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बाली के हिन्दू आज भी पूरे गौरव के साथ अपने सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजे हुए हैं। वहां ताड़पत्रों पर धार्मिक ऋचाओं का लेखन आज भी प्रचलित है। वहां के हिन्दू समाज को हमारे प्रोत्साहन और स्नेह की जरूरत है
श्याम परांडे
हिन्दू धर्म के अध्ययन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलुओं में एक है ‘लोंटार’, जिसे हम ताड़पत्र लेखन कहते हैं। पूरी दुनिया में संभवत: इंडोशियाई में बालीवासी ही एकमात्र ऐसे समुदाय है जो ताड़ के पत्तों और बांस के छिलके पर लिखने की प्राचीन परंपरा को संरक्षित करने में समर्पित भाव से जुटे हैं। लोंटार हिन्दू धर्म का अध्ययन करने वाले छात्रों के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम का हिस्सा है। कुशल और खूबसूरत हस्तलिपि में लोंटार लेखन की कलात्मकता देखकर हम आश्चर्यचकित रह गए, जिसमें पहले ताड़ के पत्तों पर लिपि उकेरी जाती है और फिर उसमें स्याही भरते हैं-एक सुघढ़ लेखन शैली। यह एक अद्भुत अनुभव था। हर छात्र को लोंटार पर धार्मिक पाठ लिखना होता है, जो जीवनभर उसके साथ रहे, क्योंकि यह उनके लिए एक पवित्र प्रतीक है। धार्मिक अनुष्ठान करते समय हर व्यक्ति लोंटार पर लिखे उन्हीं पाठों को पढ़ता है जिन्हें उसने खुद लिखा और संरक्षित किया है। वे अन्य लोगों की तरह छपी पुस्तकें नहीं पढ़ते।
हर घर में ‘रामायण काकविण’ (बालीवासियों की रामायण) को पूजनीय माना जाता है और घर का कोई एक सदस्य इसे लोंटार में लिखकर पवित्र ग्रंथ के रूप में सहेज कर रखता है और रामायण व्याख्यान या पाठ के दौरान इसे ही पढ़ता है। इसे देखकर मेरे मन में सवाल उठा, क्या हमारा भारतीय समाज ताड़पत्र (लोंटार) लेखन की कला सीखने के लिए तैयार है?
भारत शायद दुनिया में सबसे अधिक ध्वनि प्रदूषण वाला देश है, जबकि बाली में इसका स्तर काफी नीचे है जो किसी भी विदेशी को वहां पहुंचते ही महसूस होता है। बाली हिन्दू समुदाय न्येपी दिवस नामक त्योहार मनाता है जिसमें मौन व्रत का पालन किया जाता है। इस दौरान सड़कों पर गाड़ियां या आकाश में हवाई जहाज नहीं उड़ते, कार्यालयों में अवकाश होता है, कहीं टीवी नहीं चलता, कोई मनोरंजन का कार्यक्रम नहीं होता, सड़कों पर नाममात्र का आवागमन होता है। हर व्यक्ति अपने घर में मौन व्रत का पालन करते हुए अपने इष्टदेवता की पूजा में लीन रहता है। वह इस बात की समीक्षा करता है कि पिछले साल उसने क्या किया, साथ ही वह अगले साल किए जाने वाले कार्यों की योजना बनाता है। पर भारतीय समाज के लिए यह अकल्पनीय है, जहां सड़कों पर जोर-जोर से हॉर्न बजाना सुरक्षा का मापदंड है।
बाली की एक और खासियत है-त्रिकाल संध्या, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हर छात्र दिन में तीन बार त्रिकाल संध्या के साथ गायत्री मंत्र का पाठ करता है क्योंकि यह पाठयक्रम का हिस्सा है। बाली में कई रेडियो स्टेशन हर दिन त्रिकाल संध्या का तीन बार प्रसारण करते हैं। हमें एक ऐसे परिवार से मिलने का मौका मिला जिसने अपने छोटे बेटे को सड़क हादसे में खो दिया था। शोक के बावजूद अंतिम संस्कार की भव्य तैयारी की गई थी और कई दिनों तक रिश्तेदारों और दोस्तों का एकत्र होना वाकई बड़ी बात थी। वहां शव पर स्थानीय जड़ी-बूटियों का लेप लगाया जाता है, ताकि वह खराब न हो और उसे रथनुमा लकड़ी के ढांचे में सुरक्षित रखा जाता है। सुंदर रथ के साथ ही शव का अंतिम संस्कार किया जाता है। शोक संतप्त परिवार के दुख को साझा करने के लिए पूरे गांव या शहर के लोग अंतिम संस्कार के जुलूस में शामिल होते हैं।
सदियों से बाली में हिन्दू धर्म, बाली बौद्ध धर्म और इन दोनों धर्मों से प्राचीन पारंपरिक बाली धर्म ‘बालियागा’ परस्पर सामंजस्य के साथ मौजूद रहे हैं और इनके अनुयायी अपने-अपने आध्यात्मिक दर्शन को साझा करते हुए एक-दूसरे के उत्सव में उदार मन से शामिल होते हैं। वहां शैव और बौद्घ धर्म बिना किसी वैमनस्य या विवाद के विद्यमान हैं जो हर समाज के लिए एक मिसाल कायम करता है जिसपर बाली को गर्व है। हालांकि, आज बाली द्वीप की तेजी से गिरती जनसंख्या से चिंतित है। लगभग एक दशक के दौरान वहां हिन्दू आबादी 94 फीसदी से घटकर 84 फीसदी रह गई है। इस पर बाली के हिन्दू बुद्धिजीवी खुलकर चिंता व्यक्त कर रहे हैं। शांत समुद्र तटों, रंग-बिरंगे फूलों की चादर से सजी प्राकृतिक छटा, फूलों के मनमोहक डिजाइन और टाइलों वाली छतों से सुसज्जित शानदार वास्तुकला और इन सबसे बढ़कर मोहक मुस्कान के साथ स्वागत करते बालीवासियों का स्नेहहिल आतिथ्य बाली को दुनिया का सबसे आकर्षक पर्यटनस्थल बनाता है। इसी वजह से इंडोनेशिया के अन्य हिस्सों से निवेशक इसकी ओर आकृष्ट हो रहे हैं। इससे यहां मुसलमानों का आना-जाना बढ़ रहा है जो जनसांख्यिकीय बदलाव का बड़ा कारक है और चिंता का सबब भी। आज बाली के हिन्दू समुदाय की सबसे बड़ी चिंता उस परंपरा को संरक्षित रखने की है जिसे उनके पूर्वजों ने इतने प्यार से संजोया है।
बाली का हिन्दू समाज तमाम आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहा है, इसे नकारा नहीं जा सकता। सबसे बड़ी चुनौती इसके अंदर से उभरी है। यह समाज सदियों से इस द्वीप पर एकजुट रहता आया है, फिर भी यदा-कदा अंदर छिपे विवाद उभरते रहे हैं। ऐसे मौकों पर इस समाज ने मजबूती के साथ उन विघटनकारी बलों का सामना किया और अपनी एकता को बरकरार रखते हुए सदियों तक अपनी परंपरा और मान्यताओं को संरक्षित रखा। हालांकि, संस्कार, रीति-रिवाजों और पंथ पर आधारित मतभेद आज सांप्रदायिक गुटों कीतरह ही समाज को विभाजित कर रहे हैं। इस समाज को अपने शानदार भविष्य के लिए इस तरह के सभी मतभेदों से ऊपर उठना होगा। बाली में हिन्दू धर्म एक ऐसी अनमोल परंपरा है जिसे इस द्वीपीय देश को निश्चित रूप से सुरक्षित रखना होगा। अगर बाली इस उद्देश्य में असफल होता है तो वह मानवता की पराजय होगी। फिर भी, इस बात का उल्लेख करने में कोई संकोच नहीं है कि भारतीय हिन्दुओं के साथ बातचीत बाली के लोगों को अक्सर चिंतित कर देती है। मैं यहां थोड़ी बेबाकी के साथ सच को सामने रखूंगा। भारत के विभिन्न धार्मिक संगठन और संप्रदाय बाली के हिंदू धर्म को समझे बिना उन पर तरह-तरह की टिप्पणी करते हैं और उन्हें अपने जैसा बनाने की कोशिश करते हैं। यह बहुत खतरनाक लक्षण है और बाली के लोग भी इसे महसूस कर रहे हैं। भारतीय हिन्दुओं को यह समझना होगा कि रीति-रिवाज तो साधारण मुद्दे हैं पर इन्हें कमतर ठहराना बाली के हिन्दुओं और भारतीय हिंदुओं के बीच सिर्फ दूरी को बढ़ाने का ही कारण बनेगा। बाली के हिन्दुओं की अपनी परंपरा और संस्कृति को बनाए रखने में निभाई गई मजबूती और हौसले की सराहना वहां के समाज को प्रोत्साहित करेगी और उसके रिश्ते भारत के साथ और प्रगाढ़ हो जाएंगे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारतीय हिन्दू समाज का बाली के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण योगदान होगा। बाली के लोगों पर भारतीय परंपरा को थोपना उनकी परंपरा के लिए घातक हो सकता है।
भारतीय पर्यटकों को बाली जाने से पहले इन कारकों को समझना होगा। मुझे बाली में ग्रामीणों, किसानों, मछुआरों, छात्रों, प्रोफेसरों, होटल मालिकों, नेताओं, डॉक्टरों, इंजीनियरों और ऐसे ही अन्य वर्गों के लोगों से बातचीत का मौका मिला। यह सब इंटरनेशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज के कारण संभव हो सका, जिसका मुख्यालय भारत में नागपुर में है। इस संगठन ने बाली के दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों में दो अकादमिक पीठों की स्थापना की है, इनमें से एक निजी विश्वविद्यालय है जबकि दूसरा सरकारी। अध्ययन के विषय हैं-संस्कृत और आयुर्वेद। बाली के हिंदुओं के साथ इस स्तर का संपर्क करीब डेढ़ दशक से चल रहा है।
मेरा आग्रह है, कम से कम एक बार बाली की यात्रा जरूर करें-प्रवचन देने नहीं बल्कि उन्हें समझने के लए।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के महामंत्री हैं)
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