी के लिए ही जाने जाते हैं। यहां ज्यादातर परिवारों का यही पुश्तैनी धंधा है। बच्चों से लेकर बड़ों और घर की महिलाएं तक इसी काम को करती हैं। यह इनकी कारीगरी का ही कमाल है कि यहां से बनी साड़ियों की मांग देश ही नहीं, विदेशों तक में है। श्रीलंका, स्विट्जरलैंड, आॅस्ट्रेलिया, मॉरीशस, अमेरिका और कनाडा तक में यहां की साड़ियां जाती हैं।
बहुरने लगे दिन
हाल के कुछ साल में बुनकरों के लिए तमाम नई योजनाएं शुरू की गई हैं। जब से प्रधानमंत्री मोदी का इस शहर से जुड़ाव हुआ, तब से बुनकर भी मानते हैं कि उनकी पूछ-परख ही नहीं बढ़ी है बल्कि अनेक योजनाओं के माध्यम से उनके जीवन स्तर को सुधारने की पहल हो रही है। अपने संसदीय क्षेत्र में 7 नवम्बर, 2014 को पहले दौरे पर आये प्रधानमंत्री ने बड़लालपुर में 225 करोड़ रुपये की लागत से व्यापार सुविधा केंद्र और क्राफ्ट म्युजियम की आधारशिला रखी। इसके अलावा 32 करोड़ रु. की लागत से 25,000 हस्तशिल्पियों के लिए स्पेशल हैंडीक्राफ्ट मेगा क्लस्टर, बुनकरों के लिए 9 साझा सुविधा केन्द्र एवं 9 ब्लॉक स्तरीय क्लस्टर शुरू कराए। छह करोड़ रु. की लागत से निफ्ट की शाखा खोली गई तो वहीं रिजनल सिल्क टेक्नोलॉजिकल रिसर्च स्टेशन की स्थापना से सर्वांगीण विकास योजना शुरू की गई हंै।
कहां हैं खामियां
1974 में शिवरामन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी गयी थी। उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि एक पॉवरलूम मशीन लगने से 24 हैंडलूम बुनकर बेरोजगार हो जाते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए 1981, 1985 और 1991 के उदारीकरण के दौर में विभिन्न कपड़ा नीति सामने आयीं लेकिन इससे कोई व्यापक परिणाम नहीं निकल पाया। संप्रग सरकार में भी बुनकरों और परंपरागत उद्योग की हालत में कुछ सुधार नहीं हुआ। केंद्रीय सिल्क बोर्ड की मानें तो बनारसी साड़ियों के नाम पर बड़ी मात्रा में नकली साड़ियों का भी व्यापार होता है, जो उद्योग पर असर डालता है। बुनकरों को इसका सीधा खामियाजा उठाना पड़ता है। क्योंकि जैसे ही धंधा मंदा होता है, उनका काम ठप हो जाता है। बनारस के लगभग तीन चौथाई बुनकर ठेके या मजदूरी पर काम करते हैं। इनमें अधिकतर मुस्लिम समाज से हैं। लेकिन मोदी सरकार आने के बाद इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव आना शुरू हो गया है।
बनारस और भदोही की सीमा पर स्थित कपसेठी गांव घर-घर में बुनकरी के लिए जाना जाता है। यहां के अधिकतर बुनकर आमदनी को लेकर काफी चिंतित नजर आते हैं। इनमें से अधिकतर यह कहते नजर आते हैं कि 100 या 120 रुपये में अब गुजारा नहीं होता। एक दिन की मजदूरी कम से कम 300 रुपये तो होनी ही चाहिए। 80 वर्ष के बिस्मिल्लाह की चार पीढ़ियां बुनकरी के काम को करती आई हैं। लेकिन अब उन्हें यह चिंता सताती है कि आगे कोई इसे जिंदा रख पाएगा? क्योकि वे मानते हैं कि 100 या 120 रुपये में आज की पीढ़ी बुनकरी न करके कुछ और काम धंधा करने लगी है या दिल्ली-मुंबई जा रही है जिसके कारण इस काम में ठिठकन आ जाती है। वे कहते हैं, ‘‘अगर आमदनी बढ़ जाए और ताना-बाना सस्ता हो तो इस काम को करने में कुछ फायदा है। वैसे अब मोदी जी आए हैं। हम लोगों को उनसे बड़ी आशाएं हैं। हम यह भी मानते हैं कि वे काम भी हमारे लिए कर रहे हैं। अगर मजदूरी बढ़ जाएगी तो यह धंधा न केवल जीवित होगा रहेगा दौड़ेगा।’’ कुछ समय पहले केन्द्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने वाराणसी के बीपीएल कार्ड धारी 21 हजार बुनकर परिवारों के विकास के लिए 31 करोड़ रुपये देने की घोषणा की। यह राशि बुनकरों के कौशल विकास, बुनाई के आधुनिक उपकरण व तकनीक देने और शिक्षा पर खर्च होगी।
रिपॉजे कलाकृतियां
सदियों से बनारस की पहचान के रूप में चर्चित मेटल रिपोजी क्राफ्ट (पारम्परिक नाम- खाल उभार का काम) कसेरा समुदाय की विशिष्ट पहचान रही है। जी़आई. पंजीकरण के बाद से इस की पूछ-परख बढ़ी है। काशी में मेटल रिपोजी क्राफ्ट का काम काशीपुरा, नीचीबाग, कदमतले, बैरवाली गली, विन्ध्याचल गली, दशाश्वमेघ, ठठेरी बाजार, रामघाट, सोनारपुरा, हृदयपुर और सिंहपुर में होता है। इस काम में 500 से ज्यादा लोग तांबे, पीतल, अल्युमिनियम और चांदी के बर्तन, भगवान के मुकुट, सिंहासन, बर्तन, दरवाजों के ऊपर उभार का काम करते दिखाई पड़ते हैं। काशी में चांदी एवं सोने के आभूषण बनाने वाले कारीगरों की संख्या लगभग 5,000 है। काशी विश्वनाथ मंदिर का स्वर्ण शिखर, दरवाजे-चौखट, प्रसिद्ध गोपाल मंदिर, अमृतसर के स्वर्णमंदिर के ऊपर लगा स्वर्ण शिखर, तरनतारन के प्रसिद्ध गुरुद्वारे की पालकी, शनि शिंगनापुर में शनि देव की पालकी तथा हरेक महाकुम्भ में विभिन्न अखाड़ों के महामण्डलेश्वरों के छत्र, सिंहासन, रथों पर नक्काशी का कार्य इनके द्वारा ही किया जाता है।
दरअसल यह काम सिर्फ काशी में ही होता है। लाख के आधार पर तांबा, पीतल और चांदी की शीट के ऊपर हाथ से पारंपरिक औजारों द्वारा नक्काशी करने का कार्य ‘एम्बॉस’ यानि उभारने की तकनीक से किया जाता है। खालने और उभारने की इस कला को अंग्रेजों के शासनकाल में रिपोजी नाम दिया गया। यह काम पीढ़ी दर पीढ़ी साड़ी उद्योग की ही तरह जारी है। अधिकतर कारीगर सातवीं पीढ़ी से इस काम को करते चले आ रहे हैं। इसी कला से जुड़े रहे काशी के प्रसिद्ध ‘प्रेमचंद्र जी घंटा वाले’ अब नहीं रहे हैं लेकिन उनकी परंपरा को उनके पुत्र घनश्याम दास कसेरा आगे बढ़ा रहे हैं। काशीपुरा के रहने वाले घनश्यामदास की पांचवीं पीढ़ी इस काम को कर रही है। वे इस काम के बारे में बताते हैं, ‘‘यह काम अपने आप में अनोखा है। क्योंकि आप जो काम करते हैं, वह आपके जाने के बाद आपकी पीढ़ी को पहचान दिलाता है। यही वजह है कि आज भी हम लोग इसके साथ आस्था के साथ जुड़े हुए हैं।’’
सजावट का सुंदर कारोबार
हाल ही में बनारस की मशहूर हस्त-शिल्प गुलाबी मीनाकारी, लकड़ी के खिलौने और मिर्जापुर की दरी को जीआई का दर्जा मिलने के बाद से इन उद्योगों की पहचान न केवल विश्व स्तर पर होने लगी बल्कि इन्हें नया जीवन मिल गया है। उद्योग-धंधों से जुड़े लोग मानते हैं कि इस पंजीकरण के होने से ज्यादा लाभ होगा। गौरतलब है कि बनारस की गुलाबी मीनाकारी की हालत कुछ वर्षों से ठीक नहीं थी। पुराने बनारस के पक्के महाल, भैरवगली, गायघाट की गलियों में गुलाबी मीनाकारी का काम किया जाता है। चांदी और सोने के आभूषण, सजावटी सामान विशेषकर- हाथी, घोड़े, ऊंट, चिड़िया, मोर पर गुलाबी रंग चढ़ाने की तकनीक के कारण ही यह कार्य पूरी दुनिया में मशहूर हुआ है। दस साल पहले इस काम को 2500 परिवार करते थे लेकिन कुछ वर्ष पहले अचानक चांदी के भाव आसमान छूने से धंधा मंदा हो गया और बहुत सारे लोगों ने काम को छोड़ दिया। आज 150 परिवार इस काम को कर रहे हैं। 40 वर्षीय कुञ्ज बिहारी पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को करते चले आ रहे हैं। 2016 में उन्हें उत्कृष्ट काम करने के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत भी किया जा चुका है। अपने नाम से फर्म चलाने वाले कुञ्ज बिहारी बताते हैं कि जब से इसका जीआई पंजीकरण हुआ है, तब से इसका फैलाव बढ़ा है। अब देश के साथ ही विदेशों से हमारे काम की मांग हो रही है। वे इसके इतिहास के बारे में बताते हैं,‘‘प्राचीनकाल में राजे-रजवाड़ों के मुकुट, छत्र और शरीर पर रत्नजड़ित आभूषणों को पहनने की परंपरा रही। मुगलकाल में यह कला बनारस में और तेजी से बढ़ी। यहां की मीनाकारी में खासियत यह है कि यहां सिर्फ गुलाबी मीनाकारी होती है। चांदी और सोने के ऊपर गुलाबी रंग चढ़ाने का कार्य एक निश्चित तापमान पर किया जाता है।’’ वे बताते हैं कि हमारा सामान यूरोप, आॅस्ट्रेलिया, कनाडा और खाड़ी के देशों में जाता है। मोदी सरकार आने के बाद इसे काफी प्रचार प्रसार मिला है और जो वास्तविक कारीगर हैं, उन्हें मौका मिला है। वे मानते हैं कि अगर इस काम को आगे बढ़ाना है तो सरकार को नए प्रयोग, डिजाइन, प्रशिक्षण, सुविधाएं व सस्ते दर पर बिजली उपलब्ध करानी होगी।
बढ़ता खिलौनों का कारोबार
काशी में प्राचीन काल से जंगली लकड़ी कोरैया से विविध प्रकार के देवी-देवताओं की मूर्तियां, हस्तनिर्मित औजार, भगवान के मंदिरों, कृष्ण जी की पालकी, उड़ते हुनमान जी, पंचमुखी हनुमान, राधा-कृष्ण, रामदरबार आदि लीलाओं से संबंधित खिलौने बनाए जाते हैं। यहां के बने खिलौने वियतनाम, कनाडा, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में जाते हैं।
शहर के कश्मीरीगंज, खोंजवा, बड़ागांव, हरहुआ, लक्सा, दारानगर, अहरौरा में बच्चोें के लिए उत्कृष्ट खिलौने बनाने का काम किया जाता है। लगभग 2 हजार से ज्यादा शिल्पी इस काम को मौजूदा समय में कर रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस कारोबार का वार्षिक आय 5 से 7 करोड़ रु. है। काशी में हनुमानपुरा के रहने वाले रामखिलावन सिंह-कुंदेर की उम्र 82 वर्ष है। लेकिन वे अभी भी अपने बेटे के साथ खिलौनों को बनाने का काम करते हैं। खुद घर पर ही कारखाना लगाया हुआ है जहां कई कारीगर खिलौने बनाने का काम करते हैं। इन पर रामखिलावन की पैनी नजर रहती है। अगर उन्हें लगता है कि यह खिलौना ठीक नहीं बना है तो वे खुद बनाकर दिखाते हैं। वे बताते हैं, ‘‘10 वर्ष की अवस्था में मेरे पिता जी का देहांत हो गया। लेकिन हमारे यहां यह काम परंपरागत रूप से होता आ रहा था। हम लकड़ी से खिलौने एवं तरह-तरह की अन्य चीजें बनाना पहले से जानते थे। हमने दशश्वमेघ घाट पर सबसे पहले खिलौनों बेचना शुरू किया। हमारे खिलौने की यहां अच्छी बिक्री होने लगी। इसके बाद पूरी विश्वनाथ गली को माल देना शुरू कर दिया। बस यहीं से व्यापार चला तो कारखाना लगाया। आज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 100 लोग इससे जुड़े हैं और रोजगार पा रहे हैं।’’ वे अपने कठिन दौर के बारे में बताते हैं,‘‘बीच में एक दौर ऐसा आया था जब प्लास्टिक के खिलौनों की मांग होने लगी थी। बच्चे लकड़ी के खिलौने कम पंसद करते हैं। क्योंकि प्लास्टिक का खिलौना रंग-बिरंगा लगता है जो बच्चों को लुभाता है। लेकिन बच्चों को इसका नुकसान होता है क्योंकि इसके बनाने में केमिकल का प्रयोग होता है। पर अब समाज में जागरूकता आई है और अब लोग लकड़ी के खिलौनों के ओर लौट रहे हैं।’’ वे कहते हैं कि कुछ वर्षों से हमारा व्यवसाय फिर से राह पकड़ रहा है। हमारे खिलौनों की मांग बढ़ी है और सरकार के भरपूर सहयोग से अब मेले और प्रदर्शनी में हम लोगों को स्टॉल लगाने को स्थान उपलब्ध हो जाता है।’’
रामखिलावन को उत्कृष्ट कार्य के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पुरस्कार भी मिल चुका है। उनके बेटे रामेश्वर सिंह को इसी कार्य के लिए 2016 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। रामेश्वर सिंह खिलौनों के बाजार को बढ़ाने के बारे में कहते हैं,‘‘यह बहुत बड़ा बाजार है। बस सरकार हम सभी को प्रशिक्षित करने के लिए कुछ केन्द्रों की स्थापना करे और कौरैया लकड़ी जिस पर प्रतिबंध लगा हुआ है, उस पर प्रतिबंध हटाकर अपनी निगरानी में इसे उपलब्ध कराए। इससे खिलौनों का बाजार और अच्छा हो जाएगा।’’
हस्तनिर्मित भदोही कालीन
हस्त निर्मित कालीन एवं दरी बनाने की परंपरा भदोही एवं मिर्जापुर में मुगलकाल से शुरू होकर अनवरत चली आ रही है। पहले भदोही इसी वाराणसी का हिस्सा था। यहां का कालीन उद्योग आज भी अपने चरम पर है। भदोही के काजीपुर, नई बस्ती, गोपला इलाकों के बने कालीनों की देश ही नहीं, विदेशों में बहुत ही मांग हैं। यहां का अधिकतर काम न्यूजीलैंड पर निर्भर है।
वर्ष 2010 में जीआई पंजीकरण के बाद से भदोही के हस्त निर्मित कालीनों को भी एक नई पहचान मिली है। इस कारोबार में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब 8-9 लाख लोग जुड़े हैं और इसका व्यवसाय लगभग 10 हजार करोड़ का है। भदोही और वाराणसी की सीमा के पास कछवां गांव है। यहीं के प्यारेलाल मौर्य को उनके अनूठे कार्य के लिए राज्य और राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिला है। वे अपने घर पर ही दर्जनों लोगों के साथ कालीन बनाने का काम करते हैं। वे बताते हैं,‘‘हमारे धंधे में बिचौलिये तेजी से हावी हैं। हमारा जो बड़ा मुनाफा होता है उसे यही लोग ले जाते हैं। ऐसे में फिर हम लोगों को समस्या होती है। लेकिन अब स्थिति कुछ बदली है। आशा है, आने वाला समय अच्छा होगा।’’ केन्द्र में राजग सरकार आने के बाद न केवल बनारस के परंपरागत उद्योगों को नया जीवन मिला है बल्कि कई पीढ़ी खपा चुके इन उद्योगों के कारीगरों के जीवन स्तर में भी सुधार आया है। इसी का परिणाम है कि अपनी विश्वसनीयता, लगन और ईमानदारी की बदौलत आज वे बहुत से लोगों को रोजगार देने में सफल हो पा रहे हैं।
इन पर गया है सरकार का ध्यान
ताना-बाना की उपलब्धता
बुनकरों को सरकारी अनुदान
तकनीक से लैस हों बुनकर
बिचौलियों से छुटकारा
सरकारी योजनाओं की जानकारी
उपलब्ध हो बड़ा बाजार
बढ़ती रहे आय
बुनकरों के लिए मिसाल हैं अफसाना बानो
काशी के लोहता की रहने वाली अफसाना बानो आज बुनकरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। हों भी क्यों न! उन्होंने काम जो ऐसा किया है। कभी खुद काम की तलाश में रहने वाली अफसाना आज 50 से ज्यादा महिलाओं को बुनकरी से जोड़कर काम दे रही हैं। 27 वर्षीया अफसाना ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन अपने हुनर और लगन के दम पर न केवल खुद के परिवार को पाल रही हैं बल्कि कई परिवारों को रोजगार देने का काम करती हैं। वे बताती हैं,‘‘मायके में भी कई पीढ़ियों से यही काम होता चला आया था और शादी होने के बाद ससुराल में भी यही काम होता है। लेकिन हमारे पास इतने पैसे नहीं थे जो हम कुछ अलग कर सकते। एक दिन लोहता में ही एक स्वयंसेवी संगठन द्वारा बुनकरों से जुड़ा कार्यक्रम हुआ। उस बैठक में उनके द्वारा मुद्रा लोन की चर्चा की गई। मैं इस बात को लेकर काशी के डॉ. रजनीकांत, जो हम जैसे लोगों के उत्थान के लिए काम करते हैं, उनसे मिली। उन्होंने मदद की और मुझे 2016 में बैंक से 50 हजार रुपये का मुद्रा लोन मिल गया। बस यही वह समय था जब से हमारे जीवन में परिवर्तन आना शुरू हुआ। मैंने इसी पैसे से अपना काम शुरू किया। आज मैं खुद बाजार से साड़ी का पूरा सामान लाती हूं और महिलाओं को देकर काम कराती हूं। और जब माल तैयार हो जाता है तो सीधे गद्दीदार को देते हैं। इससे बिचौलियों को जो पैसा मिलता था, वह बच जाता है और हम सभी को फायदा होता है।’’ वे मानती हैं कि पहले की सरकार में भी मैंने लोन लेने का प्रयास किया था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। पर भाजपा सरकार आने के बाद ही हमारा लोन पास हुआ है। हां, अभी बुनकरी के काम में बहुत-सी तकलीफें हैं लेकिन अब धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है और हम लोगों के दुख दूर हो रहे हैं।’’
कालीन उद्योग
1,0000 करोड़ रु.
सालाना कारोबार
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